निरर्थक नहीं है ‘पद्मावती‘ पर विवाद

डॉ.बचन सिंह सिकरवार

अब फिल्म ‘पद्मावती‘ को केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड का प्रमाणपत्र न मिलने के कारण इसके प्रदर्शित करने की तिथि आगे बढ़ा दी गई है, लेकिन इसे लेकर देश के कई राज्यों में उठा विवाद थमता दिखाई नहीं दे रहा है। अपने इतिहास से छेड़छाड़ को लेकर उद्वेलित हिन्दुओं विशेष रूप से राजपूतों के उग्र  विरोध को देखते हुए कुछ राज्य सरकारों ने इस फिल्म के प्रदर्शन पर प्रतिबन्ध तक लगा दिया है। अब जहाँ इस फिल्म की नायिका दीपिका पादुकोण द्वारा हर हाल में फिल्म प्रदर्शित करने की बात कहने के साथ कुछ अन्य अभिनेत्रियों-अभिनेताओं ने इस फिल्म का समर्थन किया है, वहीं कुछ लोगों ने निर्देशक संजयलीला भंसाली,  दीपिका पादुकोण के सर कलाम करने पर इनाम घोषित किया है जिनके खिलाफ मुकदमा भी दर्ज हो गया है। निस्सन्देह यह स्थिति दुखद है। अब इस फिल्म के बारे में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कहना है कि इस फिल्म को लेकर हो रहे विवाद के लिए  जितने विरोध-प्रदर्शन करने वाले जिम्मेदार हैं, उतना ही इस फिल्म के निर्माता संजय लीला भंसाली हैं। उन्हें भी जनभावनाओं से खिलवाड़ करने का कोई अधिकार नहीं है।  जनभावनाओं से खिलवाड़ उनकी आदत का हिस्सा बन गया है। उनके इस कथन में कहीं न कहीं सच्चाई है। इसका प्रमाण उनकी नई फिल्म ‘पद्मावती‘ और पिछली फिल्में हैं। वह विवाद उत्पन्न करके अपनी फिल्मों को अधिकाधिक  प्रचार दिलाना  चाहते हैं, ताकि इस फिल्म से भारी कमाई की जा सके।  फिल्म ‘पद्मावती‘ को लेकर चल रहे उग्र विवाद पर उनकी लम्बी चुप्पी को देखते हुए तो यही लगता है।
                  अगर ऐसा नहीं होता, तो क्या संजयलीला भंसाली अपने वादे के मुताबिक फिल्म पद्मावती को प्रदर्शित करने से पहले उन राजपूत नेताओं को न दिखाते, जिनसे उन्होंने राजस्थान में इस फिल्म की शूटिंग के समय विवाद और अपने साथ हाथापाई होने के बाद फिल्म पूरी होने पर दिखाने का आश्वासन दिया था। उस समय भंसाली ने वादा किया था कि वह पद्मावती के बारे में प्रचलित मान्यताओं के विपरीत कुछ भी नहीं फिल्मायेंगे और उनकी भावनाओं का पूरा ध्यान रखेंगे। लेकिन इसके विपरीत भंसाली ने न तो फिल्म ‘पद्मावती‘ का टेªलर प्रदर्शित करते समय और न बाद में  राजपूत नेताओं को फिल्म दिखाने की आवश्यकता अनुभव की। इन्हें दिखाने के बजाय उन्होंने पद्मावती कुछ चुनिन्दा पत्रकारों और टी.वी.चैनल वालों को दिखाई, जिन्होंने इसके पक्ष में प्रचार कर  सफाई दी। उनके इस कदम की सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष प्रसून जोशी ने भी आलोचना की है। उनके इस बर्ताव को देखते हुए राजपूत नेताओं का उन पर शक और विरोध करना स्वाभाविक है। इस पर जनसंचार माध्यमों में बैठे और कुछ दूसरे लोगों का विचार है कि राजपूत समाज को  फिल्म पद्मावती  को देखे बिना इसके ऐतिहासिक तथ्यों, मान्यताओं, परम्पराओं आदि के उल्लंघन/अनदेखी को लेकर उनका विरोध निराधार है। यहाँ उनसे प्रश्न यह है कि यदि फिल्म प्रदर्शित हो ही गई, तो उसके प्रदर्शन को रोेकने के क्या माने रह जाएँगे?
