भरमाने-भटकाने की घटिया राजनीति
डॉ.बचन सिंह सिकरवार
वर्तमान में आगामी लोकसभा के चुनाव को देखते हुए विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा दलित वोट बैंक को प्रभावित करने को सर्वोच्च न्यायालय के एक मामले में अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निरोधक अधिनियम-1989 के सन्दर्भ में दिये निर्णय को लेकर इस वर्ग को भड़काने/उकसाने को जिस तरह हर रोज जैसी बयानबाजी के साथ राजनीति की जा रही है, वह न केवल उनके हितैषी होने का दिखावा मात्र है, बल्कि दलित हितों के विरुद्ध भी है। उनकी यह ओछी राजनीति समाज के लिए विघटनकारी और देश के लिए विनाशकारी भी है। इनकी यह घटिया राजनीति न केवल संसद, विधानसभाओं को अपना कार्य करने में बाधक बनी हुई है, वरन् न्यायपालिका के निर्णयोें पर सवाल उठा कर उसके प्रति अविश्वास भी पैदा कर रही है। ऐसे नेताओं के अनुचित रवैये की वजह से पहले अनुसूचित वर्ग के लोगों द्वारा सर्वाेच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध 2 अप्रैल और फिर सवर्ण वर्ग द्वारा ‘जातिगत आरक्षण हटाओं‘ की माँग को लेकर इसी 10अप्रैल को भारत बन्द किया जा चुका है, जिससे देश को आन्तरिक अशान्ति, अराजकता, आगजनी, तोड़फोड़, जातिगत वैमनस्य,जनहानि, करोड़ों रुपए की सम्पत्ति का विनाश भुगतना पड़ा है। इसमें अच्छी बात यह रही कि 2अप्रैल के भारत बन्द की प्रतिक्रिया में आयोजित 10 अप्रैल का भारत बन्द राज्य सरकारों की पर्याप्त सतर्कता और सवर्ण वर्ग के संयम के कारण इसका असर कुछ क्षेत्रों तक(बिहारए,म.प्र.उ.प्र.) सीमित रहा है। लेकिन इसने यह जरूर दिखा दिया कि लोग सरकारों की आरक्षण और दूसरे तरीकों से तुष्टिकरण कर ‘वोट बैंक की राजनीति‘ के सख्त खिलाफ हैं और अब वे इसे ज्यादा दिन तक बर्दाश्त नहीं करेंगे। वोट बैंक की राजनीति के चलते भाजपा समेत सभी राजनीतिक दल हर क्षेत्र में तरह-तरह के आरक्षण,फिर आरक्षण में आरक्षण समेत महापुरुषों के महिमा मण्डन, स्मारक बनाने, प्रतिमा लगाने, डाक टिकट जारी करने,उनके जन्म और पुण्य तिथि पर अवकाश घोषित करने, नगरों, स्थानों, संस्थाओं के नामकरण, अनेक प्रकार की आर्थिक सुविधाएं आदि देने के साथ-साथ इनमें से कुछ राजनीतिक दल दलित वर्ग के, तो कुछ अल्पसंख्यक वर्ग का सबसे बड़ा हितैषी दिखाने की होड़ में लगे हुए हैं। इन वर्गोें के वोट हाथियाने को लुभाने /भरमाने/भटकाने का कोई मौका नहीं छोड़ते और लोगों को बाँट कर अपने मतलब पूरा करने को ये किसी भी हद को पार करने को हमेशा तैयार रहते हैं। वैसे यह प्रश्न अनुत्तरित हैं कि सभी राजनीतिक दल दलितों/आदिवासियों/मुसलमानों के हितैषी हैं तो आजादी के इतने साल बाद भी उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति में बदलाव क्यों नहीं आया? इनके साथ अन्याय, उत्पीड़न, गैर बराबरी का बर्ताव क्यों होता है? क्या इसमें किसी खास राजनीतिक दल के लोग ही होते हैं? किसी भी मामले में जाति और मजहब को देखकर सभी दलों के नेता अपना मुँह क्यों खोलते और बन्द रखते हैं?
