फिर भी कुछ प्रश्न अनुत्तरित हैं ?

डॉ.बचन सिंह सिकरवार
हैदराबाद के केन्द्रीय विश्वविद्यालय के दलित वर्ग के शोध छात्र रोहित वेमुला  द्वारा आत्महत्या किये जाने के बाद इस विश्वविद्यालय के परिसर में ही नहीं,देशभर में इसके विरोध काग्रेस ,वामपंन्थी दलों समेत कई दूसरे कथित सेक्यूलर राजनीतिक दलों के नेताओं और उनसे सम्बद्ध छात्र संगठनों ने अपनी-अपनी तरह से विरोध जताने के बहाने स्वयं को सबसे बड़ा दलित हितैषी साबित करने और जाति विद्वेश फैलाने की भरपूर कोशिश की। काग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गाँधी दो बार हैदराबाद गए। इसमें एक दिन वे छात्रों के अनशन में भी शमिल हुए। अब कई सप्ताह बाद बाद हैदराबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई-लिखायी भी शुरू हो गयी है फिर भी उक्त घटना कुछ प्रश्न अनुत्तरित प्रश्न छोड़ गयी है। उसके जवाब दिये जाने जरूरी हैं।
 निश्चय ही रोहित वेमुल द्वारा आत्महत्या किया जाना दुखद और खेदजनक है उसके लिए जो उत्तरदायी हो, उसे दण्डित भी किया जाना चाहिए। लेकिन ऐसे  अति संवेदनशील  मामले में भी देश के अधिकतर राजनीतिक दलों और कुछ साहित्यकारों का आचरण किसी भी माने में उचित नहीं माना जा सकता, जो इस मामले की पूरी असलियत जाने बिना ही सिर्फ सुर्खिया बटोरने या राजनीतिक फायदे के लिए अपने को सबसे बड़ा दलित हित हितैषी बताने और जताने में लगे थे । परिणामतः हैदराबाद विश्वविद्यालय में छात्र संगठनों में लगातार आपसी टकरावों के कारण और उनकी वजह से हुए निलम्बन की चर्चा कहीं पीछे छूट गयी। इस घटना के बाद जहा कई राजनीति दलों के नेताओं समेत कुछ साहित्यकारों ने हैदराबाद पहुच कर शोक जताने के बहाने पूरे देश में जाति - विद्वेश की आग भड़काने के प्रयास किये, तो कुछ दूसरों ने फिर से असहिष्णुता और जातिगत भेदभाव का राग अलापते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की घोर निन्दा - आलोचना के साथ उनक्रे दो मंत्रियों के त्यागपत्र मागने लगे, जबकि रोहित वेमुला ने भी अपने मृत्युपूर्व लिखित वक्तव्य में अपनी मौत के लिए किसी को दोषी नहीं ठहराया है। ऐसे में बिना पूरी जाच-पड़ताल के इन नेताओं की मंत्रियों और कुलपति के इस्तीफे की माग को अनुचित ही नहीं, उनकी ओछी, जाति-विद्वेष फैलाने वाली विघटनकारी राजनीति कहा जाना चाहिए। सदैव की भाति जन संचार माध्यमों ने भी इस त्रासद और दलित-शोषित वर्ग छात्रों को भयभीत और हतोत्साहित करने वाली घटना को बढ़-चढ़ कर दिखाने-छापने में कोई कसर बाकी नहीं रहने दी, जबकि ये मालदा, पूर्णिया में अल्पसंख्यक कट्‌टरपन्थियों के थानों, घर-दुकानों, वाहनों के जलाने और  हमले करने, देश में कई जगहों किसानों और मुजफ्फर नगर में सामूहिक बलात्कार की युवती द्वारा आत्महत्या किये जाने पर शान्त बने रहे। उन्हें कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला के कश्मीरी पण्डितों के मामले में इस बयान में असहिष्णुता दिखायी नहीं देती कि वे उन्हें कश्मीर घाटी में अपने घरों को लौट आने की भीख मागने  नहीं जाएगे, जिन्हें उन्हीं के कट्‌टरपन्थी हममजहबियों ने बन्दूक के जोर पर अपने घरों से बेदखल किया था।
हमारा राजनीतिक दलों के नेताओं और जनसंचार माध्यमों के कर्ताधर्ताओं से प्रश्न है कि क्या इनमें से किसी ने रोहित वेमुला के फासी लगाकर अपनी जान देने से पहले उसके और अन्य छात्रों के निलम्बन के कारण तथा उससे होने वाले मानसिक-आर्थिक कष्ट-संताप को जानने का प्रयास किया ? हैदराबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्र किन-किन छात्र संगठनों से जुड़े हैं और वे किन-किन राजनीतिक दलों से सम्बद्ध हैं । उनके कार्यकलाप कैसे हैं ? फिर वेमुला से  पहले भी इस विश्वविद्यालय में विगत दस वर्षौं में दलित-पिछड़े वर्ग के नौ छात्र आत्महत्या कर चुके हैं, तब उन्होंने शोर क्यों नहीं मचा आया ? अपने देश में हैदराबाद विश्वविद्यालय में ही नहीं और दूसरी जगहों पर भी कुछ लोगों द्वारा ऐसा भेदभाव किया जाता है, जो सर्वदा अनुचित ही नहीं, विधिक रूप से दण्डनीय भी है। इस तरह के भेदभाव का पता कर हल हाल में उसका प्रतिकार भी किया जाना चाहिए, ताकि इस दुष्प्रवृत्ति को रोका जा सके। अगर इस बार की भाति पहले भी शोर मचाया होता, तो शायद रोहित वेमुला को अपने प्राण देने को विवश नहीं होना पड़ता।
