तब न्याय की गुहार गुहार किससे करेंगे?

        
                     डॉ.बचन सिंह सिकरवार 
 हाल में सर्वोच्च न्यायालय के  एक निर्णय के विरोध में ‘भारत बन्द‘ के दौरान अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति के लोगों द्वारा देश के कई राज्यों में जिस तरह बड़े पैमाने पर सुनियोजित और संगठित होकर उग्र हिंसक प्रदर्शन करते हुए अराजकता फैला कर बड़ी संख्या में निजी और सार्वजनिक सम्पति, वाहनों, दुकानों में तोड़फोड़ आगजनी, लूटपाट की, रेलों को रोका ,लाठी-डण्डे के जोर पर बाजार बन्द कराए,, पत्थरबाजी मारपीट,और गोलीबारी की है उसमें करोड़ों रुपए की सम्पत्ति नष्ट होने के साथ-साथ सैकड़ों आम नागरिक तथा पुलिसकर्मी घायल हुए है तथा 12लोगों की जानें गईं है। इनके सिवाय कुछ के प्राण एम्बुलेन्स रोके जाने से भी गए हैं। इनके इन कृत्यों को किसी भी रूप में उचित नहीं ठहराया जा सकता, बल्कि भले ही उनकी ये माँगे कितनी ही महŸवपूर्ण और अपरिहार्य हों। अगर ऐसे ही शक्ति प्रदर्शन आगजनी, उपद्रवों, हिंसा से न्यायालय के निर्णय बदले जाने लगे, तो फिर कानून के शासन तथा न्यायालयों के कोई माने ही नहीं रह जाएँगे। अन्ततः ऐसा करने से किसको लाभ होगा? इस पर  किसी भी राजनीतिक दल ने न तो विचार  किया और न ही दलित संगठनों ने। ये लोग अब जिस सर्वाच्च न्यायालय के फैसले की अवमानना और अवहेलना कर उस पर अविश्वास जता रहे है,उसी से ये लोग भविष्य में अपने साथ हुए अन्याय और उत्पीड़न को लेकर कैसे न्याय की गुहार लगायेंगे, क्या इनमें से किसी ने विचार किया है? वैसे भी ये जातिवादी पार्टियाँ और उनके नेता अपने खिलाफ  फैसला आने पर अक्सर न्यायाधीशों  की सत्य और न्यायनिष्ठा पर प्रश्नचिह्न लगा रहते हैं,क्योंकि ये उन्हें अपना जैसा जातिवादी मानते और समझते हैं। इन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में जातिवाद विष के ऐसे बीज बोये हुए हैं,ताकि इनसे जुड़े लोगों को हर किसी में खोट नजर आए। इससे राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को कितनी क्षति पहुँच रही है, इसकी उन्हें कतई परवाह नहीं है,क्यों कि उनके लिएस् अपने निहित स्वार्थ और  सत्ता ही सबकुछ है।                      
  वैसे विडम्बना यह है कि जो वर्ग दूसरों पर अपने साथ अन्याय, भेदभाव, उत्पीड़न, प्रताड़ित किये जाने का आरोप लगता  आया हो, उसने ही अब न कानून को अपने हाथ में लेने में न तनिक संकोच दिखाया और न ही अन्य वर्गों पर जुल्म ढहाने में। इनके इस रवैये को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय का गत 20 मार्च को एक मामले में दिया निर्णय उचित ही प्रतीत होता है जिसमें उसने अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निरोधक अधिनियम-1989 की प्रक्रिया को संशोधित कर आरोप की निष्पक्ष जाँच के पश्चात्  प्राथमिकी दर्ज करने तथा गिरफ्तारी किये जाने के साथ पूर्व जमानत का प्रावधान किया है,क्यों कि इस अधिनियम के तहत दर्ज कराये गए मुकदमे बड़ी संख्या में फर्जी पाये गए हैं।