सिर्फ उनकी नहीं है यह कामयाबी ?

डॉ.बचन सिंह सिकरवार

हाल में देश के पाँच राज्यों में हुए विधानसभाओं चुनावों में उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में मिली अपार और अप्रत्याशित सफलता का श्रेय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को देने की होड़ लगी है, लेकिन विचार करें, तो यह कामयाबी सिर्फ इन दोनों की ही नहीं है इनमें समाजवादी पार्टी की सरकार के मुखयमंत्री अखिलेश यादव और उनकी पूर्ववर्ती बहुजन समाज पार्टी की मुखयमंत्री मायावती, उत्तरखण्ड में काँग्रेस के मुखयमंत्री हरीश रावत का अत्याधिक योगदान रहा है, जिसकी सारे भाजपाई ही नहीं, स्वयं सपाई, बसपाई, काँग्रेसी पूरी तरह अनदेखी कर रहे हैं। सच्चाई यह है कि इन सभी के बगैर ऐसी जीत की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अफसोस की बात यह है कि अपनी जीत-हार के असल कारणों पर विचार करने बजाय मायावती समेत सपाई और काँग्रेसी इसका सारा ठीकरा 'इलैक्ट्रिक वोटिंग मशीन'(इवीएम) पर फोड़ रहे हैं। वैसे भी अपने देश में अधिकांश मामलों में विकल्पहीनता की  जीत होती आयी है। लोग जब एक राजनीतिक दल की सरकार की अनुचित नीतियों-आचरण से ऊब जाते हैं,तब न चाहते हुए नए विकल्प के अभाव में फिर से पुराने को चुनने को विवश होते हैं, पर जब कुछ लोग उस परिवर्तन का श्रेय स्वयं लेने लगते हैं, तब दुःख होता है। वैसे चुनावी रणनीति और कुशल संचालन आदि एक सीमा तक ही सफलता के कारक बनते हैं, बाकी सही राजनीतिक विकल्प तो जनता स्वयं तलाश कर लेती है। 
 वैसे भी अगर उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, मणिपुर में मिली सफलता में प्रधानमंत्री मोदी का करिच्च्माई व्यक्तित्व पार्टी अध्यक्ष की कथित बेहतर सोशल इंजीनियरिंग, चाणक्य जैसी चुनावी रणनीति रही है, तो अब गोवा, पंजाब और पहले दिल्ली, बिहार में यह विफल क्यों हो गयी थी ? वस्तुतः जिन कारणों से ये लोग उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड में सफल रहे हैं, कमोबेश उन्हीं कारण से इन्हें विफलता मिली है। वैसे  जय-पराजय के कारणों की सम्यक्‌ समीक्षा/मीमांसा, आत्ममंथन-चिंतन करने की जगह हम 'जीता वही सिकन्दर' के चलन को मानते हुए कामयाब व्यक्ति के सिर्फ और सिर्फ गुणों पर विचार और चर्चा करते हैं। इसके साथ ही उसकी सभी तरह की कमियों-खामियों, अवगुणों को दबाने-छुपाने में जुटे जाते हैं या फिर जानबूझ कर यह सोचकर  चुप रहते हैं कि ऐसी-वैसी टिप्पणी कर व्यर्थ में अपना अहित क्यों किया जाए ?
