बस ख्याली पुलाव है ‘तीसरा मोर्चो'/ ‘फेडरल फ्रण्ट'
-डॉ.बचन सिंह सिकरवार
एक बार फिर देश के कुछ राजनीतिक दलों ने गैर काँग्रेस और गैर भाजपा के तीसरा मोर्चा/फेडरल फ्रण्ट (संघीय मोर्चा )गठित करने का शिगूफा छेड़ दिया है और उसके विस्तार के सिलसिले में विभिन्न दलों के नेताओं से सम्पर्क भी कर रहे हैं। लेकिन इनकी अगुवाई में जुटे दलों के बगैर किन्हीं ठोस मुद्दों, सिद्धान्तों, नीतियों के कोरे राजनीतिक विरोध से मोर्चे नहीं बनते। अगर बन भी जाते हैं तो छोटे-छोटे मुद्दों और आपसी स्वार्थों के टकराव के कारण उन्हें टूटने में भी देर नहीं लगती। इसके साथ ही इन दलों की पिछली कारगुजारियों और उनके नेताओं की अवसरवादिता, जातिवादी, क्षेत्रवादी, मजहबी चरित्र को देखते हुए इसकी कामयाबी और इसके टिकाऊ होने की बहुत ज्यादा उम्मीद करना फिजूल ही होगा। फिर इसके गठन में लगे ये दल अपने ही राज्य में अपने ही घोर विरोधी दलों से कैसे हाथ मिलाएँगे? यदि ऐसा नहीं करते , तो वे इस मोर्चे को कैसे कामयाब कर पाएँगे, सवाल बहुत मौजू है। फेडरल फ्रण्ट बनाने वाले दलों में से किसी का भी अपने राज्य से बाहर कोई वजूद नहीं है जो इस नये मोर्चे की धुरी बन सके।
हाल में तृणमूल काँग्रेस की प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ‘फेडरल फ्रण्ट' के प्रस्ताव किया ,जिसके समर्थन में आन्ध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और तेलुगूदेशम के प्रमुख एन.चन्द्राबाबू नायडू ने अपन हाथ बढ़ा दिया ,जबकि उनकी ही पार्टी के लोग चन्द्राबाबू के हर हाल में फेडरल फ्रण्ट में शामिल होने के अचानक किये ऐलान से भौंचक्के रह गए हैं। वैसे भी तेलुगू देशम की अपने राज्य में स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है। इस नये मोर्च के प्रस्ताव पर सपा के प्रदेश अध्यक्ष और उ.प्र. के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का कहना है कि हाल के वर्षों में काँगे्रस और भाजपा अपने-अपने मोर्चों नाकाम साबित हुई हैं अब जनता भी तीसरे मोर्चे की जरूरत महसूस कर रही है। इस तरह उन्होंने इस मोर्चे को अपने समर्थन का इशारा कर दिया है। इसी दौरान बीजू जनता दल (बीजद)के प्रमुख और ओडिसा के मुख्यमत्री नवीन पटनायक भी फेडरल फ्रण्ट के पक्ष में हैं तो जदयू के महासचिव के.सी.त्यागी भी फ्रण्ट को लेकर ममता बनर्जी से मिल चुके हैं। लेकिन इस बारे में कभी काँग्रेस के घोर विरोधी और अब उसी की गोद में खेल रहे ‘राष्ट्रीय जनता दल'(राजद)के प्रमुख लालू प्रसाद यादव का कहना है कि तीसरा मोर्चा में सम्मिलित होने वाले सभी दलों के प्रमुख नेता प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखते हैं ऐसे में तीसरे मोर्चे के गठन की कोशिशें सफल नहीं हो पाएँगीं। वैसे लालू जी कुछ भी अण्टसण्ट बोलते रहने को मशहूर हैं , पर इसमें मामले में उन्होंन बिल्कुल सही कहा है।
इस बारे में द्रमुक प्रमुख एम. कुरुणानिधि का यह कहना उचित है कि उनकी पार्टी लोकसभा चुनाव के ठीक पहले तय करेगी कि कब और किसके साथ गठबन्धन किया जाए। उनके इस कथन में सच्चाई है कि उनके राज्य के सभी राजनीतिक दलों के लिए कोई भी राजनीतिक दल अछूत नहीं है। वे और उनके प्रतिद्वन्द्वी दल अन्नाद्रमुक की नेता जयललिता केन्द्र में सत्तारूढ़ किसी भी दल से हाथ मिला सकती हैं जो उनकी अपनी राज्य सरकार को धन और सुविधाएँ देने के साथ-साथ उनके सांसदों को अपनी सरकार में मंत्री पद से नवाज सके।
इधर ‘भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी' (भाकपा) के वरिष्ठ नेता ए.डी.बर्द्धन ने ममता बनजी के तीसरे मोर्च के गठन का विरोध करते हुए कहा है कि ऐसा कोई फ्रण्ट न तो सम्भव है और न ही यह लोगों में विश्वास पैदा कर पाएगा है। गैर काँग्रेस और गैर भाजपा के बजाय जनता के मुद्दों पर वैकल्पिक नीतियाँ तैयार की जाएँ , तो मतदाता उन्हें आसानी से स्वीकार करेंगे। उधर ‘मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी' (माकपा)के के महासचिव प्रकाश कारत का अपना अलग ही विचार है। उनका कहना है कि उनकी पार्टी क्षेत्रीय दलों का एक वाम प्रजातांत्रिक विकल्प खड़ा करना चाहती है जो अस्थायी और लोकसभा चुनाव में सहयोगी दलों के साथ सीटों के तालमेल तक सीमित होगा।
