यों ही नहीं है सपा में अर्न्तकलह

डॉ.बचन सिंह सिकरवार
अन्ततः मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की इच्छा विरुद्ध शिवपाल सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी में 'कौमी एकता दल' के विलय की बात कह कर और पार्टी की नयी कार्यकारिणी में अधिकाधिक अपने समर्थकों को जगह देकर एक बार फिर न केवल अपना वर्चस्व  जताया है, बल्कि उन्होंने यह साबित करने की कोशिश भी की है कि वे अखिलेश यादव के पार्टी के चाल-चरित्र को बदलने की नीति को मनाने को भी तैयार नहीं हैं। उनका मानना है कि अखिलेश यादव की कथित विकास और साफ-सुथरी राजनीति  की नयी डगर बेहद जोखिम भरी और कठिन है। उससे चुनावी सफलता की ज्यादा उम्मीद नहीं की सकती। इसके विपरीत सपा  अब तक जिन परम्परागत तौर तरीकों यथा- जातिवाद, अल्पसंख्यकवाद, जोड़-तोड़ /दन्द-फन्द  से विभिन्न चुनावों में भारी कामयाबी हासिल करती आयी है, उसी पुरानी राह पर चलना मुलायम सिंह यादव और शिवपाल सिंह यादव अपने लिए सबसे बेहतर और आसान समझते हैं। दूसरे शब्दों में उन्हें तो हर हाल में अपने तरह का ही ''समाजवाद' चाहिए।
   वैसे अब यह अलग बात है कि शिवपाल सिंह यादव अखिलेश यादव की मर्जी के खिलाफ हर तरह के कदम उठाते हुए यह जताना जरूर नहीं भूलते कि वह यह सब अपनी मर्जी से नहीं, नेता जी मुलायम सिंह यादव के कहने और उनकी सहमति से ही कर रहे हैं। फिलहाल, अखिलेश यादव भी समय की नजाकत का भांपते हुए अपनी पीड़ा व्यक्त करने से भरसक बच रहे हैं। इसीलिए वह अपने विरोधियों पर न तीखा पलटवार कर रहे हैं और न ही खुलकर कुछ  बोल रहे हैं। फिर भी उनके दिल का दर्द कहीं न कहीं और किसी न किसी  रूप में झलक ही जाता है।
इसी 6 अक्टूबर को अखिलेश यादव ने बिना किसी का नाम लिए कहा कि पहले लड़ाई में हम नम्बर वन थे, आज पता नहीं किस नम्बर पर हैं ?  हमें अदृश्य ताकतों से लड़ाई लड़नी पड रही है, जो दिखायी नहीं दे रही हैं। इससे पहले भी अखिलेश यादव ने 'लोकभवन' के लोकार्पण के समय पर भी कहा था कि उन्होंने टिकट बँटवारे का अधिकार छोड़ दिया है, लेकिन आखिर में जीत उसकी की होगी, जो तुरुप का इक्का चलेगा। उनके इस कथन की पीछे के अनेक गूढ़ निहतार्थ हैं। स्पष्ट है कि इस समय सपा में ऊपरी तौर पर भले ही सब कुछ ठीक-ठाक नजर आ रहा है, लेकिन हकीकत में अब सपा साफ तौर पर दो खेमों में बँटी हुई है। ये दोनों खेमों एक-दूसरे पर घात-प्रतिघात करने का कोई अवसर जाने नहीं दे रहे हैं।
 फिलहाल, सपा के कुनबे में छिड़ी रार अभी जारी है। सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ने पद बदलाव और पद बहाली के जरिए आपसी कलह को कुछ समय के लिए शान्त जरूर कर दिया है, किन्तु सत्ता के वर्चस्व और पार्टी के चाल-चरित्र को बदलने को लेकर छिड़ी यह अर्न्तकलह अभी खत्म नहीं है, जो भविष्य में पार्टी में भारी विस्फोट का रूप भी ले सकती है। उसमें सपा का बहुत कुछ होम हो सकता है।