                            धृष्टता की हद तो यह है कि कुछ कथित इतिहासकार रानी पद्मावती के ऐतिहासिक अस्तित्व को ही मानने से इन्कार कर रहे हैं। वैसे इन्हें कोई कैसे समझाए कि जो कुछ उनकी पोथी में दर्ज है, उतना ही इतिहास नहीं है। अपने देश में न जाने कितने योद्धा और दूसरे सन्त/महन्त, महापुरुष हुए हैं, जिन्हें समाज अपना आदर्श या ‘जननायक‘ मानता है, पर वे लोक स्मृति में जीवित हैं। उन्हें लेकर अनगिनत लोक कथाएँ और लोकगीत समाज में प्रचलित हैं,पर इतिहास की पोथियों में उनका कहीं उल्लेख नहीं है तो क्या उनके अस्तित्व पर सवाल खड़े किये जाएँ? जहाँ तक रानी पद्मावती का प्रश्न है तो चित्तौड़ गढ़ दुर्ग में अब भी रानी पद्मावती का महल है। उनके साथ चाचा और चचेरे भाई गोरा तथा बादल के आवास भी बने हैं। वह जौहर स्थल भी ह,ै जहाँ सन् 1303 में हजारों राजपूत स्त्रियों के साथ उन्होंने अग्नि कुण्ड में कूद कर जौहर कर प्राणोत्सर्ग किया था,तब से राजपूत समाज ही नहीं, देश के सभी वर्गों के लोग उनके  प्रति  श्रद्धा स्वरूप ‘सती‘ और ‘देवी‘ मान कर उन्हें  पूजते तथा उनमें अपनी आस्था जताते आए हैं। वैसे चित्तौड़ गढ़ के  इसी दुर्ग में इसी स्थान पर कालान्तर में बहादुरशाह  तथा फिर मुगल बादशाह अकबर के काल में भी जौहर हुए हैं। अगर  रानी पद्मावती काल्पनिक हैं तो दिल्ली सल्तनत के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी से उनका रिश्ता कैसे हुआ? फिर देश और विशेष रूप से राजस्थान के लोकगीत और लोकथाएँ गढ़ने वालों ने रानी पद्मावती का चरित्र कैसे और कहाँ से गढ़ लिया? बाद में उनसे ही प्रेरणा लेकर कोई ढाई सौ साल बाद मलिक मुहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत‘ महाकाव्य की रचना क्यों और कैसे की?फिर संजयलीला भंसाली को ही रानी ‘पद्मावती‘ पर फिल्म बनाने की क्यों पड़ी ? अपने देश में पाश्चात्य देशों की भाँति इतिहास लेखन की परम्परा नहीं रही है,बल्कि इसे चारण/भाटों/जगाओं ने अपनी तरह यानी काव्यात्मक रूप में अंकित किया है। अपने देश का ज्यादातर इतिहास लेखन मुसलमान और अँग्रेज शासकों द्वारा कराया गया है, जिसमें इतिहास लिखने वालों ने उनका पक्ष ही प्रबल दर्शाया है। सन् 1303 में चित्तौड़ के राजा रतन सिंह और अलाउद्दीन खिलजी के मध्य हुए युद्ध को उसके दरबारी शायर अमीर खुसरो ने देखा और उसका वर्णन ‘खजाएं-उल-फतूह‘ में किया है जिसमें उसने हिन्दुओं को ‘हिरन‘ और तुर्कों को ‘सिंह‘ सरीखा बताया है।  
       ऐसे लेखक से इतिहास के सत्य लेखन की आशा कैसे की जा सकती है? अपने देश के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और रचनात्मक लेखन के पैरोकारों को मनोरंजन के नाम पर इतिहास से छेड़छाड़ से लेकर हिन्दुओं के धर्म,उनके देवी-देवताओं, श्रद्धा,आस्थाओं से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन ये ही पैरोकार दूसरे मजहब के बारे में सत्य कथन को सुनने तक को तैयार ही नहीं है। उनके बारे में कुछ करने /कहने पर उनकी धार्मिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप मानते हैं। अब फिल्में और धारावाहिक को केवल मनोरंजन का माध्यम ही नहीं हैं, इन ऐतिहासिक/धार्मिक विषयों पर बने धारावाहिकों को युवा पीढ़ी के  शिक्षण का जरिया  भी माना जाता है। ऐसे में उन्हें असत्य को सत्य दिखाने  की छूट कैसे दी जा सकती है? इस बीच अब दीपिका पादुकोण ने फिल्मी दुनिया में राजनीतिक हस्तक्षेप को अनुचित बताते हुए इसे फिरौती वसूलने का उपक्रम बताने की कोशिश की है, उनके इस आरोप पर शायद ही कोई विश्वास करेगा।  
  सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054

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