मूर्तियाँ से नहीं, कुनीतियों और कुशासन से लड़े
डॉ.बचन सिंह सिकरवार
हाल में त्रिपुरा में विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत के बाद रूस के साम्यवादी नेता ब्लादिमीर इलीइच उल्यानोव लेनिन की मूर्ति को बुलडोजर की सहायता से तोड़े जाने पश्चात् देशभर में मूर्तियों के तोड़े जाने का जो सिलसिला चल पड़ा, जिसमें अलग-अलग विचारधाराओं के महापुरुषों की प्रतिमाओं को निशाना बनाया गया है। इससे स्पष्ट है कि इन प्रतिमाओं को किसी एक राजनीतिक दल या विचारधारा के लोगों ने नहीं तोड़ा है, बल्कि बदले की कार्रवाई के तहत उन्होंने भी अपनी से भिन्न/विरोधी विचारधारा के महापुरुष की प्रतिमाओं को तोड़ने में संकोच नहीं दिखाया है। इन मूर्तियों को तोड़ने वालों के इस अनुचित कृत्य की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने निन्दा करते हुए ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए अधिकारियों को कठोर जो आदेश दिये हैं, वह सर्वथा उचित और समसामयिक कदम है। इधर मूर्ति तोड़े जाने की घटनाओं को लेकर विपक्षी दलों ने संसद के दोनांे सदनों को नहीं चलने दिया। खेद की बात यह है कि मूतियों को तोड़ने के इस अनुचित और घृणित कृत्य में सम्मिलित अपने कार्यकर्ताओं को रोकने के स्थान पर ये राजनीतिक दल केवल केन्द्र की राजग सरकार विशेष रूप से भाजपा को असहिष्णता और धार्मिक उन्माद फैलाने का दोषी ठहराने में लगे हैं, जो किसी भी दृष्टि उचित नहीं है।
यहाँ प्रश्न यह है कि क्या अपने महापुरुष की प्रतिमा तोड़ने जाने पर प्रतिशोध में प्रतिद्वन्द्वी विचारों वाले महापुरुष की प्रतिमा तोड़ा जाना उचित है? लेकिन हो यही रहा है। क्या अब राजनीतिक दलों को यह भी बताना होगा कि अपने देश में लोकतंत्र है, साम्यवादी /अधिनायकवादी शासन व्यवस्था नहीं। हर किसी को अपने राजनीतिक/धार्मिक विचारों/मत का प्रचार-प्रसार करने की पूरी स्वतंत्रता है, इसमें बाधा पहुँचाने या बाधक बनने का अधिकार किसी को नहीं है। इसके बाद भी कुछ राजनीतिक दलों विशेष रूप से वामपन्थी विचारधारा दलों पर अपने दल से भिन्न विचारों वाले दलों के कार्यकर्ताओं का खून बहाने के आरोप लगते आए हैं। वर्तमान में केरल में वामपन्थी सरकार के शासन में रा.स्व.सं.और भाजपा के कार्यकर्ताओं समेत काँग्रेस के 200से अधिक कार्यकर्ताओं की नृशंस हत्याएँ हो चुकी है,जिनके समाचार आयेदिन प्रकाशित होते ही रहते हैं, ये ही वामपंथी दल अब भाजपा पर लोकतंत्र विरोधी होने के बढ़चढ़ कर आरोप लगा रहे हैं। ये वामपन्थी अब भी अपनी पराजय के कारणों पर गहन विचार मन्थन करने के बजाय इसे धनबल और बाहुबल की जीत बता रहे हैं, किन्तु यह अर्द्धसत्य है। इसी तरह भाजपा को भी अपनी इस जीत के लिए अपनी चुनावी रणनीति/जोड़तोड़ की सफलता बताने के बजाय उसे वामपंथी सरकार की विफलता को श्रेय देन चाहिए, जो जनता ने बगैर कुछ धरे उन्हें वोट देने को विवश किया।