 अब चर्चा करते हैं उत्तर प्रदेश की, जहाँ भाजपा और उसके सहयोगी दलों ने विधानसभा की कुल 403 सीटों में से 325 पर कब्जा कर अखिलेश यादव के अपनी शोधित समाजवादी पार्टी के कॉग्रेस के साथ मिलकर फिर से मुखयमंत्री बनने के सपना को चकनाचूर कर दिया है, जो अपने पिता मुलायम सिंह यादव से सारे अधिकार छीन कर अकेले दम पर 'काम बोलता है' का नारा लगाते हुए चुनावी समर में कूद पड़े थे। उन्हें पूरा भरोसा था कि नये दौर में चुनावी कामयाबी पाने के लिए उनके पिता और चाचा शिवपाल यादव की  पराम्परागत विचारधारा, उनके औजार ही नहीं, अब इनके चेहर-मोहरे भी आकर्द्गाण विहीन हो गए। इनकी भरपाई वह अपनी धर्मपत्नी सांसद डिम्पल यादव और कॉग्रेस के राद्गट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गाँधी कर देंगे।
 क्या अखिलेश यादव यह समझने की भूल कर रहे थे कि उनकी सरकार के पूरे पाँच साल के कार्यकाल की घोर जातिवादी ( विभिन्न  चयन आयोगों में एक जाति के अध्यक्ष, सदस्य उनके द्वारा जाति विच्चेद्गा के अभ्यार्थियों के चयन, नियुक्ति, पुलिस-प्रशासन के अधिकांश महत्त्वपूर्ण पदों पर जाति विच्चेद्गा के अधिकारियों की तैनाती) और मजहबी भेदभावपूर्ण नीतियों के कारण सैकड़ों साम्प्रदायिक दंगे, उनके मंत्रियों का भ्रष्टाचार, कदाचरण, सपाइयों की दबंगई, चौथ वसूली, जमीनों पर कब्जे, अंधाधुंध खनन, बेच्चुमार आपराधिक घटनाएँ-हत्या, छेड़छाड़, बलात्कार, लूटपाट, उनकी एक्सप्रेस वे, मेट्रो रेल आदि बनाने के दावे से लोग उन्हें काबिल, पाक-साफ, विकास पुरुद्गा मान लेंगे और अपना भविद्गय संवारने की बागडोर अगले पाँच साल उन्हें जरूर सौंप देंगे। राज्य के लोग गायत्री प्रजापति सरीखे दूसरे मंत्रियों के काले कारनामों, बलात्कार, हिंसक कृत्यों पर ध्यान नहीं देंगे,पर राज्य के लोगों ने मौका आते ही उन्हें करारा जवाब दे दिया। अब मोदी इसे अपना करिशमा बतायें, तो कोई क्या करें ? इसके अलावा सपा पिछड़ों के नाम पर यादव राज करती आयी थी। इस बार पिछड़ों ने तय कर लिया था कि वे अपने नाम पर अब यादवों  को राज नहीं करने देंगे। नतीजा दूसरी पिछडी जातियों ने भाजपा समेत अपनी मर्जी के उम्मीदवारों को वोट दिया।
 ऐसे ही बहुजन समाजवादी पार्टी की सब कुछ तथा पूर्ववती मुखयमंत्री मायावती मुसलमान और दलित जनाधार के भरोसे फिर से अपनी सरकार बनाने को चुनाव में उतरीं। इसके लिए उन्होंने सौ से अधिक सीटों पर मुसलमानों को अपना उम्मीदवार बनाया और मुसलमानों के बीच उनका सबसे बड़ा हिमायती होने का प्रचार किया। इस पर यादव-मुसलमानों के सहारे राजनीति करती आ रही सपा ने भी मुसलमानों को अपने पाले में बनाये रखने को काँग्रेस का दामन थामना जरूरी समझा, जो खुद भी उनकी सबसे बड़ी और पुरानी पैरोकार बताती आयी है। इस तरह राज्य की राजनीति मुसलमानों के आसपास ही केन्द्रित हो गयी। इन कथित पंथनिरपेक्ष दलों द्वारा भाजपा का डर दिखाने के चलते वे उसे हराने वाले दल को वोट देते आए हैं। अब यह अलग बात है कि इसके प्रत्युत्तर में हिन्दुओं का भी धुव्रीकरण हो गया। परिणामतः बसपा 19 सीटों पर सिमट गयी और उनके