ये कैसी बेढगी तुलना ?

हाल में काँग्रेस के राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष गुलाम नवी आजाद ने 'जमीयते उलेमा-ए-हिन्द द्वारा  आयोजित 'राष्ट्रीय एकता सम्मेलन' में 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' (आर.एस.एस.) को 'इस्लामिक स्टेट' (आई.एस.) जैसा बताते हुए यह दुआ माँगी कि संघ और भारतीय जनता पार्टी के दिल से नफरत निकल जाए।' उनके इस कथन से उन जैसों के सिवाय शायद कोई सहमत हो और उनके कहे पर यकीन करे। सम्भवतः गुलामी नवी ऐसी ओछी तुलना करते समय यह भूल गए कि वे कोई मजहबी रहनुमा नहीं, जो लोग उनके कहे को  मजहबी मजबूरी में सही मान लेंगे। लेकिन उनकी इस बेढंगी तुलना से उन जैसे वरिष्ठ राजनेता की सोचने-समझने के नजरिये और बौद्धिक स्तर पर सवालिया निशान जरूर लगता है ? क्या वे भी अपने को जे.एन.यू. छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार सरीखा समझ बैठें हैं जिसने भारतीय सुरक्षा बलों पर कश्मीरी महिलाओं के साथ बलात्कार करने का घिनौना और संगीन आरोप लगाया है, अब उसकी पूरे देश में निन्दा और आलोचना की हो रही है।
 दरअसल, 'राष्ट्रीय एकता सम्मेलन' में गुलामी नवी आजाद देश के लोगों को एकजुट होने की नसीहत देने के बजाय उसे अपने दिल की भड़ास निकलने का मंच समझ बैठे। संघ और भाजपा के दिल से नफरत निकलने की दुआ करते-करते गुलाम नवी खुद ही नफरत के समन्दर में डूब गए, तभी तो वे संघ की तुलना आई.एस. करने की भूल कर बैठे। उन्होंने आर.एस.एस.की तुलना दुनिया के सबसे खूंखार, खौफनाक, अमानवीय आतंकवादी संगठन 'आई.एस.' तो कर दी, जो न केवल पूरी दुनिया को 'दारुल इस्लाम' बना कर अपनी खलीफात कायम करने का खबाव देख रहा है, बल्कि इसके लिए उसके लड़ाके इराक, सीरिया,यमन आदि मुल्कों में बकायदा जंग लड़ कर सुन्नी मुसलमानें को छोड़ कर गैर इस्लामिक लोगों के साथ-साथ मुसलमानों के दूसरे फिरकों के लोगों को मार रहे हैं और उनके इबादतगाहों और ऐतिहासिक विरासतों को तबाह कर रहे हैं। यहाँ तक कि उनकी औरतों को अपनी हवस शिकार बनाने के साथ-साथ उन्हें गुलामों की तरह बेच रहे हैं। उसकी इस हैवानियत से इस्लामिक मुल्क ही नहीं, आज पूरी दुनिया खौफजदां है। क्या आर.एस.एस. भी ऐसा कर रहा है ? अगर कर रहा है, तो गुलाम नवी आजाद वह जगह बतायें, जहाँ संघ दूसरे मजहब के लोगों पर  कहर बरपा रहा है। वह उन लोगों के बारे में बताये, जो संघ के सताये हों या उन्हें कभी संघ के कार्यकर्ता ने उंगली से भी छुआ हो। हाँ, ऐसे लोग जरूर मिल जाएँगे, जिनका मुसीबत के वक्त कभी न कभी किसी संघ कार्यकर्ता ने हाथ न थामा हो।
 क्या गुलामी नवी आजाद बतायेंगे कि उन्होंने पाकिस्तानी दहशतगर्दों, पाक समर्थक कश्मीरी अलगाववादियों के दिलों से कश्मीरी पण्डितों के खिलाफ दिलों से नफरत निकालने की अब तक कब -कब दुआ माँगी  हैं ? क्या उन्होंने अपने उन हममजहबियों की कभी निन्दा और आलोचन की, जिन्होंने नब्बे के दशक में उन्हें अपने घरों से बेदखल कर दिया।  अब भी वे शरणार्थी शिविरों में नारकीय जीवन बसर करने को मजबूर हैं। 
