कब बन्द करेंगे बाँटने की राजनीतिक?

                  डॉ.बचन सिंह सिकरवार
                     हाल में कर्नाटक की काँग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया की अध्यक्षता में हुई मंत्रिमण्डल  की बैठक में लिंगायत और वीर शैव समुदाय को हिन्दू धर्म से अलग  धर्म की मान्यता देने का  निर्णय लेकर एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि राजनीतिक फायदे के लिए धर्म ,जाति, सम्प्रदाय, भाषा, क्षेत्रवाद आदि का सहारा लेने और लोगों को बाँटने में देश के दूसरे राजनीतिक दलों से वह किसी माने में पीछे नहीं, बल्कि आगे ही है। वह अक्सर अपने प्रबल प्रतिद्वन्द्वी भाजपा पर धर्म की राजनीति करने को आरोप लगाती रहती है, लेकिन अवसर मिलते ही काँग्रेस भी बाजी मारने में पीछे नहीं रहती। अपनी राजनीति के लिए धर्म, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद के इस्तेमाल से देश की एकता, अखण्डता, सामाजिक समरसता को कितनी क्षति पहुँ,चती है,उससे किसी भी राजनीतिक दल कोई मतलब नहीं है। पिछले लोकसभा के चुनाव से पहले केन्द्र में सत्तारूढ़ संप्रग सरकार ने जैन समुदाय को हिन्दू धर्म से अलग अल्पसंख्यक  धर्म का दर्जा दे दिया, ताकि इस समुदाय के एक मुश्त वोट मिल सकें,जबकि जैन और हिन्दुओं के बीच हर तरह के  खून (रोटी-बेटी)के रिश्ते ही नहीं हैं, हिन्दू भी उनके तीर्थंकरों का अपने से पृथक नहीं मानते हैं। इसी तरह अब कर्नाटक विधानसभा के चुनाव आते ही काँग्रेस ने इस राज्य की जनसंख्या और राजनीतिक तौर पर अत्यन्त प्रभावशाली,सुशिक्षित, उद्योग-व्यापार  से जुड़े, शिक्षण संस्थाओं के स्वामी लिंगायत और वीर शैव समुदाय को भी हिन्दू धर्म से अलग करने की कोशिश की है, जो इसका एक सम्प्रदाय मात्र है। कर्नाटक में मजहबी फायदे के लिए काँग्रेस सरकार कुछ साल से मैसूर के शासक रहे टीपू सुल्तान की बड़े स्तर पर जयन्ती  मनाती आयी है,ताकि मुसलमानों को अपने पक्ष में किया जा सके। इसके विपरीत भाजपा टीपू सुल्तान को हिन्दुओं का हत्यारा बताकर उसका घोर विरोध करती रही है। वैसे धर्म को लाभ लेने में भाजपा भी पीछे नहीं है। इसने हिन्दुओं को संगठित करने के उद्देश्य से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कर्नाटक के उन इलाकों में बड़ी आम सभाएँ करायीं, जहाँ योगी जी के नाथ सम्प्रदाय के  कई बड़े मठ हैं और उनसे जुड़े लोग बड़ी संख्या में रहते हैं। अब जहाँ धर्म को अपनी सियासत में उपयोग के लिए काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी  कर्नाटक के मठ और मन्दिर में दर्शनों को  जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी लिंगायतों के सबसे मठ जाने के साथ दूसरे मन्दिरों में माथा रगड़ रहे हैं। इस फार्मूलों के राहुल गाँधी गुजरात में आजमा चुके हैं। 
            विडम्बना यह है कि काँग्रेस की प्रदेश सरकार ने अचानक जल्दबाजी में लिंगायत/वीर शैव समूह को हिन्दू धर्म से पृथक धर्म बताते हुए अल्पसंख्यक समूह घोषित किया है, जबकि उसे ही 2013में केन्द्र में सत्तारूढ़ संप्रग सरकार ने लिंगायतों को अलग धर्म का दर्जा देने से स्पष्ट रूप से मना कर दिया था,क्यों कि इससे लिंगायत समूह की अनुसूचित जातियों को आरक्षण समाप्त हो सकता है। वैसे भारत की संवैधानिक व्यवस्था में धर्म की पहचान के मानक/कसौटी नहीं। संविधान और कानून में धर्म की कोई परिभाषा भी नहीं है। यहाँ भारतीय  संविधान में अल्पसंख्यक को परिभाषित नहीं किया गया है। फिर भी कर्नाटक सरकार ने लिंगायत/वीर शैव का पृथक धर्म की घोषित करते हुए इसे अल्पसंख्यक धर्म स्वीकार करने करे संस्तुति हेतु केन्द्र सरकार को भेज दिया। फिर धर्म का दर्जा देना सरकार के अधिकार  क्षेत्र में नहीं, धार्मिक लोगों का कृत्य है। वैसे भी मुसलमान,ईसाई, जैन और अब लिंगायत को अल्पसंख्यक धर्म का लाभ सिर्फ शिक्षण संस्थाएँ चलाने तक सीमित है फिर कुछ लोगों के स्वार्थ के लिए सरकार यह करती आ रही हैं।