अभी जहाँ काँग्रेस के साथ शरद पवार की ‘राष्ट्रीय काँग्रेस पार्टी' (राक्रापा), फारुक अब्दुल्ला की नेशनल कान्फ्रेंस (नेका), राष्ट्रीय लोकदल(रालोद) हैं जिनकी संप्रग सरकार को सपा और बसपा बाहर से समर्थन दे रही हैं, वह भी मजबूरी में ,क्यों कि उनकी नेता मायावती और मुलायम सिंह यादव आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में फँसे हैं। रालोद के मुखिया चौ.अजित सिंह का सत्ता ही ईमान-धर्म है वे सत्ता के लिए किसी भी दल में जा सकते हैं। वहीं राजग में केवल भाजपा, शिवसेना ,अकाली दल बचे हैं। इनसे जुड़ने को अब कोई बड़ा राष्ट्रीय दल तो दूर ,राज्य स्तरीय दल भी नहीं बचा है। अब बात करें तो तीसरे मोचेर्ं में कौन-सा ऐसा रीढ़धारी दल है जो मौका आने पर काँग्रेस या भाजपा के केन्द्र में सरकार में शामिल होने के न्योते का ठुकरा सके। माकपा, भाकपा पश्चिम बंगाल तथ केरल तक सीमित हैं। बंगाल में इन दोनों समेत वाम दलों का अभी तक खास वजूद था वहाँ अब उनकी प्रबल प्रतिद्वन्द्वी ममता बनर्जी की तृणमूल काँग्रेस तीन दशक से भी अधिक पुरानी बादशाहत को उखाड़ फेंक कर सत्ता में हैं। उससे इनके गठबन्धन का प्रश्न ही नहीं उठता। उत्तर भारत में वामदलों को जिन मुलायम सिंह यादव और उनकी सपा पर बड़ा एतबार तथा गरूर था वे उन्हें अमरीका के साथ परमाणु सन्धि समझौते और खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश के मुद्दे पर संसद में काँग्रेस का साथ देकर उन्हें दंगा दे चुके हैं। वे अपने और अपनी पार्टी के फायदे के लिए कब क्या कर गुजरें ,इसका अन्दाज लगना किसी के बूते में नहीं है। मुलायम सिंह यादव ममता बनर्जी को भी हाल के राष्ट्रपति के चुनाव में चरका दे चुके हैं। इसलिए वे भी उन पर आसानी से भरोसा करने वाली नहीं हैं। फिर वे स्वयं प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहे हैं जिसे स्वयं ममता बनर्जी और उनके सजातीय लालू प्रसाद यादव किसी भी सूरत में पूरा करने देने से रहे। कमोबेश यही हालत उ.प्र.मुलायम सिंह की धुर विरोधी मायावती और उनकी पार्टी बसपा की है जिन्हें दलित हित के नाम पर अपने फायदे के लिए किसी का साथ छोड़ने और पकड़ने से कोई गुरेज नहीं है। इसकी मिसाल खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का मुद्दा ही काफी है जिससे उनके समर्थक ही सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। इसके साथ मायावती भी प्रधानमंत्री बनने के कब से ख्याली पुलाव पका रही है। ऐसे में वे शायद ही ऐसे किसी मोर्चे में हों, जो उन्हें प्रधानमंत्री बनवाने का ठोस आश्वासन न दे।
ओडिसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की पार्टी बीजद राजग का हिस्सा रही है। अगर राजग केन्द्र में सरकार बनाने लायक सीटें जीतने में कामयाब रहता है तो पटनायक को भी पुराने सम्बन्ध फिर से जोड़ने में बहुत देर नहीं लगेगी। अब राजग से नाता तोड़ने वाले बिहार के मुख्यमंत्री और जदयू नेता का अपने राज्य में घुर विरोधी लालू प्रसाद यादव की ‘राजद' और रामविलास पासवास की ‘लोजपा' से गठबन्धन आसान नहीं है, क्यों कि ऐसा कर वे अपनी सत्ता गंवाने का जोखिम हरगिज नहीं उठायेंगे। फिर वह भी खुद प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहे हैं जो लालू प्रसाद यादव के रहते पूरा होना सम्भव नही है।
यही स्थिति हरियाणा की चौ.ओमप्रकाश चौटाला के ‘नेशनल लोक दल' और ‘हरियाणा विकास पार्टी'(हविपा), कर्नाटक में पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा की ‘जनता दल सेक्यूलर' ,जम्मू-कश्मीर में नेका के डॉ.फारुक अब्दुल्ला और झारखण्ड में ‘झारखण्ड मुक्ति मोर्चा' (झामुमो) की है जो उन्हें सत्ता दिलाये वही पार्टी धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील है। अकाली दल और शिवसेना कहीं कोई और ठौर नहीं है इसके कारण उनका भाजपा के साथ रहना मजबूरी है। फिर क्रमशः पंजाब-महाराष्ट्र में किस मुँह से वे काँग्रेस ये हाथ मिलाएँगे ,जहाँ से उनकी राजनीति का सारा दारोमदार टिका है। पूर्वोत्तर राज्यों में असम गण परिषद्(अगप) समेत कई अत्यन्त छोटे राजनीतिक दल जिनके मुश्किल से एक-एक,दो-दो सांसद हैं इनकी किसी गठबन्धन के लिए कोई खास अहमियत नहीं है।
अन्त में इस मामले में काँग्रेस के प्रवक्ता शकील अहमद के इस कथन की अनदेखी नहीं की जा सकती है कि तृणमूल काँग्रेस ,जदयू , डी.एम.के. या ऐसी दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों की अपने-अपने राज्य के बाहर कोई अहमियत नहीं है। राष्ट्रीय स्तर इनकी एकजुटता आसान नहीं है॥
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार ६३ ब,गाँधी नगर, आगरा-२८२००३ उ.प्र.
मो.न. ९४११६८४०५४
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