कुछ इसी तरह अपने को गरीबों को हमदर्द दिखाने की आड़ में कन्हैया कुमार पाकिस्तान समर्थक कश्मीरी अलगाववादियों की जुबान बोलते हुए भारतीय सुरक्षा बलों को मुल्क की औरतों की आबरू का दुच्च्मन साबित करने पर उतर आया, जो भीषण विषम परिस्थितियों में रह कर देश की सीमाओं की सुरक्षा करते हुए आये दिन अपने प्राण भी गंवाते रहते हैं। उसे यह याद नहीं रहा कि इन्हीं सैनिकों ने अपनी जान पर खेल कर साल भर पहले कश्मीर घाटी में आयी बाढ़ में हजारों कश्मीरियों की जान बचायी थी,उस समय एक भी अलगाववादी, हममजहबी या वामपंथी रहनुमा उनकी रक्षा का आगे नहीं आया था। इसी 12 मार्च को सैनिकों ने कश्मीर घाटी में नास्थाछुन दर्रे में हिमस्खलन से सौ के करीब लोगों की जान बचायी है। यही नहीं, लद्‌दाख से लेकर कश्मीर के कई दुर्गम इलाकों में सेना न केवल स्थानीय रोगियों का अपने अस्पतालों में इलाज कराती है, बल्कि जरूरत पड़ने पर दूसरे शहरों में स्थित अस्पतालों तक पहुँचाती है। उनकी हर मुश्किल घड़ी में वह हर तरह की मदद को तैयारी रहती है।
अब कन्हैया कुमार से देश के लोगों का एक सवाल है कि देश की रक्षा के लिए जब पाक घुसपैठियों से जुझ रहे होते हैं, तब स्थानीय कश्मीरी 'हिन्दुस्तान मुर्दाबाद' और 'पाकिस्तान  जिन्दाबाद' के नारे लगाते हुए सैनिकों पर पत्थर फेंक रहे होते हैं, तब उनकी बोलती बन्द क्यों रहती है? क्या सेना के बिना वे और उनके समर्थक जम्मू-कश्मीर की रक्षा कर लेंगे?क्या उन्होंने या उनकी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने कभी इस्लामिक कट्‌टरपंथियों द्वारा कश्मीरी पण्डितों की बहू-बेटियों के साथ बलात्कार और हत्या किये जाने की कभी निन्दा या आलोचना की? अगर नहीं, तो उन्हें केवल भारतीय सैनिक ही बलात्कारी कैसे नजर आये? वस्तुतः ऐसा करके कन्हैया कुमार ने न केवल देश की रक्षा में लगे सैनिकों को बदनाम कर उनके मनोबल कमजोर करने की कोशिश की है,बल्कि देश के लोगों में उनके प्रति अविश्वास पैदा करने का प्रयास भी किया है,जो कानून की नजर में माफ करने के लायक नहीं  है।
लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आवश्यक है और अलग-अलग विचार और मतभिन्नता होना भी अपराध नहीं है,लेकिन इसके माने यह नहीं, कि अपनी खुन्नस या भड़ास निकालने और सियासी फायदे के लिए अपने विपक्षी पर कैसा भी आरोप लगाये और देशद्रोह पर उतार आये।
लेकिन वरिष्ठ काँग्रेसी नेता गुलाम नवी आजाद जिस तरह संघ और आई.एस.की बेढंगी तुलना और कन्हैया कुमार ने भारतीय सेना पर घृणित आरोप लगाया है उसे मुखालफत की इन्तहा ही समझा जाएगा। इसकी लोकतंत्र में कोई जगह नहीं होनी चाहिए।

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