                    गत दिनों कर्नाटक सीमावर्ती पर जिले बीदर में आयोजित जनसभा में कोई 75हजार लिंगायतों की भीड़ जुटी,जो अलग धार्मिक पहचान की माँग को लेकर आए थे। लिंगायत समाज की गणना कर्नाटक की अगड़ी जाति में होती है जो इस राज्य की कुल जनसंख्या का 18प्रतिशत हैं। यह उत्तरी और दक्षिण कर्नाटक की प्रभावशाली जाति है।  बीदर जिले  एक ओर महाराष्ट्र और दूसरी ओर तेलंगाना और आन्ध्र प्रदेश हैं इनमें राज्यों में बड़ी संख्या में लिंगायतों रहते हैं। यही कारण है कि कर्नाटक में आगामी विधानसभा के चुनाव मे इस समुदाय के वोट पाने के लिए मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने उनकी माँग को समर्थन देने में देर नहीं की, क्यों कि भाजपा ने लिंगायत समुदाय के बी.एस. येदियुरप्पा को अपना भावी मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया हुआ है जो पूर्व में भी इस पद पर रह चुके हैं। इस राज्य में लिंगायतों को सत्ता कुँजी या दूसरे शब्दों में किंग नही ंतो ‘किंग मेकर‘  समझा जाता रहा है। ये जाति राज्य की 224 विधानसभाओं में से 100को प्रभावित करती थी। यही कारण है कि अब तक 8बार लिंगायत और 6 बार वोक्कालिंग समुदाय के मुख्यमंत्री बन चुके हैं। अस्सी के दशक में लिंगायतों ने जनता दल के रामकृष्ण हेगड़े  को समर्थन किया,जो लिंगायत समुदाय से थे। बाद में लिंगायत ने काँग्रेस के वीरेन्द्र पाटिल में विश्वास जताया। इस कारण 1989में काँग्रेस की सरकार बनी,जिसके मुख्यमंत्री वीरेन्द्र पाटिल बने। लेकिन एक विवाद के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी द्वारा हवाई अड्डे पर हटाये दिये। इसके बाद फिर रामकृष्ण हेगड़े को समर्थन दिया। 2008 में येदियुरप्पा को भरपूर समर्थन दिया, लेकिन उन्हें हटाये जाने पर लिंगायतों ने भारतीय जनता पार्टी को हरा दिया। वैसे मुख्यमंत्री सिद्दरमैया सरकार के पाँच मंत्री अब इस मसले पर स्वामी जी(लिंगायतों का पुरोहित वर्ग)की सलाह लेने जा रहे हैं।इसके बाद वे मुख्यमंत्री के एक रपट पेश करेंगे।
             बारहवीं शताब्दी में समाज सुधारक महात्मा वासवन्ना(बसवण्णां) ने वैदिक परम्परा/हिन्दू धर्म में व्याप्त मूर्तिपूजा, जातिभेद और दूसरे धार्मिक आडम्बरों और कुरीतियों के विरुद्ध आवाज उठायी।  इन्हीं वासवन्ना को लिंगायत भगवान वसवेश्वर भी कहते हैं। लिंगायत सम्प्रदाय सनातन हिन्दू का एक हिस्सा है। इसके सम्प्रदाय के अधिकांश अनुयायी दक्षिण भारत में निवास करते हैं। इस मत के उपासक ‘लिंगायत‘‘कहलाते हैं। लिंगायत शब्द की व्युत्पत्ति कन्नड़ भाषा के शब्द ‘लिंगवंत‘ शब्द से हुई है।इस  उद्देश्य  पुरुष-महिल असमानता, मिटना, जातिवाद हटाना,लोगों को शिक्षा प्रदान करना और हर तरह की की बुराई को रोकना है। लिंगायत साहित्य(वचन साहित्य)भगवान स्पष्ट रूप का चित्रण  प्रदान करता है। लिंगायत सब अन्ध विश्वास मान्यताओं को खारिज कर भगवान उचित आकार ‘इष्ट लिंग‘ के रूप में पूजा करने का तरीका प्रदान करता है।लिंगायत में सभी मानव जाति जन्म से बराबर हैं। भेदभाव सिर्फ ज्ञान पर आधारित है। 