यह सच है कि हाल में मूर्तियों को तोड़ने की शुरुआत त्रिपुरा में दो दशक से सत्तारूढ़ वाममोर्चा दलों की विधानसभा चुनाव में पराजय तथा भाजपा की जीत के साथ हुई। भाजपा समर्थकों ने अगरतला में लेनिन की प्रतिमा को बुलडोजर की मदद से धराशायी किया। उनके इस दुष्कृत्य की जितनी निन्दा किया जाए,वह कम ही होगी। उनके इस कृत्य का इस कारण उचित या सही नहीं ठहराया जा सकता है कि वामपन्थी शासन के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के कार्यकर्ताओं का तरह-तरह से उत्पीड़न ही नहीं, हत्याएँ भी की गईं थीं। लेनिन अपने देश के नेता नहीं थे और उन्होंने रूसी क्रान्ति के बाद अपनी विचारधारा से असहमत हजारों लोगों को मरवाया था। लेकिन इसके माने यह नहीं कि जैसे के संग तैसा बर्ताव किया जाए, जो लोकतांत्रिक मूल्यों के सर्वथा विपरीत है। अपने देश की विडम्बना यह है कि जो वामपंथी और दूसर राजनीतिक दलों के नेता त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति तोड़ने की जोरशोर से भर्त्सना कर रहे थे, उन्हीं के पार्टियों द्वारा पश्चिम बंगाल की राजधानी में कोलाकाता में जनसंघ अब भाजपा के नेता श्याम प्रसाद मुखर्जी की प्रतिमा पर कालिख पोतने के साथ क्षतिग्रस्त कर दिया, पर उनके नेताओं ने उनके खिलाफ मुँह खोलने की जरूरत नहीं समझी। इस बीच अराजक तŸवों द्वारा उ.प्र. के मेरठ जनपद के खुर्द गाँव में संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष भीमराव आम्बेडकर की मूर्ति, तो तमिलनाडु केे वेल्लूर में द्रविड़ आन्दोलन के प्रणेता ई.वी.रामास्वामी पेरियार, केरल के कन्नूर में महात्मा गाँधी की मूर्तियाँ भी क्षतिग्रस्त कर दी गयीं। स्पष्ट है कि जिन राज्यों में विभिन्न विचारधारा के महापुरुषों की प्रतिमाएँ तोड़ी गईं, उन सभी में भाजपा या उनके समर्थक दलों की सरकारें नहीं हैं। इस कारण इन सभी घटनाओं के लिए केवल भाजपा को दोषी ठहराने का कोई औचित्य नहीं है।
अब इन मूर्तियों के तोड़ने के इस अभियान की सभी राजनीतिक दल अपने-अपने तरीके से आलोचना कर अपने को लोकतांत्रिक सिद्ध करने में लगे हैं, जबकि सच्चाई इसके विपरीत है। इनमें से किसी को लोकतांत्रिक मूल्यों की चिन्ता नहीं है। इन्हें अपने प्रतिद्वन्द्वी को पराजित करने में कोई हथकण्डा अपनाने से गुरेज नहीं है। सत्ता पाने के लिए इन्हें धनबल, बाहुबल के साथ-साथ धर्म,सम्प्रदाय, क्षेत्रवाद, भाषावाद ,जातिवाद से भी परहेज नहीं है।यहाँ तक कि कुछ को देशविरोधी शक्तियों से सहायता लेने और चुनावी फायदे के लिए दंगे-फसाद कराने में भी संकोच नहीं है।