अपने यहाँ कमोबेश रूप में सभी राजनीतिक दलों की लोगों को बाँटने की राजनीति के चलते गत 2 अप्रैल को देश के कई राज्यों के विभिन्न छोटे-बड़े नगरों में अनुसूचित वर्ग के लोगों द्वारा गुपचुप तरीके से तैयारी कर ‘भारत बन्द‘ के नाम पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का जिस ढंग से बड़े पैमाने पर उग्र विरोध जताया, उसे लेकर हर किसी को कई कारणों से हैरानी -परेशानी है,क्यों कि अपने देश में न जाने कितने ऐसे लोग हैं जो वोट बटोरने को भरमाने-भटकाने की अपनी घटिया राजनीति के जरिए लोगों को बेवजह भड़का और लड़ाकर मुल्क का कितना भी नुकसान करा सकते हैं। इसमें आश्चर्य यह है कि एक ओर जहाँ ज्यादातर प्रदर्शनकारियों को इस विरोध की असल वजह का ही पता नहीं था, तो दूसरी ओर शासन-प्रशासन, पुलिस, गुप्तचर विभाग इतने बड़े हिंसक प्रदर्शन की तैयारियों का सही अन्दाज लगाने में पूरी तरह से विफल रहा। वे कौन लोग हैं, जो जाति-विद्वेष भड़का कर इन्हें एक वर्ग के खिलाफ हिंसा, आगजनी, तोड़फोड़ को उकसा/भड़का रहे हैं। इसके लिए कहाँ-कहाँ से और किस-किस ने धन, लाठी-डण्डे, एक से झण्डे तथा एक से नारे लिखीं तख्तियाँ इन्हें उपलब्ध करायीं। इसके लिए प्रचार-प्रसार के लिए पराम्पगत जनसंचार माध्यमों के स्थान पर इण्टरनेट यानी सोशल मीडिया का भरपूर उपयोग किया गया, जिसके जरिए यह कहकर दलितों को भड़काया गया कि सरकार संविधान बदल कर उनका आरक्षण खत्म कर रही है तथा देश में बड़े पैमाने पर दलितों का उत्पीड़न हो रहा है। फिर भी किसी ने इसे गम्भीरता से नहीं लिया। सम्भवतः उसकी शक्ति का उन्हें अहसास नहीं था कि इसका इतना विनाशक इस्तेमाल भी किया जा सकता। यहाँ तक कि इस कार्य में बड़ी संख्या में सरकारी कर्मचारी/अधिकारी भी भागीदार करने वाले हैं। इस विरोध प्रदर्शन से न केवल निजी और सार्वजनिक सम्पत्तियों के साथ-साथ वाहनों के साथ तोड़फोड़, आगजनी और कामकाज में बाधा डाले जाने से जो अरबों रुपयों को नुकसान हुआ है,इसके साथ ही सामाजिक समरसता को भी भारी आघात लगा है। इसमें एक दर्जन से ज्यादा लोगों की जानें भी गई हैं,इस अपूरणीय क्षति की भरपाई आसान नहीं है। लेकिन तरह-तरह के उपक्रमों से लोगों को धर्म/मजहब, सम्प्रदाय, जाति-उपजातियों, भाषा-बोलियों, क्षेत्रवाद के बहाने बाँट कर सत्ता हथियाने वालों को इससे कोई मतलब नहीं है। यही कारण है कि बसपा, काँग्रेस, सपा समेत ज्यादातर राजनीतिक दलों ने इस अराजक हिंसक प्रदर्शन की निन्दा करने के बजाय उसे सफल बताते हुए इसके लिए केन्द्र सरकार को जिम्मेदार ठहराया है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ लोगों को भड़काने में बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने अहम भूमिका निभायी है। एक ओर उन्होंने इस प्रदर्शन को सफल बताया,वहीं दूसरी ओर सर्वजन समाज के विरुद्ध कार्रवाई न करने की बात कहीं,ताकि सवर्ण वोट उनकी पार्टी से छिटक जाएँ।वैसे भी उनका यह दुहरा रवैया जगजाहिर है।
अगर ऐसा नहीं है तो बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती सर्वोच्च न्यायालय के उचित निर्णय को अनुसूचित जाति-जनजातियों के विरुद्ध बताते हुए भाजपा को दोषी नहीं ठहराती हैं,वह भी उन प्रक्रियात्मक परिवर्तनों के लिए जो उन्हांेन उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहने के दौरान 2007 में स्चयं यह कहते हुए किये थे कि एससी.एसटी.कानून को दुरुपयोग हो रहा है। तब मायावती मुख्यमंत्री पद सम्हालते हुए इस कानून में संशोधन कराया था,क्यों कि उस समय उन्हें बहुजन से सर्वजन से वोट जो लेने थे। तब उनका कहना था कि हत्या और दुष्कर्म के अलावा किसी भी दलित उत्पीड़न की शिकायत पर एससी.