खवाब खवाब ही रह गए। क्या मायावती को अपनी सरकार के उन कारनामों की याद नहीं है जिनसे आजिज आकर और उनसे छुटकारा पाने को राज्य के लोगों ने सपा को 224 सीटें देकर सत्ता सौंपी थीं। तब उनके कोई दर्जन मंत्रियों, नौकरशाहों, चिकित्सकों आदि को भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाना पड़ा। उनकी सरकार के अपरमित भ्रष्टाचार, संवेदनहीनता, विकास के  धन को अपने अमरत्व के लिए मूर्तियों, पार्कों  आदि पर पानी की तरह बहाया गया था। इस बार मायावती की दलित के नाम पर सिर्फ अपनी जाति का राज करने की सियासत विफल हो गयी है,क्यों कि दूसरी दलित जातियों बसपा में अपनी उपेक्षा तथा हिन्दुत्व के कारण भगवा खेमे में चले गए। इसमें भाजपा को कोई विच्चेद्गा प्रयास नहीं करना पड़ा। दयाच्चंकर सिंह प्रकरण ने सवर्णों को बसपा से दूर कर दिया। ऐसे ही काँग्रेस ने केन्द्र में सत्ता गंवाने के बाद अपनी कमियों को दूर करने की कोशिश नहीं की है।
 उत्तराखण्ड में काँग्रेस ने जोड़-तोड़कर अपनी सरकार बनायी थी, किन्तु काँग्रेसी जनहित के बजाय आपसी गुटबाजी में ही उलझे रहें। एक मुखयमंत्री बदलने के बाद दूसरे मुखयमंत्री हरीश रावत भी जनता की उम्मीदों की कसौटी पर खरे नहीं उतरे। जिस तरह उ.प्र. में सत्ता विरोधी लहर का फायदा भाजपा को मिला, वैसा ही लाभ काँग्रेस को पंजाब और गोवा में मिला है, जहाँ शिरोमणि अकाली दल, तथा भाजपा की मिली जुली सरकार और गोवा में भाजपा और महाराष्ट्रवादी गोमान्तक पार्टी की पिछले दस साल से सरकारें थीं। शिअद-भाजपा सरकार के काल में यह राज्य नच्चे के काले कारोबार में बर्बाद हो गया। भाजपा अकाली मंत्रियों के भ्रष्टाचार को चुपचाप देखती रही। उसी का नतीजा यह है कि इस राज्य में केवल वह 3 सीटों तक सीमित रही गयी है। यहाँ मोदी और अमित शाह का कोई जादू नहीं चला। मणिपुर में भाजपा की बढ़त जरूर उत्साहवर्द्धक है, इसमें स्थानीय परिस्थितियाँ भी सहायक रही हैं। भाजपा स्वयं को चाल-चरित्र के मामले में दूसरे राजनीतिक दलों से अलग बताती आयी है,पर हकीकत यह है कि उसने लोकसभा में सौ से अधिक दूसरे दलों से आए लोगों को अपना उम्मीदवार बनाया। इस बार भी उ.प्र.विधानसभा के चुनाव में सपा, बसपाकाँग्रेस से आए एक चौथाई लोगों को टिकट दिया है। इसी तरह उत्तराखण्ड में उसने एक दर्जन से ज्यादा काँग्रेसियों को अपना प्रत्याशी बनाया है, जिनमें से कुछ पर भ्रष्टाचार आदि के गम्भीर आरोप लगे थे। जिस तरह की मजहबी, जातिवादी राजनीति दूसरे राजनीतिक दल कर रहे हैं, कमोबेश रूप में भाजपा भी उस नीति पर चल रही है। वैसे देश के लोगों ने जिस आस-विश्वास और अपेक्षाओं के साथ नरेन्द्र मोदी पर भरोसा जताया था, उसे अभी तक उन्होंने पूरा नहीं किया है। फिर भी लोगों का भरोसा भाजपा में बना हुआ, यही उसकी सफलता का राज है। इसे ही मोदी और अमित शाह अपनी कामयाबी मान तथा बता रहे हैं।
 सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार
63,गाँधी नगर,आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054


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