वस्तुतः सपा कुनबे में ताजा रार की शुरुआत अखिलेश यादव द्वारा दो मंत्रियों के बर्खास्त किये जाने और मुख्य सचिव को हटाये जाने के बाद शुरू हुई, जो उनके पिता सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव और चाचा शिवपाल सिंह यादव के खासमखास समझे जाते थे और हैं। तब इसके प्रतिकार में सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने बगैर अखिलेश यादव को बताये-जताये उन्हें प्रदेश पार्टी अध्यक्ष पद से हटा कर शिवपाल सिंह यादव को प्रदेश का अध्यक्ष बना दिया। हालाँकि ऐसा ही शिवपालसिंह यादव को भी हटा कर अखिलेश यादव का प्रदेश अध्यक्ष बनाते समय किया था। पर अब इससे नाराज अखिलेश यादव ने शिवपाल सिंह यादव से सिंचाई और सार्वजनिक निर्माण (पी.डब्ल्यू.डी). विभाग ले लिए। इस पर शिवपाल सिंह यादव ने मंत्रिमण्डल से अपना इस्तीफा भेजा दिया। बाद में मुलायम सिंह यादव के भारी दबाव के बाद शिवपाल सिंह यादव को दो नये विभाग देकर और खनन माफिया को संरक्षण देने तथा अपार भ्रष्टाचार के आरोपी गायत्री प्रजापति को फिर से मंत्री बनाने की शर्त पर सुलह करा दी गयी। पर शिवपाल सिंह यादव को उनके प्रिय विभाग नहीं लौटाये। बताया जाता है कि इनमें करोड़ों रुपयों के ठेके का मामला था। लेकिन इस बीच अखिलेश यादव और शिवपाल सिंह यादव समर्थक पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच एक-दूसरे के खिलाफ जम कर नारे बाजी हुई। यहाँ तक कि सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव को भी नहीं बखशा गया, तब उन्होंने अखिलेश यादव से कहकर उसे बन्द कराया। उस समय भी जहाँ शिवपाल सिंह यादव परोक्ष रूप से अखिलेश यादव को अनाड़ी / नासमझ, तो अखिलेश यादव ने भी घूमा-फिरा यह कह कर शिवपाल सिंह यादव को प्रत्युत्तर दिया कि वह मुख्यमंत्री की कुर्सी तो छोड़ दें, लेकिन कोई योग्य व्यक्ति सम्हलने वाला तो हो ? तब उन्होंने यह भी कहा था कि यह विवाद कुर्सी का है।
इससे कुपित प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव ने अखिलेश यादव को अपनी अहमियत दिखाते हुए उनके समर्थक सपा के युवा फ्रण्टल संगठनों के अध्यक्षों और दूसरे नेताओं को बर्खास्त करते हुए पार्टी से ही छह साल के लिए निकाल दिया, तब अखिलेश यादव चाह कर भी उनका बचाव करने में असमर्थ रहे। इसके प्रत्युत्तर में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने 1 अक्टूबर को अपने मंत्रियों को विभागों का बँटवारा करते हुए गायत्री प्रजापति को पुराना विभाग खनन न देकर परिवहन विभाग सौंपा। इतना ही नहीं, शिवपाल यादव को इसी 17 सितम्बर को  दिये दो विभाग लघु सिंचाई और समाज कल्याण विभाग लेकर दूसरे मंत्रियों को दे दिये। अब मुख्यमंत्री द्वारा 7 अपने विभाग अन्य मंत्रियों को बाँटने के बाद उनके पास 41 तथा शिवपाल सिंह यादव के पास 12 विभाग रह गए हैं।
इसी तरह 3 अक्टूबर को लखनऊ में मुख्यमंत्री के नए कार्यालय 'लोकभवन' के लोकार्पण के अवसर पर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव द्वारा अप्रत्याशित रूप से सत्रह क्षेत्रों के पहले से घोच्चित उम्मीदवार को बदलने के साथ-साथ 9 नये प्रत्याशियों का ऐलान किया, जब कि वह कोई पार्टी का मंच नहीं था और न ही इस बदलाव के बारे में अखिलेश यादव को भरोसे में ही लिया था। दरअसल, इनमें से कई उम्मीदवार मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के, तो कुछ प्रो. रामगोपाल यादव के खास समर्थक थे। इसमें सरधना से अखिलेश यादव के करीबी अतुल प्रधान का टिकट काट कर शिवपाल यादव के खास पिण्टू राणा को उम्मीदवार बनाया गया। मेरठ शहर विधानसभा क्षेत्र से रफीक अंसारी का टिकट काटा गया है जो प्रो.