हाँ, हमारे बाप का है पी.ओ.के.
डॉ.बचन सिंह सिकरवार


अब रही बात भारत की शक्ति की,तो उसमें वह ताकत है जो पाकिस्तान से उसके कब्जे के गुलाम कश्मीर
वापस ले सके,बल्कि दुनिया नक्च्चे से मिटा
सके। क्या वाकई डॉ.फारूक अब्दुल्ला और उनका खानदान इस हकीकत में अनजान है कि सन 1971की भारत से जंग में
पाकिस्तान अपना आधा हिस्सा गवां चुका है। तब उसके 93हजार से ज्यादा सैनिकों ने उसके सामने हथियार डाले थे। उसके बाद उसे भारत से 'शिमला समझौता' करने को मजबूर होना पड़ा
था।अब तो उसमें तब से से कहीं ज्यादा ताकत है।
इससे पहले उन्होंने कश्मीर की आजादी की वकालत करते
हुए हुर्रियत कान्फ्रेंस का पूरा साथ देने का जो ऐलान किया, उससे एक बार फिर उनका असली चेहरा बेनकाब हुआ है। उनके इस
बयान पर ताजुब्ब करने या हैरान-परेशान
होने की जरूरत नहीं है,क्यों कि यह उनका
खानदानी चरित्र है। इस खानदान के लोग मौके के मुताबिक अपना रंग बदलने में माहिर
रहे हैं। इससे पहले डॉ.अब्दुल्ला यह कह कर कि कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग नहीं है
और न कभी होगा। ऐसा कह कर उन्होंने यही साबित करने की कोशिच्च की थी कि वे दूसरे
अलगाववादियों तथा पाकिस्तान समर्थकों से किसी
तरह अलग हैं,जो अपने फायदे के लिए
नापाक हरकतों से इस प्रान्त को जन्नत से जहन्नुम बनाये हुए हैं।
हालाँकि डॉ.फारूक अब्दुल्ला की जुबां पर दिल की बात आ गयी, पर इससे आगे चल कर कहीं ज्यादा बखेड़ा खड़ा न हो, इसलिए वह अपने कहे से पलट गए। उन्होंने अपनी सफाई में कहा
कि वह तो कश्मीरियों हक बात कर रहे थे। वह कश्मीर अवाम को उसका हक दिलाना चाहता
हूँ।
वैसे
डॉ.फारूक अब्दुल्ला ने ये सारी बातें अनायास नहीं कहीं हैं, बल्कि खूब सोच-समझ कर राजनीतिक रणनीति के हिसाब से कहीं है।
दरअसल, वह कश्मीर घाटी के कट्टरपन्थियों
को यह बताना-जताना चाहते हैं कि वह अपनी राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी मुखयमंत्री
महबूबा मुफ्ती से कहीं कट्टर मजहबी और उनसे बढ़कर अलगाववादी समर्थक हैं। अब
मुखयमंत्री महबूबा भी डॉ.फारूक अब्दुल्ला पर आरोप लगा रही हैं कि वह कुर्सी पाने
को घाटी में अपनी कार्यकर्त्ताओं से पत्थरबाजी,आगजनी
कराके अशान्ति फैला रहे हैं। वैसे आपको डॉ.अब्दुल्ला की हकीकत बता दें कि कश्मीरियों
के इस तथाकथित रहनुमा खानदान के लोगों को ऐसी बातें तभी याद आती हैं जब वे सत्ता
में नहीं होते हैं। इन्होंने पाकिस्तान के कब्जे वाले गुलाम कश्मीर के लोगों की
आजादी और उनके हक की बात आज तक नहीं की, जहाँ वे न सिर्फ हर तरह
के हक और बुनियादी जरूरतों से महरूम हैं,
बल्कि
गुलामों से भी बदतर जिन्दगी बसर करती हैं। पाकिस्तान ने कश्मीर के इस इलाके पर
सेना के जरिए जबरिया कब्जा किया था ,वहाँ के हुक्मरान
जनता पर बेइन्तहा जुल्म ढहराते रहे
हैं। इसे लेकर अलगाववादी नेताओं समेत शेख अब्दुल्ला और मुफ्ती सईद खानदान के
सदस्यों में से किसी ने कभी उसकी चिन्ता नहीं जतायी है।
डॉ.अब्दुल्ला का कहना है कि हुर्रियत के साथ भी वह
तभी तक है जब तक उसका रास्ता सही है। इसके माने ये हुए कि अभी हुर्रियत सही रास्ते
पर है, जबकि पूरा देश जानता है कि उसने
पिछले सत्तर साल से कश्मीर के लोगों को बरगला कर वहाँ का क्या हाल बना दिया है, उसे पूरी दुनिया जानती है। इसी 8जुलाई को आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन का सरगना
बुरहानी वानी के मुठभेड़ में मारे जाने के बाद अब तक इन्हीं हुर्रियत के नेताओं की
लगाई आग में कश्मीर घाटी जल रही है। इनके भड़काने पर नौजवान सुरक्षा बलों और पुलिस
थाने-चौकियों पर पत्थर बरसाने के साथ उनके हथियार छीनने और आग लगाते रहे हैं। इन
वारदातों में सौ से अधिक की मौतें हो चुकी हैं। इनमें कई हजार लोग और सुरक्षाकर्मी
