क्या इस हकीकत से वाकिफ नहीं हैं मोदी जी?
डॉ.बचन सिंह सिकरवार

आश्र्चर्य की बात यह है कि क्या प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी को यह जानकारी नहीं थी कि देश की नौकरशाही और सरकारी कर्मचारी कितने
ईमानदार हैं ? क्यों एक आम आदमी सरकारी तंत्र
से यथा सम्भव बचना चाहता है ? अब प्रधानमंत्री मोदी अपना
राजस्व बढ़ाने को हर आदमी की गर्दन पर उसका शिंकजा कसने जा रहे हैं। क्या उन्हें
पता नहीं कि देश में किसी भी प्रदेश में कोई भी काम बगैर रिश्वत के नहीं होता।
उन्हें आयकर विभाग, प्रवर्तन विभाग, बैंक के कर्मियों के बारे में जनसाधारण में क्या धारणा है ? क्या प्रधानमंत्री मोदी इससे भी अवगत नहीं ? उनकी नजर में लोगों के पास पाँच सौ और हजार रुपए नोटों के
रूप में जो कालाधन उनके पास था, उसका ज्यादातर हिस्सा
बैंकों और डाकघरों में आकर अब तक सफेद हो गया है। बस उन्हें इसके लिए अपनी जेब
थोड़ी ढीली करनी पड़ी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नोटबन्दी की घोषणा ने बैंक
कर्मियों तथा उनके दलालों को बैठे - बिठाये कालेधन के कुबेरों के कथित कालेधन को
सफेद करने का धन्धा जरूर मिल गया। इसके जरिए उन्होंने भी कालाधन खूब बना लिया।
जहाँ नोटबन्दी के चलते बड़ी संख्या में छोटे - छोटे श्रमिकों और दिहाड़ी मजदूर
बेरोजगार हो गए हैं। काम न मिलने पर उन्हें अपने राज्यों को लौटने को मजबूर होना
पड़ा है। इनमें से बहुत से भूखमरी के शिकार हैं । कुछ ने तो अपनी जान ही दे दी है।
वर्तमान में देश की आर्थिक गतिविधियाँ थम - सी गई हैं। आगे भी आमजन को सरकार की हर
रोज बदलती नीतियों पर भरोसा नहीं रहा है,
उसे सूझ
नहीं रहा है कि वह क्या करे ? जहाँ तक कालेधन वालों के बात है तो उनके पास तो पहले से
उसे ठिकाने लगाने के सोना - चाँदी, हीरे - जवाहरात, विदेशी बैंकें, जमीन - जायदाद समेत कई
तरीकें हैं, पता नहीं, क्यों प्रधानमंत्री जी को ही इनकी जानकारी नहीं थी ? लेकिन इनमें से केन्द्र / राज्य सरकारों में इन्हें पकड़ने
का अभी तक कोई प्रभावी अभियान नहीं छेड़ा। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
ने ऐसे किसी नौकरशाह या राजनेता को तवज्जो नहीं दी है, जिसकी सत्यनिष्ठा,
ईमानदारी
की धाक रही है और न ही किसी भ्रष्ट अधिकारी / राजनेता / अलगाववादियों के यहाँ छापे डलवायें हैं और न इनमें से किसी की
बेनामी सम्पत्ति ही जब्त की है। यहाँ तक कि कश्मीरी अलगाववादियों पर केन्द्र सरकार
द्वारा लुटाये जा करोड़ रुपए ही बन्द किये हैं। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री ने
राजनीतिक दलों पर चन्दे में किसी भी मात्रा मे
पाँच सौ और हजार रुपए के नोट लेने की छूट दी हुई है, जो कालेधन को सफेद बनाने का सबसे जरिया है।
अब तक सत्तारूढ़ दल भाजपा
के समर्थक इस सच्चाई को स्वीकार करने बराबर बचते आ रहे हैं। अब नोटबन्दी की विफलता
से जनता का ध्यान का बाँटने के लिए देश में नकदी रहित व्यवस्था बनाने का जोर - शोर