दूसरे शब्दों मंे दलित और जनजाति लोगों की सुरक्षा को बनाये गए उक्त अधिनियम का बराबर दुरुपयोग किया जा रहा है। जो लोग और सियासी पार्टियाँ अपने सियासी फायदों के हर बात में संविधान, कानून और न्यायालय की दुहाई देते हैं,वे ही अब न्यायालय के निर्णय का हिंसक विरोध कर रहे हैं या उसके समर्थन में जुटे हैं। क्षोभ की बात यह है कि देश की आजादी के बाद  अल्पसंख्यक वर्ग और अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजातियों के हित रक्षा के लिए संविधान में जो प्रावधान और दूसरे कानून बनाये थे, उनका इन जाति और वर्ग के लोग अपनी मनमानी व्याख्या कर जब तब दुरुपयोग करते है,तो इनके  एकमुश्त वोटों के लालच में कोई भी राजनीतिक दल सुनने-बोलने को तैयार नहीं है । यही कारण है कि आरक्षण न केवल बेमियाद हो गया है, बल्कि उसका दायरा भी बढ़ता जा रहा है। यह अब न केवल हर जगह व्याप्त है,वरन् प्रोन्नति में भी   आरक्षण  हो गया है। देश के राजनीतिक दलों और सरकारों के इस अनुचित और भेदभावपूर्ण रवैये से दूसरे वर्ग में हताशा-निराशा, असन्तोष और आक्रोश व्याप्त है,पर इस वर्ग के एकजुट न होने से किसी भी राजनीतिक दल को उनके हितों की परवाह नहीं है।
 यूँ  इस कथित भारत बन्द के पीछे इन जातियों की सबसे बड़ी हितैषी जताने-बताने वाली बसपा, काँग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल(राजद), वामपन्थी पार्टियों के साथ-साथ सपा जैसी दूसरे छोटी-बड़ी  कई सियासी पार्टियाँ  थी,जो इन्हें गोलबद्ध कर अपनी सियासत कर सत्ता सुख भोगती आयी थीं लेकिन पिछले लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में हिन्दुओं के एकजुट होने से उनकी सियासी जमीन पूरी तरह खिसक चुकी है और अब ये फिर इन्हें मुख्यधारा से अलग करने का मौका तलाश रही हैं। यही कारण है कि इन्होंने अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति अत्याचार निरोधक अधिनियम-1989से सम्बन्धित  एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा  निर्णय दिया है उसके लिए केन्द्र में सत्तारूढ़ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की राजग सरकार को दलित विरोधी ठहराने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी, जबकि केन्द्र सरकार से उसका कोई सरोकार नहीं है। फिर भी केन्द्र सरकार ने भारत बन्द के दिन ही सर्वाच्च न्यायालय में पुुनर्विचार दायर कि  क्योंकि अनुसूचित जाति के सांसद/विधायक/दूसरे नेता जातिवादी पार्टियों से अपने को बड़ा दलित हितैषी दिखाने में पीछे नहीं रहना चाहते थे। इस पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उसने अधिनियम में परिवर्तन नहीं किया।उसका लक्ष्य है कि झूठी शिकायत पर निर्दोष को जेल नहीं जाना चाहिए।जेल जाना भी एक दण्ड है। अनुच्छेद 21में मिले जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार पर विचार करते हुए निर्दोषों को बचाने के लिए कोर्ट ने फैसला दिया है। वैसे आन्दोलनकारियों ने हमारे फैसले को पढ़ा ही नहीं है।
