कब सीखेंगे जैसे को तैसा जवाब देना ?

अन्ततः भारत के चीन के 'वर्ल्ड उइगर काँग्रेस' के नेता डोल्कुन ईसा का ई-वीजा रद्‌द किये जाने पर शायद ही किसी को हैरानी हुई होगी, क्यों कि जो देश और उसकी अब तक की सरकारें अपने से बहुत छोटे, कम ताकतवर और हर तरह से कम साधन सम्पन्न मुल्क पाकिस्तान को जैसे को तैसा जवाब देने में नाकाम
रहा हो, उससे पूरी दुनिया को आँखें दिखाने वाले चीन को माकूल जवाब देने की उम्मीद करना ही फिजूल है। लेकिन चोट खाने के बाद तो कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी थोड़ा-बहुत प्रतिरोध, विरोध और प्रतिकार भी जरूर दिखाता है, किन्तु भारत ने इसमें से  कुछ नहीं किया, जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ में पाकिस्तान के 'जैश-ए-मोहम्मद' के सरगना आतंकवादी अजहर मसूद के मामले में भारत के प्रस्ताव पर हाल में ही चीन वीटो लगा चुका है । भारत के लाख समझाये जाने के बाद भी ये बहुत बड़ा आतंकवादी है जिसने उसे बहुत नुकसान पहुँचाया है लेकिन अपने खास दोस्त पाकिस्तान की खातिर चीन कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हुआ। उस यह सब कोई वक्त नहीं गुजरा कि जाने-अनजाने में भारत ने भी चीन के उइगर नेता डोल्कुन ईसा को पर्यटक ई-वीजा दे दिया, जो यहाँ धर्मशाला में चीन में लोकतंत्र लाने के प्रयास के सम्बन्ध में हो रहे एक सम्मेलन में भाग लेने आ रहे थे, जिसका आयोजन यहाँ अमरीका संचालित एक संगठन द्वारा किया जा रहा था। इसमें तिब्बतियों के सर्वमान्य धार्मिक गुरु / नेता दलाई लामा से उनकी भेंट होनी थी, जो उन्हीं तरह सन्‌ 1950 में तिब्बत पर चीन के बलात कब्जे के बाद से हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में अपना मुख्यालय बनाकर अपने सहयोगियों के साथ रहते हुए विश्वभर तिब्बतियों के हितों की अलख जगाए हुए है, जिससे चीन ड्रेगन बेहद परेशान है । उसे लगता है कि जब तक दलाई लामा जैसे नेता जिन्दा हैं
तब तिब्बत तक उसकी आजादी का मुददा जिन्दा बना रहेगा। कमोबेश यही स्थिति डोल्कुन ईसा जैसे नेताओं की है। वे जर्मनी में रहते हैं । इस उइगर विद्रोही को चीन के मुस्लिम बहुल इलाके शिनजियांग में भारी समर्थन हासिल है। गैरजानकारी में भारत के इतने से कदम से अपने को भारी तीसमार खा चीन के पश्चिमोत्तर में स्थित 'पूर्वी तुर्किस्तान' वर्तमान में चीन का शिनजियांग प्रान्त है जिसकी सीमाएँ रूस, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, गुलाम कश्मीर, अफगानिस्तान से जुड़ी हैं।
यह इलाका तेल और प्राकृतिक गैस भण्डारों से समृद्ध है। जहाँ तक शिनजियांग  के इतिहास का सम्बन्ध है तो 11 शताब्दी तक बौद्ध धर्म के प्रभाव में रहा । इस इलाके में हजारों की संख्या में बौद्ध स्तूप, मठ,मन्दिर तथा अनुवादशालाएँ बनायी गयी थीं । यहाँ पर कश्मीर से पहुँचे युवा भिक्षु करुणा ने बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया। इस क्षेत्र का सांस्कृतिक तथा सामाजिक राजधानी 'काशगर' को आज भी 'काशी' पुकारते हैं। यह आज भी लेह से 'काशगर' तक प्राचीन 'रेशमी मार्ग' का हिस्सा है। लेकिन दसवीं शताब्दी के मध्य में चंगेज खान की सेनाओं ने बौद्ध मन्दिरों को नष्ट - भ्रष्ट करने के साथ-साथ यहाँ के लोगों को इस्लाम कबूल करने पर मजबूर कर दिया।
शिनजियांग के लुयान, कुशा के बौद्ध शिल्प तुरपान की बौद्ध गुफाएँ अब भी सुरक्षित हैं। ये उस समय का स्मरण दिलाती हैं कि जब यह इलाके चीन में बौद्धधर्म के प्रवेश द्वार था। यहाँ शान्ति और अहिंसा के मंत्रों से गुंजायमान होते हुए विश्व को सर्वश्रेष्ठ कला एवं साहित्य के सृजन का गढ़ बना था। यह क्षेत्र इस्लामी आक्रान्ताओं ने उस समय के समाज को पूर्णतः नष्ट कर दिया। इस बीच चीन के शासकों का हस्तक्षेप होता रहा। बौद्ध विद्वान कुमार जीव को चीन के सम्राट ने अपने दरबार में बुलाकर 'राजगुरु' बनाया। अब चीन इस क्षेत्र में अपने उन्हीं हस्तक्षेप तथा सम्बन्धों का उल्लेख कर शिनजियांग पर अपना पुराना नियंत्रण होना सिद्ध करने की कोशिश कर रहा है।