रामगोपाल यादव और अखिलेश यादव के खास थे। इनके स्थान पर अयूब अंसारी को टिकट दिया गया है। ऐसे ही खुर्जा से सुनीता चौहान को हटा कर रवीन्द वाल्मीकि को प्रत्याशी घोषित किया गया है,क्योंकि सुनीता प्रो.रामगोपाल गुट की समझी जाती हैं। इसके साथ उनमें कुछ दागियों को भी उम्मीदवार बनाया गया, जिन्हें अखिलेश यादव किसी भी सूरत में पार्टी उम्मीदवार बनाना पसन्द नहीं करते। इनमें से एक कवयित्री मधुमिता शुक्ल हत्याकाण्ड में सजा काट रहे अमरमणि त्रिपाठी के बेटे अमनमणि त्रिपाठी को उम्मीदवार  बनाया गया, जिस पर अपनी पत्नी सारा सिंह की हत्या का आरोप है जिसकी सी.बी.आई.से जाँच के आदेश खुद अखिलेश यादव ने दिया था। दूसरे मुकेश श्रीवास्तव एन.एच.आर.एम.घोटाले में जेल जा चुके हैं, तो तीसरे प्रत्याशी शाहनवाज राणा पर छेड़खानी के आरोप लग चुके हैं। उस वक्त भी अखिलेश यादव अपने इस अपमान का लहू का घूँट पीकर रह गए। अब 'कौमी एकता दल' के सपा में विलय का मामला ले, तो अखिलेश यादव हत्या और अपहरण जैसे मामलों में सजा काट रहे मुखतार अंसारी की इस पार्टी के अपनी पार्टी में शामिल करने के घोर विरोधी रहे हैं। इसी कारण  21 जून को इसके विलय का खुलकर विरोध करते हुए इसके पैरोकार अपने एक मंत्री को बर्खास्त कर दिया। तब 25 जून को इस विलय को निरस्त कर दिया गया। इससे भी पहले अखिलेश यादव ने डी.पी.यादव जैसे आपराधिक प्रवृत्ति के नेता को पार्टी में शामिल करने घोर विरोध किया था। इससे उनकी छवि एक साफ-सुथरे राजनेता की बन कर उभरी और उसका विधानसभा के चुनाव में लाभ भी मिला।
 सही बात है कि सपा की अर्न्तकलह का मुख्य कारण मुलायम सिंह यादव द्वारा अपने अनुज शिवपाल सिंह यादव को भरोसे में लिए बिना पुत्र मोह में मुख्यमंत्री बना देना है,जो अपने अग्रज के केन्द्र जाने पर खुद मुख्यमंत्री बनने के सपने संजोए हुए थे। लेकिन उस समय जैसे-तैसे मुलायम सिंह यादव उस विद्रोह को दबाने में कामयाब हो गए। बाद में समय-समय पर अखिलेश यादव को दिखावे और शिवपाल सिंह यादव का अंह को तुष्ट करने को उन्हें सार्वजानिक रूप से डाँटते-फटकारते हुए उनकी गलतियों गिनाते रहे। इस तरह वह शिवपाल सिंह यादव को साधने के साथ विपक्ष की भूमिका निभा कर जनता के भी भले बनने की कोशिश करते रहे। अब अखिलेश यादव यह समझने को तैयार नहीं,कि उनके पिता मुलायम सिंह यादव की जान शिवपाल सिंह यादव में यों ही नहीं बसती है। दरअसल, वह उनके सभी तरह के काले-पीले कारोबार के बराबर के भागीदार और राजदार रहे हैं, जो उन्हें आज कुछ राजपाट नजर आता है उसमें उनका-सा अब दूसरा कोई साझीदार/राजदार  नहीं बन सकता हैं। अब अगर अखिलेश यादव को उन जैसी राजनीति नहीं करनी,तो उनके लिए अपनी नयी पार्टी ही बनाना बेहतर होगा।
सम्पर्क डॉ.बचन सिंह सिकरवार

63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मोबाइल नम्बर-9411684054

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