      वैसे भी भाजपा दलित वर्ग के वोटों के लिए इन जातिवादी पाटियों से कहीं ज्यादा बढ़चढ़ कर उनके महापुरुषों की प्रतिमाएँ लगाने, स्मारक बनाने ,जयन्तियाँ मनाने के साथ इनकी बस्तियों में घर-घर जाकर समरसता का पाठ पढ़ाने और सेवा कार्य रही है। फिर भी अपनी हार की सियासी खुन्नस निकालने के लिए विपक्षी दलों ने जमकर यह झूठ फैलाया कि केन्द्र सरकार संविधान में बदलाव कर आरक्षण खत्म करने जा रही है। इससे अनुसूचित जातियों -अनुसूचित जनजातियों के लोगों में असन्तोष और आक्रोश भड़काया।  उनसे हिंसक घटनाएँ कराके अब केन्द्र और राज्य सरकारों को बदनाम करने में जुटी हैं। जो बसपा, सपा, राजद जैसे राजनीतिक दल विशुद्ध रूप से जाति-विद्धेष की राजनीति कर समाज को बाँटने की राजनीति करते आये हैं, वे ही भाजपा पर जातिवाद की राजनीतिक करने के आरोप लगा रहे हैं।  अब काँग्रेस की सियासत कमोबेश यही रह गई है।  एक ओर बसपा अध्यक्ष मायावती इस बन्द का श्रेय तो लेना चाहती, पर दूसरी ओर कानूनी शिकंज मंे  फँसने और सर्वसमाज के वोट खोने के डर से हिंसा की तोहमत भाजपा पर लगाने कोशिश कर रही है।इसी नीति के तहत न तो स्वयं इस आन्दोलन का नेतृत्व करने की जहमत उठायी और न अपनी पार्टी के दूसरे नेता को खुल कर आगे आने दिया। वैसे इन दलित आन्दोलनकारियों ने भारत बन्द के दौरान जिस तरह वर्ग विशेष के लोगों को अपनी हिंसा कर शिकार बनाने के साथ उनकी सम्पत्तियों को क्षति पहुँचायी  है,उससे सामाजिक समरता को गहरा आघात पहुँचाया है। उससे बसपा, काँग्रेस समेत दूसरी पार्टियों को दलित वोटों का कुछ  भले ही मुनाफा हो, किन्तु इससे निश्चय ही अन्य जातियों के मतदाता उनसे दूर हो जाएँगे।
 फिलहाल, निश्चय ही इस कथित भारत बन्द को लेकर भाजपा विरोधी राजनीतिक पार्टियाँ यह सोच कर बहुत खुश हो रही होंगी कि कम से कम से सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बहाने वे दलित जातियों को भाजपा के खिलाफ खड़े करने में कामयाब हो गए हैं, किन्तु क्या वह नहीं जानते है कि इनमें से अनुसूचित जाति -अनुसूचित जनजाति अत्याचार निरोधक अधिनियम-1989 का इस्तेमाल की जरूरत कुछ जातियों को ही पड़ती आयी है हर किसी को नहीं। ये अनुसूचित जातियाँ ठीक वैसी  गोलबद्ध नहीं हैं, जैसी वह सोचते है। इन जातियों में राजनीतिक प्रतिद्वन्द्विता/स्पर्द्धा कम नहीं है। फिर अनुसूचित जातियों और पिछड़़ों में छत्तीस का आँकड़ा भी है। इनकी दोस्ती कब तक चलेगी,इसका भी ठिकाना नहीं है। फिर देश की जनता अब मजहब और जाति की राजनीति के साथ -साथ अपना हित भी देखने लगी।इसलिए केवल जाति का अलाप करने से काम चलने वाला नहीं है। अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति के लोगों को भी समझना चाहिए कि वे या कोई भी इस देश के कानून से बड़ा कोई नहीं है। अगर शक्ति से वे कानून बदलवा सकते हैं,तो दूसरे वर्ग के लोग भी कब तक शान्त बैठे देखते रहेंग? फिर बगैर सामाजिक समरसता और बिना लोगों की एकजुटता के देश कैसे सुरक्षित और आगे बढ़ेगा? देश में कानून के शासन क्या होगा,इसके बगैर किसी को भी न्याय कैसे मिलेगा?यह प्रश्न भी विचारणीय है,इस इन जातिवादियों  का विचार करना होगा।
सम्पर्क- डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर, आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054

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