घायल हुए है। घाटी में ज्यादातर थाने जलाये जा चुके हैं और कई दर्जन स्कूल आग की
भेंट चढ़ाये जा चुके हैं। कई महीने से वहाँ के बसे अपनी पढ़ाई से वंचित हैं, जबकि हुर्रियत कान्फ्रेंस के नेताओं के बशे देश-विदेशों के
नामी-गिरामी स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में पढ़ने-लिखने और प्रशिक्षण पाने के
साथ-साथ ऊँचे वेतन की नौकरियाँ भी कर रहे हैं। ये लोग पाकिस्तान समेत कई दूसरे
मुल्कों से धन लेकर अपने ही मुल्क को बर्बाद कर खुद ऐच्च की जिन्दगी जी रहे हैं। इसके
बाद भी डॉ.फारूक अब्दुल्ला उनके रास्ते को सही बता रहे हैं और वे इसे कश्मीरियों
की हक की लड़ाई बता रहे हैं। इससे उनकी मंशा पहचानना मुश्किल नहीं है।
डॉ.फारूक अब्दुल्ला ने यह सफाई भी बेवजह नहीं दी है
कि कश्मीर का भारत में विलय मेरे मरहूम वालिद द्रोख मुहम्मद अब्दुल्ला ने नहीं
कराया था। यह महाराजा हरि सिंह ने कराया,
पर इल्जाम
द्रोख अब्दुल्ला पर लगा दिया। अगर पाकिस्तान ने हमला न किया होता, तो महाराजा कश्मीर को आजाद मुल्क बनाये होते। दरअसल,वह इस स्पद्गटीकरण से यह साबित करना चाहते हैं कि उनके
वालिद द्रोख अब्दुल्ला भी हुर्रियत कान्फ्रेंस के पुरखों की तरह कश्मीर के भारत
में विलय के खिलाफ थे। वे भी कश्मीर को हिन्दुस्तान से अलग कराने या पाकिस्तान के हवाले करना चाहते
थे।
डॉ.फारूक अब्दुल्ला ने यह आरोप भी लगाया है कि भारत
में कश्मीर का विलय केवल तीन मुद्दों पर रक्षा, संचार, विदेश नीति पर हुआ था। तब यह भी
वादा किया गया था कि हालात ठीक होने पर कश्मीर में रायशुमारी करायी जाएगी। रायशुमारी में यहाँ के लोग जो फैसला करेंगे,उस पर अमल होगा। लेकिन हिन्दुस्तान ने अपने वादों पर अमल
नहीं किया। उसने कश्मीरियों को उनका हक नहीं दिया और यहाँ से हिन्दुस्तान से आजादी
का आन्दोलन शुरू हुआ। किन्तु यह सब बातें उनके वालिद द्रोख अब्दुल्ला,उन्हें और बेटे उमर अब्दुल्ला को विधायक, सांसद, मुखयमंत्री, केन्द्रीय मंत्री के लिए पद की शपथ लेते समय क्यों नहीं याद
आयी? इन्होंने भारतीय संविधान और
जम्मू-कश्मीर के संविधान की भी शपथ ली है इनमें कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग होने
का उल्लेख है। अब राय शुमारी का सवाल उठाने से पहले क्या डॉ.फारूक अब्दुल्ला को
यह याद नहीं कि रायशुमारी सिर्फ भारत के
हिस्से वाले कश्मीर के लोगों की नहीं होगी। उसमें पाकिस्तान के कब्जे वाले गुलाम कश्मीर
के लोगों की राय ली जानी है। क्या वह पाकिस्तान से भी यह सब कराने की हैसियत में
है ? अगर ऐसा नहीं कर सकते,तो उनकी यह कोरी बकबास के कोई माने नहीं हैं। वस्तुतः
लोकतंत्र और पंथनिरपेक्षता की आड में डॉ.फारूक अब्दुल्ला जैसे स्वार्थी और
अवसरवादी नेता देश की स्वतंत्रता, एकता, अखण्डता के खिलाफ कुछ भी बार-बार बोलते़ रहते हैं,पर
उनके खिलाफ राद्गट्रद्रोह का मुकदमा दर्ज नहीं हुआ है,इसलिए ऐसी बातें करने से बाज नहीं आ रहे हैं। इस पर देश की कथित पंथनिरपेक्ष राजनीतिक दलों समेत
राद्गट्रवादी भाजपा के नेता भी उनके खिलाफ कुछ बोलने और निन्दा/आलोचना से बचते आये हैं,ताकि
एक समुदाय विशेष उनसे नाराज न हो जाए। उनके मामले में जनसंचार माध्यमों का रवैया
भी हैरान करने वाला है जो इस मुद्दे पर पूरी तरह शान्त बैठें हैं। ऐसे में देश के
लोग ही डॉ.फारूक अब्दुल्ला जैसे स्वार्थी और अवसरवादी नेताओं को सबक सिखायें,जो उस कश्मीर भारत से अलग करने का खवाब देख रहे हैं जिसके
लिए पिछले 70 साल से भारत के सैनिक अपना खून
बहाने के साथ-साथ जान की कुर्बानी देते आये हैं।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-2820003मो.नम्बर-9411684054
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