        ‘वीर शैव‘ का शब्दिक अर्थ है जो ‘शिव का परमभक्त हो‘,लेकिन समय बीतने के साथ ‘वीर शैव‘ का तŸव ज्ञान, दर्शन, साधना, कर्मकाण्ड, सामाजिक संघटन आचार नियम आदि अन्य सम्प्रदाय से भिन्न होते गए। यद्यपि वीर शैव देश के अन्य भागों महाराष्ट्र, आन्ध्र, तमिल क्षेत्र आदि में पाये जाते हैं, तथापि उनकी सबसे अधिक संख्या कर्नाटक में है। शैव लोग अपने धार्मिक विश्वासांे और 28 शैव गमों से मानते हैं। वीर शैव  भी वेदों में अविश्वास नहीं प्रकट करते, किन्तु उनके दर्शन, कर्मकाण्ड तथा समाज सुधार आदि में ऐसी विशिष्टताएँ विकसित हो गई जिनकी व्युत्पत्ति मुख्य रूप से शैवगमों तथा ऐसी अन्तर्दृष्टि योगियों से हुई मानी जाती है,जो ‘वचनकार‘ कहलाते हैं। 12वीं से 16वीं शती के बीच करीब तीन शताब्दियों में काई 300वचनकार हुए हैं जिनमें से 30 स्त्रियाँ हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध नाम ‘वासव का है जो कल्याण(कर्नाटक)के जैन राजा विज्जल( 12वीं शती ) -का प्रधानमंत्री था। वह योगी महात्मा ही न था,बल्कि कर्मठ संघटन कर्ता भी था।उसने वीर शैव सम्प्रदाय की स्थापना की। वासव का लक्ष्य भी ऐसा आध्यात्मिक बनाना था जिसमें जाति, धर्म, स्त्री-पुरुष  भेदभाव न रहे। वह कर्मकाण्ड सम्बन्धी आडम्बर का विरोधी था। सामाजिक पवित्रता एवं भक्ति की सच्चाई पर बल देता था। वह एकमात्र ईश्वर की उपासना का समर्थक था। उसने पूजा और ध्यान पद्धति में सरलता लाने का प्रयत्न किया। वैसे आम मान्यता हैं कि वीर शैव और लिंगायत एक ही समझते हैं, किन्तु लिंगायत ऐसा नहीं मानते हैं। वीर शैव लोगों का अस्तित्व समाज सुधारक वासवन्ना  के उदय  से पहले का है। वीर शैव भगवान शिव की पूजा  करते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि लिंगायत भगवान शिव की पूजा नहीं करते हैं। लेकिन भीमन्ना  खान्द्र जैसे लोग जोर देकर कहते हैं कि कुछ ऐसा है जैसे इण्डिया -भारत है या भारत-इण्डिया है। वीर शैव और लिंगायत में कोई अन्तर नहीं है। भीमन्ना ऑल इण्डिया वीर शैव महासभा के अध्यक्ष पर 10साल से भी अधिक समय तक रहे हैं।  
         कुछ लिंगायत नेता जिन कारणों से अपने सम्प्रदाय को हिन्दू धर्म से पृथक बताते हुए अलग अल्पसंख्यक धर्म की माँग कर रहे हैं, हकीकत में अब हिन्दू धर्म और लिंगायत सम्प्रदाय में कोई भेद नहीं रह गया है। वर्तमान में लिंगायत समाज में जाति व्यवस्था व्याप्त है जिसके विरोध में स्व.एम.एम.कलबुर्गी  अभियान चला रहे थे, जो स्वयं लिंगायत थे। लिंगायत समाज में स्वामी(पुरोहित वर्ग)की स्थिति अब वैसी है जैसी वासवन्ना के समय ब्राह्मणों की थी। लिगायत अन्तर्जातीय विवाहों को मान्यता नहीं देता, जबकि वासवन्ना अन्तर्जातीय विवाह के पक्षधर थे ताकि जातिभेद समाप्त किया जा सके।  सन् 1966 में नागरिक और राजनीतिक अधिकार अन्तर्राष्ट्रीय करार में हुआ था उसके अनुच्छेद 27 के  अनुसार ‘उन राज्यों में जिनमें जातीय, धार्मिक, भाषाई, अल्पसंख्यक बताये गए हैं,उस कसौटी पर भी लिंगायत/वीर शैव न धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक  हैं और न जातीय या भाषाई आधार परं ही। सच्चाई यह ळे कि  ये दोनों किसी भी माने में दूसरे हिन्दुओं से अलग नहीं है। ऐसे में सियासी पार्टियों की अपने सियासी फायदों के मजहबी, जाति,उपजाति,सम्प्रदाय, भाषा,क्षेत्रवाद के नाम पर लोगों को बाँटने की सियासत की जितनी निन्दा की जाए,वह कम होगी,क्यों कि इनसे देश मजबूत नहीं,कमजोर जो होता है।
 सम्पर्क- डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

कोई आजम खाँ से यह सवाल क्यों नहीं करता ?

अफगानिस्तान में संकट बढ़ने के आसार

कौन हैं अनुच्छेद 370 को बरकरार रखने के हिमायती?