यँू ही नहीं कर रहे हैं आर.टी.आई के दायरे में आने का विरोध



डॉ.बचन सिंह सिकरवार
केन्द्रीय सूचना आयोग के देश के राजनीतिक दलों को ÷सूचना के अधिकार' के अन्तर्गत लाने के निर्णय को लेकर सत्तारूढ़ काँग्रेस से लेकर ÷मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी' और ÷जनता दल युनाइटेड'(जे.डी.यू.) द्वारा घोर विरोध किया जा रहा है। थोड़े संकोच के बाद भाजपा के भी सुर कमोबेश इन्हीं जैसे सुनायी दे रहे हैं जो अपने को दूसरे राजनीतक दलों से चाल-चरित्र में अलग बताने-जताने का ढिंढेरा पीटती रहती है। सच तो यह है कि केन्द्रीय सूचना आयोग(सी.आई.सी.) के उक्त निर्णय से अधिकांश राजनीतिक दल व्यथित ,उद्वेलित , हैरान और परेशान हैं। वे अपने इस दुःख की असल वजह भी नहीं बता-जता पा रहे हैं। आखिर वे कैसे किसे बताएँ कि इससे तो उनका धन्धा मन्दा ही नहीं , चौपट या खत्म ही हो जाएगा।
आश्चर्य यह है कि इनमें से कुछ राजनीति दल जब तब देश में  चुनाव सुधारों के पक्ष से लेकर भ्रष्टचार के खिलाफ उठने वाले सुरों से सुर भी मिलाते आये हैं। अब जब वह अवसर गया है तो बेशर्मी से कुतर्कों के सहारे उक्त फैसले के  विरोध में उतर आये हैं। वस्तुतः ये दल अपने आय के स्रोतों  और अपने खर्चों के साथ उनके दूसरे निर्णयों की देश के लोगों और अपने कार्यकर्ताओं को किसी तरह की जानकारी नहीं देना चाहते, जिससे वे उनके फैसलों पर सवाल उठायें। इसका मुख्य कारण राष्ट्र और जनता के हित का नारा लगाते हुए अधिकांश राजनीतिक दलों द्वारा पूँजीपतियों से धन लेकर उससे अपनी पार्टी का संचालन और  चुनावों में व्यय करना। उसके बाद सत्ता में आने पर उन्हें देश के प्राकृतिक संसाधनों से लेकर कमाई के  दूसरे साधनों के दोहन की छूट देना रहा है। विपक्ष में रहते हुए बाकी राजनीतक दल सत्तारूढ़ दल की सरकार द्वारा पूँजीपतियों को लाभ पहुँचने पर चुप्पी साधे रखने की कीमत वसूलते रहते हैं। वैसे पूँजीपति भी खुद खुद राजनीतिक दलों की हैसियत के हिसाब से समय-समय पर उन्हें चन्दे के रूप में कुछ कुछ रकम देते ही रहते  हैं ताकि वे उनकी लूट की छूट में बाधक बनें। यही कारण है कि देश में  पिछले ६५ साल में केन्द्र से लेकर विभिन्न में  राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें बनी हैं लेकिन व्यवस्था में कोई खास बदलाव नहीं आया हैं। आखिर ऐसा क्यों है,क्या आपने कभी विचार किया?
असलियत यह है कि देश की आजाद के बाद से राजनीति शनैः-शनैः समाज सेवा की जगह  धन्धा-कारोबार बना गयी है। कुछ नेता तो अपनी पार्टी को बकायदा निजी कम्पनी की तरह ही चला रहे हैं। इन राजनीतिक दलों के कस्बों, तहसील ,जिलों, राज्यों ,राजधानी के कार्यालयों के रोजमर्रा के खर्चे, सम्मेलनों-प्रदर्शनों, चुनावों ,नेताओं के कारों ,रेलों, हैलीकोप्टरों ,वायुयानों के दौरों ,पाँच सितारों होटलों ठहराने ,खाने-पीने के राजसी खर्चे को रकम कहाँ से आती है?यह आती हैं उनसे जो इनकी टिकट हासिल करते हैं या इन से कोटा-परमिट, लाइसेन्स,करों आदि लेते हैं।  नेता भी क्या करें?