अपने देश और दुनियाभर में लोग अपनी विचारधारा से सम्बन्धित महापुरुषों की प्रतिमाएँ स्थापित करते आये हैं, ताकि लोग उनके विचारों और आचरण से प्रेरणा लें। पर उनसे असहमत /विपरीत विचारों/मत/मजहब के लोग समय-समय पर उनकी विचारों के समर्थकों की भावनाओं को आहत करने या अपनी शक्ति-सामर्थ्य का प्रदर्शन करते हुए महापुरुषों तथा देवी-देवताओं की प्रतिमाओं को क्षतिग्रस्त/तोड़ने का निन्दनीय कृत्य कर अपनी असहिष्णुता प्रदर्शित करते आये हैं। विश्वभर के इतिहास में सम्भवतः सबसे अधिक मूर्तियाँ और उनके पूजा स्थलों को अपने देश में ही विदेशी आक्रान्ताओं और विधर्मी शासकों द्वारा तोड़ा गया हैं, ताकि पराजित लोगों को अपमानित करने के साथ-साथ अपना मजहब को अपनाने के लिए उन्हें मजबूर किया जा सके। लोकतंत्र में अपने से विपरीत विचारधारा मानने वालों का उत्पीड़न और उनके प्रतीकों को तोड़न अवैधानिक और वर्जित है। वैसे भी शक्ति से न तो किसी विचारधारा को समाप्त नहीं किया जा सकता और न ही उसे मानने को विवश ही किया जा सकता है लेकिन अपने श्रेष्ठ विचारों, सिद्धान्तों, नीतियों और कुशल शासन-प्रशासन, अच्छे व्यवहार से विरोधियों के दिलों में जगह बनायी जा सकती है। इसका प्रमाण अपने देश में अब तक हुए विभिन्न चुनावों के बाद अलग-अलग राजनीति दलों के सत्ता में आना है। सालों साल केन्द्र और राज्यों में सत्ता सम्हालने वाली काँग्रेस अब कुछ ही राज्य तक सीमित रह गई है, वहीं कुछ सालों तक गिनती के सांसद और एक/दो राज्य में राज करने वाली भाजपा केन्द्र और 21राज्यों में सत्ता में है। यह सफलता भाजपा को अपनी नीतियों, सिद्धान्तों, स्वशासन के कारण नहीं, बल्कि अन्य दलों के शासन से लोगों के असन्तुष्ट या निराश होने से मिली है। इसलिए उसे अपनी कथित सफलता से बहुत अधिक उत्साहित होने की आवश्यकता नहीं है।
अब जहाँ तक वामपन्थी दलों का सवाल है कि उन्हें त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, केरल में अपनी साम्यवादी नीतियों के माध्यम से लोगों को बेहतर शासन देने का पूरा अवसर दिया, किन्तु उन्होंने जनता को निराशा ही किया। इन राज्यों में वामपन्थी सरकारों ने ऐसा कुछ नहीं किया, जो दूसरे राजनीतिक दलों की सरकारों से किसी माने अलग या बेहतर कहा या समझा जाए। देश की जनता ने दलितों की पार्टी बसपा, समाजवादी पार्टी, डीएमके, एडीएमके, राजद, जनतादल, बीजू जनता, अकाली दल, नेका, पीडीपी आदि सभी के शासन देखा-भोगा,परखा है, इनमें से किसी ने अपने नाम और सिद्धान्तों के अनुरूप कुछ भी करके नहीं दिखाया। उन्होंने अब तक देश के लोगों को निराश-हताश किया है। इन राजनीतिक दलों के नाम या कथित नीति, सिद्धान्त भले अलग नजर आते हों, पर इनमें से ज्यादातर का एक ही लक्ष्य येन केन तरीके से अधिकाधिक धन कमाना और सत्ता सुख भोगना रहा है। इनमें से किसी ने भी सुशासन के माध्यम से जनता का ज्यादा से ज्यादा भला करने पर ध्यान देने की जरूरत महसूस नहीं की। इनमें से किसी ने भी किसी दल की सरकार की कुशासन- कुनीतियों और भ्रष्टाचार से लड़ने का हौसला नहीं दिखाया है। ऐसे में केवल एक- दूसरे के महापुरुषों की मूर्तियाँ तोड़े जाने से कुछ नहीं होगा।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63 गाँधी नगर, आगरा-282003मो.नम्बर-9411684054
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