तब फतवा जारी क्यों नहीं करते ?

डॉ.बचन सिंह सिकरवार
हाल में इस्लामिक तालीम के प्रमुख केन्द्र दारुल उलूम के मुफ्ती-ए-कराम ने फतवा जारी किया है कि मुसलमानों को 'भारत माता की जय' बोलने के नारे  से खुद को अलग कर लेना चाहिए, क्यों कि यह उनके मजहब के खिलाफ है।'' भले ही यह फतवा उनके मजहब के लिहाज से सही हो, काश वे इसी ही तत्परता से कुछ और मसलों पर भी  फतवे जारी किया करते, तो उनके मजहब और हम मजहबियों के लिए बेहतर होता । वैसे उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि जिस मुल्क में उनके मजहब के लोगों को जो हक और हकूक मिले हैं उसके संविधान में मजहबी आजादी के जो माने वे समझते हैं वे भी नहीं हैं। इस फतवे के जरिए वे भले ही हममजबियों को शरीयत का पाठ पढ़ा रहे हों, पर उनके इस फतवे से अपने मुल्क और उसके बाशिन्दों का क्या और कितना नफा-नुकसान होगा, इसका उन्हें  शयद  अन्दाजा नहीं । अगर है तो यही समझा जाना चाहिए कि वे इससे बेपरवाह हैं। 

 मुफ्ती साहब यह भी फरमाते हैं कि इस बात में कोई शक नहीं कि भारत हमारा वतन है । सबकी तरह हर मुसलमान मुल्क से मुहब्बत करता है,मगर मुल्क की पूजा नहीं कर सकते। मुसलमान खुदा के सिवा किसी दूसरे की पूजा नहीं कर सकता, जबकि इस नारे में भारत को देवी के अकीदा समझा गया है। वैसे इस फतवे के लिए 'भारत माता' को देवी साबित करने की जो आड़ ली है वह भी बेमानी है।  भारत माता कोई 'दुर्गा' या कोई दूसरी 'हिन्दू देवी' नहीं है जिसके लिए उसकी पूजा की बात कही जा रही हो। भले ही 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ' या कोई दूसरा व्यक्ति भारत माता को देश के नक्द्गो में तिरंगा उठाये देवी या सिंह पर सवार देवी के रूप में दश्र्ााये, किन्तु इस हकीकत से शायद ही कोई मुसलमान वाकिफ न हो कि हिन्दू धर्म में भारत माता नामक की कोई देवी-देवता नहीं हैं। केवल राष्ट्र भाव को प्रकट करने का माध्यम है। इसे हम महज जमीन माने या फिर अपनी माँ जैसे रूप में समझें। वैसे भी अपने देश में ऐसी कोई बन्दिश नहीं है कि भारत माता को देवी रूप में माने या नक्द्गो या किसी सिर्फ अमूर्त रूप में। इसमें भी 'जय बोलना' किसी भी माने में कोई पूजा-अर्चना/इबादत नहीं है,उसमें केवल 'जय'यानी सफलता का भाव है। यह  इस पर आपत्ति क्यों होनी चाहिए?
 मुफ्ती साहब को जिस भारत माता की जय के नारे लगाये जाने पर एतराज है उन्हें मुल्क के हिन्दू-मुसलमानों द्वारा इसके बोले जाने के इतिहास बारे में कितनी जानकारी है? इसका भी पता नहीं। क्या वे जानते हैं कि आखिर मुगल बादशाह बहादुर जफर की अगुवाई में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की गोरी सरकार के खिलाफ जंग के वक्त से ही आजाद भारत तक यही जयकारा लगता आया है,तब से अब तक शायद ही किसी ने मजहबी आधार पर आपत्ति जतायी हो ? देश के मुसलमान नेताओं के साथ-साथ आम मुसलमानों को इससे कभी परहेज नहीं रहा। यकीन मानिए उनके इस फतवे के बाद भी नहीं पड़ेगा।
दरअसल, अपने देश में  मजहब के बहाने सियासत की जा रही है। इसके लिए एक ओर बहुसंख्यक वर्ग में जात-पात के बहाने फूट डालकर उनसे  देश विरोधी हरकतें करायी जा रही हैं, तो अल्पसंख्यकों को शरीयत की आड़ में राष्ट्र की मुख्यधारा से  अलग-थलग करने की कोशिशें जारी हैं। यही फतवा भी राष्ट्रवाद को सुदृढ़ करने की दिशा में किये जा रहे प्रयासों को कमजोर करने को जारी किया गया है। वस्तुतः जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय समेत देश के दूसरे विश्व्वविद्यालयों में राष्ट्र विरोधी आवाजें उठाये जाने के बाद वहाँ के माहौल बदलने के उद्‌देश्य से 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ' के संघ चालक मोहन भागवत ने कह दिया कि छात्रों को शुरू से ही 'भारत माता की जय' बोलना सिखाया जाना चाहिए, ताकि वे राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में न पड़े। इसके जवाब में 'ऑल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन के सांसद असदउद्‌दीन ओवैसी ने कोई उनकी गर्दन पर छुरी रख दे, तो भी वे भारत माता की जय नहीं बोलेंगे, जबकि उन पर किसी ने भी ऐसा करने को दबाव नहीं डाला था। उनके खिलाफ जब मुकद्‌दमा दायर हुआ,तो बगैर बात के ही 'जयहिन्द',जयहिन्द'कर देशभक्ति जताने लगे। इतना ही नहीं,सियासी फायदे के लिए वे'जय भीम,जय मीम' कह रहे है,जब कि भीम की मूर्ति भी है।
 मुफ्ती साहब से कुछ ये सवाल भी हैं कि क्या वे और उनके हममजहबी सारे कामकाज शरीयत के हिसाब से ही करते हैं? मजहब में तो मौजूदा शासन व्यवस्था भी नहीं आती। वे और दूसरे मुसलमान जिन आधुनिक सुविधाओं को इस्तेमाल करते हैं वे शरीयत के हिसाब से नहीं हैं। उन जैसों के मुताबिक इस्लाम शान्ति और भाईचारे का मजहब है तो वे बतायें कि अपने मुल्क और दुनियाभर में हममजहबियों और गैर मुसलमानों की बड़े पैमाने पर जान लेने और तबाही मचाने वालों या अपने मुल्क से गद्‌दारी करने वालों के खिलाफ उन्होंने कब-कब फतवे जारी किये हैं ? यहाँ तक अपने ही देश से आतंकवादी संगठन'आई.एस.' के लिए लड़ने जाने वाले नौजवानों के खिलाफ फतवा जारी करने की जरूत महसूस क्यों नहीं की ? उन्हें निकाह, तलाक, गुजारा भत्ता मामलों में तो शरीयत की दरकार है, फिर आपराधिक मामलों में इसे लागू कराने को फतवा क्यों नहीं जारी करते ?
इस तरह के फतवों से यही लगता है कि जिन मजहबी कारणों से सन्‌ 1947 में देश का विभाजन हुआ,वह 68 साल की  पंथ निरपेक्ष व्यवस्था में भी खत्म नहीं हुए हैं। इतने सालों बाद भी ऐसे तत्त्वों की समझ यह नहीं आता कि मजहबी मुल्क बनाकर उन्होंने उससे क्या हासिल कर लिया ? वे उसी राह पर चल कर अब कौन-सा मुकाम पाना चाहते हैं, इसका भी इजहार कर दें।

सम्पर्क -डॉ.बचन सिंह सिकरवार 
63ब,गाँधी नगर, आगरा-282003

मोबाइल नम्बर-9411684054 

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