-एसटी कानून के बजाय भारतीय दण्ड विधान की धाराओं के तहत मुकदमा चलेगा। इतना ही नहीं, दुष्कर्म के मामले में भी चिकित्सकीय जाँच से प्रथम दृष्टया मामला बनने पर ही इस कानून के तहत कार्रवाई होगी। इसके बाद उन्होंने एक और आदेश जारी किया कि शिकायत गलत पायी गई, तो शिकायतकर्ता के खिलाफ मुकदमा चलेगा। यह कानून उत्तर प्रदेश में वर्तमान में भी लागू है, किन्तु अब वही मायावती सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गत 20मार्च के निर्णय को अनुचित बता रही हैं जो उसने अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निरोधक अधिनियम के बड़े पैमाने पर दुरुपयोग को देखते हुए इस नियम को बिना परिवर्तित किये प्रक्रियात्मक कुछ बदलाव किया है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद अब इस अधिनियम के तहत शिकायत किये जाने पर पहले पुलिस क्षेत्राधिकारी(सी.ओ.)द्वारा जाँच के पश्चात रिपोर्ट दर्ज होने पर गिरफ्तारी होगी। सरकारी अधिकारी के विरुद्ध पुलिस अधीक्षक द्वारा जाँच करने और उसके उच्चाधिकारी से अनुमति मिलने के बाद रिपोर्ट लिखी जाएगी और गिरफ्तारी होगी। अब जमानत हो सकेगी, ताकि निर्दोष के साथ अन्याय न हो।
देश में अवसरवादी राजनीति के सबसे बड़ा और ताजा उदाहरण सपा और बसपा की दोस्ती है जिस अखिलेश यादव की सरकार ने न केवल मायावती द्वारा बनवाये गए दलित महापुरुषों की मूर्तिया/पार्कों की उपेक्षा की, बल्कि तुड़वाने तक की बात कही तथा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर आरक्षण में प्रोन्नति पाये सरकारी अधिकारियों/कर्मचारियों को पदावनत किया। वहीं राजनीति में हाशिये पर पहुँच चुकी काँग्रेस भी दलितों की सहानुभूति पाने को प्रदर्शनों/फर्जी उपवास का सहारा ले रही है। वैसे उसके अध्यक्ष राहुल गाँधी केन्द्र में अपनी सरकार के रहने के बाद भी जिस दलित के घर उन्होंने खाना खाया,उसका भी भला नहीं कर पायेे। ऐसे में उनका पूरे दलितों के कल्याण की बात करना ही बेमानी है। वैसे इस मौकापरस्ती में भाजपा भी किसी पीछे नहीं, जिसने चुनावी सफलता के लिए अपने निष्ठावन कार्यकर्ताओं की अनदेशी कर दलबदलुओं और भ्रष्टाचारियों को सांसद/विधायक बनाया वे भी गोरखपुुर और फूलपुर के लोकसभा के उपचुनाव में सपा-बसपा गठनबन्धन के कारण भाजपा प्रत्याशी की हार से राज्य की राजनीतिक फिजा बदलते और अपने निहित स्वार्थ पूरे न होने पर रंग बदलने लगे हैं। यही कारण है कि भाजपा के कई अनुसूचित जाति के कुछ सांसद और विधायक अपनी पार्टी और सरकार पर अचानक दलित विरोधी,संविधान को बदलने वाली,आरक्षण को समाप्त करने का आरोप लगाने लगे हैं। वैसे भी ये सभी पूर्व बसपा,सपा से भाजपा में आये थे।यही कारण है कि बहराइच से भाजपा सांसद सावित्री बाई फुले अपनी ही केन्द्र सरकार पर आरक्षण खत्म करने ,संविधान बदलने जैसे मिथ्या आरोप नहीं लगा रही होतीं। उन्हीं की तरह रार्बट्सगंज, इटावा के सांसद क्रमशः छोटे लाल खरवार, और अशोक दोहरे विधायक डॉ.यशवन्त सिंह भी अपनी पार्टी पर दलितों की उपेक्षा का आरोप लगा रहे है। इसी वोट बैंक की राजनीति के चलते जनवरी,1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने दलित वोटों को अपने पक्ष में कराने के इरादे से अनुसूचित जाति--जनजाति अधिनियम में संशोधन कर शिकायत दर्ज कराते ही गिरफ्तारी का प्रावधान किया। मोदी सरकार ने भी सन् 2015 में उक्त अधिनियम में संशोधन कर उसे और प्रभावी बनाने का कार्य किया। इसी सरकार ने मुआवजा बढ़ाने के साथ ही जिला स्तर पर विशेष न्यायालयों का गठन की,जिनके लिए दो महीनों में निर्णय देना अनिवार्य बनाया गया है।विडम्बना यह है कि फिर भीर मोदी को दलित विरोधी बताया जा रहा है।
इस तरह की भरमाने/भटकाने की ओछी मजहबी, अवसरवादी,जातिवादी राजनीति करने वाले इन स्वार्थी नेताओं की शिनाख्त कर उन्हें चुनावों में हरा कर लोगों को सबक सिखाए,ताकि भविष्य में वे समाज और देश को किसी तरह क्षति न पहुँचा सके।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054
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