अब दूसरा प्रश्न यह है क्या छात्र राजनीति  और अभिव्यक्ति स्वतंत्रता की आड़ में जाति-विद्वेष फैलाने और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों की खुली छूट दी जानी चाहिए ?
अब मूल मुद्‌दे पर आते हैं। आखिर 26 वर्षीय रोहित वेमुला समेत पाँच छात्रों को विश्वविद्यालय ने क्यों निलम्बित किया ? क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर सन्‌ 1993 के मुम्बई बम विस्फोट में उच्चतम न्यायालय से फाँसी के सजा पाये याकूब मेमन के पक्ष में भड़काऊ नारे लगाने और उसके लिए 'नमाज-ए-जनाज' पढ़ने की छूट दी जानी चाहिए ? याकूब मेमन का दलितों से क्या रिश्ता था ? आखिर क्या वजह थी जिससे उन्हें उससे इतनी हमदर्दी थी ? फिर बहुसंख्यक हिन्दुओं को चिढ़ाने के लिए विश्वविद्यालय में परिसर में गाय के मांस से बने व्यंजनों की 'बीफ पार्टी' दिया जाना उचित है? क्या विश्वविद्यालय परिसर में सामाजिक और साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने वाली 'मुजफ्फर नगर बाकी है' सरीखी एकपक्षीय डॉक्यूमेण्ट्री फिल्म दिखाना जरूरी है ? छात्र राजनीति के नाम पर जाति विद्वेष फैलाने वाली विभाजनकारी राजनीति को चलते रहना चाहिए। क्या देश में बढ़ती कथित असहिष्णुता के लिए केवल बहुसंख्यक हिन्दू ही उत्तरायी हैं ? क्या दलित और पिछड़ी जातियों में भी परस्पर भेदभाव नहीं है ?
इस मुद्‌दे को जानने-समझने के लिए पूरे घटनाक्रम का पता होना जरूरी है। गत 3 अगस्त, 2015 को याकूब मेमन की फासी दिये जाने के पक्ष में हैदराबाद विश्वविद्यालय परिसर में 'अम्बेडकर स्टूडेण्ट्‌स एसोसियेशन' द्वारा किये जा रहे उग्र प्रदर्शन और नारेबाजी का 'अखिल भारतीय विध्यार्थी परिषद्‌  के छात्रों ने विरोध किया। तब रोहित वेमुला के साथियों ने ए.बी.वी.पी.के के नेता पिछडी जाति का छात्र सुशील कुमार पर प्राण घातक हमला किया। उसमें सुशील कुमार गम्भीर रूप घायल हो गया और उसे अस्पताल में भर्ती होकर अपना ऑपरेशन भी कराना पड़ा। तब सुशील ने रोहित और उसके साथियों के विरुद्ध पुलिस में रिपोर्ट करायी। इसके बाद न्यायालय के आदेश पर विश्वविद्यालय ने जाच कमेटी गठित की। उसकी जाच में दोषी पाये जाने पर इन सभी के खिलाफ निलम्बन की कार्रवाई की गयी। इसमें रोहित तथा उसके साथियों के साथ जातिगत भेद करने का प्रश्न कैसे उत्पन्न हो गया ? इस घटना को लेकर एक ज्ञापन स्थानीय सांसद एवं केन्द्रीय श्रम मंत्री बंगारू दत्रात्रेय को भी दिया गया, जिसे उन्होंने केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति जुबिन ईरानी तक पहुँचा दिया। इस पर उनके मंत्रालय ने हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुलपति को पत्र लिखा। इसी विश्वविद्यालय में वंचित की आत्महत्याओं के मामले की जाच कराने के लिए नवम्बर, 2014 में काग्रेस के सांसद हनुमन्तराव ने भी केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय को पत्र लिखा था, इस पत्र पर मंत्रालय ने विश्वविद्यालय को छःस्मरण पत्र लिखे हैं, लेकिन इन पत्रों के कारण कुलपति ने न छात्रों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की है। अब रोहित वेमुला की मृत्यु पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत तमाम लोग दुःख व्यक्त करने के साथ जाच के बाद दोषियों को दण्डित किये जाने का आश्वासन दे चुके है, पर दलित वोट के फेर में ये नेता इतने से सन्तुष्ट नहीं हैं। ये लोग कई राज्यों में होने जा रहे विधानसभा के चुनावों के सम्पन्न होने तक भाजपा को दलित विरोधी बता कर बदनाम करते रहेंगे ।
 अगर देश में दलितों, वंचितोंपिछड़ों के इतने सारे समर्थक हैं और उन पर मीडिया भी बहुत तवज्जो देता है, तो यह स्थित अत्यन्त सुखद है। लेकिन ये सब अपने आसपास ही नहीं, देश के कौने-कौने में जाकर इन वर्गों के उत्थान के लिए कुछ करते क्यों नहीं ? उनकी मौत पर मिथ्या रुदन कर जाति विद्वेष फैलाने के बजाय उन पर होने वाले अन्याय, अनाचार, अत्याचार का पता क्यों नहीं करते, ताकि उन्हें जान देने को मजबूर न होना पड़े। सही माने में यही  उनकी मानवता के लिए भी सच्ची सेवा होगी।
सम्पर्क -डॉ.बचन सिंह सिकरवार
63,गाँधी नगर,

आगरा-282003 मोबाइल नम्बर-9411684054 

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