'उरुमकी' शब्द की व्युत्पत्ति का मूल उर्वषी भी माना जाता है। शिनजियांग के नामकरण से पहले भारतीय शास्त्रों और बौद्ध धर्मग्रन्थों में यह इलाका 'रत्नभूमि' के नाम से विख्यात था। इस क्षेत्र की स्त्रियाँ उर्वषी की भाँति सुन्दर, मोहक और तीखे नाक-नक्श वाली होती है। यहाँ के पुरुष भी ऊँची कदकाठी के बलवान हुआ करते थे और धरती रत्न गर्भा मानी गयी है। यह क्षेत्र भारतीय सामरिक रणनीति और भू-राजनीतिक व्यूह रचना के लिए बहुत ही संवदेनशील तथा महत्त्वपूर्ण रहा है। अगर भारत स्वतंत्र होता तथा महाराजा रणजीत सिंह और सेनापति जोरावरसिंह जैसे पराक्रमी प्रभावी रह पाते तो काशगर एवं उरुमकी, लेह और स्कार्दू के साथ भारतीय मानचित्र पर होते। काशगर में सबसे बड़ी ईदगाह है जो बहुत छोटी है। शिनजियांग के हर स्कूल में चीनी भाषा ही शिक्षा का माध्यम है। चाहे वह मदरसा हो या सरकारी स्कूल। वहाँ के छात्रों को प्राप्तांक के आधार पर चीन के विभिन्न कॉलेजों या विश्वविद्यालयों में प्रवेश मिलता है। शिनजियांग में शेष चीन से जनसंख्या का सैलाब लाकर हान जनसंख्या का प्रतिशत बढ़ा दिया गया है। काशगर चीन में शिनजियांग मुसलमान बहुल राज्य है जिसकी कोई आधी जनसंख्या उइगर मूल की मुसलमान है। ये तुर्की मूल के हैं। इनकी भाषा तुर्की परिवार की है जो अरबी लिपि में लिखी जाती है। यह बात अलग है कि वर्तमान में चीन सरकार ने उइगर भाषा ही नहीं, कुरान को भी चीनी लिपि पढ़वाना शुरू कर दिया है। इस क्षेत्र पर सन्‌ 1944 में द्वितीय विश्वविद्यालय के समय सोवियत संघ के नेता जोसेफ स्टालिन के समर्थक विद्रोही मुसलमानों ने शिनजियांग में 'पूर्वी तुर्कीस्तान रिपब्लिक'का गठन कर लिया था। चीन ने 'पूर्वी तुर्कीस्तान'पर सन्‌ 1949 में बलात कब्जा कर लिया और इसका नाम 'शिनजियांग' रख दिया। इसका शब्दिक अर्थ 'नया सीमान्त' है। इसके बाद सन्‌ 1950 में तिब्बत को भी हड़प लिया। इन दोनों क्षेत्रों की जनता में आज भी अपने को चीन का हिस्सा मानने को तैयार नहीं है। यहाँ के लोगों में चीन द्वारा उनके प्राकृतिक सम्पदा के दोहन और भेदभाव को लेकर आक्रोश और गहरा असन्तो व्याप्त है। उन्हें अपनी भाषा, संस्कृति को नष्ट करने के साथ - साथ उनके क्षेत्रों में हान समुदाय के लोगों को बसाये जाने पर आपत्ति है । इस कारण ये तिब्बती बौद्ध और उइगर मुसलमान अपने ही इलाकों में अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं। उन्हें डर है कि एक दिन चीनी सरकार उनका सब कुछ बदल कर रख देगी। यहाँ तक कि उन्हें अपने समूचे समुदाय के अस्तित्व पर खतरा दिखायी दे रहा है। वे आज भी अपने को चीन का हिस्सा मानने को तैयार नहीं हैं यही भी सच है। वस्तुतः चीन ने शिनजियांग और तिब्बत पर कब्जा माओ त्से तुंग के शासन के दौरान किया। इन हड़पे हुए इलाके को जोड़ने के लिए सन्‌ 1962 में चीन भारत पर हमला कर उसके अक्षय चीन आक्साईचिन क्षेत्र में 38,000 वर्गकिलोमीटर भूमि पर कब्जा कर लिया। वर्तमान में तिब्बत और शिनजियांग के मध्य आक्साई चिन के कुनकुन पहाड़ों से लेकर एकमात्र मार्ग है। हकीकत में चीनी गणराज्य का कोई 60 प्रतित भू - भाग पर सीधे हान शासन नहीं चलता है। आज शिनजियांग और तिब्बत का क्षेत्रफल चीन का करीब-करीब आधा है 

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