से प्रचार करने में जुटे हुए हैं जैसे भ्रष्टाचार को खत्म करने का एक अमोघ अस्त्र
है। सच्चाई यह है कि अभी विश्व के विकसित देशों की अर्थव्यवस्था भी मुद्राविहीन
नहीं हैं।
वैसे आये दिन जनसंचार माध्यमों
पर नये नोटों की लाखों-करोड़ों की गडि्डयाँ पकड़ जाने की खबरों से निश्चय ही इससे
उन लोगों को सरकार के नोट बन्दी के निर्णय तथा बैंकिंग व्यवस्था को लेकर गहन निराशा और असन्तोष - आक्रोश होगा, जिन्होंने इस आस-विश्वास में नोट बन्दी का समर्थन किया था
कि इसके कारण देश में कालाधन, भ्रष्टाचार, नकली नोटों की समस्या से छुटकारा तथा आतंकवादी गतिविधियों
पर लगाम लगेगी। परिणामतः उनके अच्छे दिन
आएँगे। वे लोग तो अपने को ठगा-सा अनुभव कर रहे हैं, जिनके स्वजन और वे
स्वयं अपनी मूलभूत आवश्कताओं के लिए दो-चार हजार के नये नोट लेने को बैंक
और एटीएम की कतारों में कई - कई दिन तथा सुबह से शाम तक भूख-प्यासे खुले में लगे
रहे हैं तब जाकर उनमें से कुछ को कुछ हजार रुपए ही मिल पाए। इस दौरान कुछ तो अपनी
जान ही गवां बैठे, तो दूसरों ने पुलिस के लाठी - डण्डे भी खाए। नोट बन्दी से उन लोगों की मुसीबतों का कहना
ही क्या, जिनके घरों में शादियाँ थीं
उन्हें शादी की व्यवस्थाएँ करने से कहीं ज्यादा बैंक में जमा अपने रुपए निकालने या
पुराने नोट बदलने में तमाम मुसीबतें झेलनी पड़ीं। उन किसानों को भी जिनके पास
सिंचाई, जुताई, खाद, बीज, मजदूरी के लिए नये नोट नहीं थे। ऐसे में उन्हें पुराने
बीजों, अधिक ब्याज पर कर्ज लेकर खाद आदि
खरीदने को विवश होना पड़ा। नोटबन्दी के दौरान के एक खास यह देखने को मिली कि देश भर
में जहाँ हर उम्र, जाति, वर्ग, मजहब का आम आदमी पुराने
नोट बदलने तथा नये नोट लेने को बैंक, डाकघर, एटीएम की कतार में खड़ा दिखायी दिया, वहीं कोई भी नौकरशाह,
पूँजीपति, व्यापारी, किसी भी राजनीतिक दल का
छोटा-बड़ा नेता, चिकित्सक, इंजीनियर, कॉलोनाइजर, ठेकेदार आदि इन कतारों में नजर नहीं आये,जिन पर सबसे अधिक कालाधन होने का अन्देशा था। फिर केन्द्र
और राज्य सरकारों ने यह पता लगाने का प्रयास नहीं किया, कि उनके पास पाँच सौ और हजार के नोट घर बैठे कैसे बदल गए ?
अब हकीकत यह निकल कर आयी है कि नोटबन्दी को जो भाजपाई अब तक 'सर्जिकल कार्रवाई 'बता रहे थे, वह उन आम लोगों के खिलाफ जंग साबित हुई है, जिनका कालेधन, भ्रष्टाचार, नकली नोट, आतंकवादी गतिविधियों से
कोई लेना - देना नहीं है। यहाँ तक कि इससे हुई परेशानी से विदेशी सैलानी भी नहीं
बचे। अब प्रधानमंत्री मोदी की बेमौके और अधूरी तैयारियों के साथ लिए नोटबन्दी के
फैसले की नाकामी से उनकी राजनीतिक सूझबूझ और परिपक्वता पर प्रश्न चिह्न लग गया
है। वैसे भाजपा हाल के कुछ चुनावी नतीजों से ज्यादा उत्साहित होने की जरूरत नहीं
है। अब प्रश्न यह है कि वे अपनी इस नाकामी पर देश के लोगों से क्या सफाई देंगे?
सम्पर्क - डॉ.बचन सिंह सिकरवार
63ब, गाँधी नगर, आगरा – 2820003
मो.नम्बर-9411684054
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