 ये नेता लाखों-करोड़ों रुपए देकर पार्टी की टिकट हासिल (खरीदते) हैं। फिर करोड़ों रुपए चुनाव प्रचार के लिए जुटाए गए तथाकथित कार्यकर्ताओं के सभी शौक पूरे करने और उनके वेतन भत्ते ,यात्रा व्यय के साथ-साथ मतदाताओं और उनके  ठेकेदारों के मत खरीदने, अखबारों में रुपए देकर अपनी खबरें तथा विज्ञापन छपवाने, केबिल टी.वी. और चैनलों में चेहरा चमकाने और फर्जी तारीफ दिखवाने में भी जेब ढीली करनी पड़ती है। चुनावी कामयाबी के लिए  उम्मीदवार को खुद के सीने पर पत्थर रखकर हर किसी के आगे माथा नवाने से लेकर पाँव तक छूने पड़ते हैं। कुछ दलों में तो दाम देकर मंत्री  पद भी मिलते हैं। तत्पश्चात इन जनप्रतिनिधियों पर पाँच साल के कार्यकाल में भी कभी पार्टी के जुलूस, प्रदर्शनों के लिए भीड़+ जुटाने को तो कभी सभा-सम्मेलनों कराने के लिए बहुत रकम खर्च करनी होती है  तो कभी पार्टी  नेता को खुश रखने को उसके जन्म दिवस पर भेंट के रूप में  मोटी रकम की भी जरूरत होती है। ऐसे में अब विचारणीय प्रश्न यह है कि ये कथित जनप्रतिनिधि कब तक और कहाँ से धन खर्च करते रहेंगे?
सच्चाई यह है कि वर्तमान राजनीतिक और चुनावी-व्यवस्था में भ्रष्टचार के बगैर सफल होना तो दूर ,एक आम कार्यकर्ता के लिए उसमें बने रहना भी कठिन हो गया है। ज्यादातर राजनीतिक दलों में उन्हीं कार्यकर्ताओं की बूझ होती है जिनके पास ढेरों दाम, महँगी कारें कोठी -बंगले हैं। सामान्य कार्यकर्ता के लिए पार्टी का उम्मीदवार बनना तो बहुत दूर की बात, उसका पदाधिकारी भी होना भी मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। इस स्थिति में हर किसी का एक ही लक्ष्य होता है कि वह राजनीति में आकर ऐनकेन प्रकारेण कम समय में अधिकाधिक धन कैसे कमाएँ। इसके लिए वे अपने नेताओं की सिफारिशों पर सड़कों, पुलों आदि की ठेकेदारी से लेकर चौराहों ,सड़कों पर फेरी ,टेम्पों ,दूसरे वाहनों से रंगदारी वसूलने में जुट जाते हैं। रहे-बचे मिट्टी ,बालू, पत्थर के खनन  या फिर वनों के पेड़ काटने आदि से कमाई करने लगते हैं।
  अब गाँव का प्रधान बनने के लिए भी लोग दस-बीस लाख रुपए खर्च करने के  साथ-साथ मतदाताओं को शराब ,कब्बाब ,शबाब तक जुटाने में पीछे नहीं रहते। ब्लाक प्रमुख बनने को कई-कई करोड़ रुपए खर्च करते हैं, आखिर क्यों ? एम.एल.एम. और एम.पी.का चुनावों करोड़ रुपए खर्च करने पड़ते हैं। 
ऐसे में राजनीति करने के लिए अधिकांश राजनीतिक दलों के नेताओं ,नौकरशाहों, देसी-विदेशी पूँजीपतियों ,ठेकेदारों ने जनता के धन और देश के प्राकृतिक संसाधनों की मिल-बाँट कर लूटने की दुरभि-सन्धि या आपसी सहमति बना रखी है। यही कारण है कि चुनाव प्रचार के दौरान एक-दूसरे के खिलाफ भ्रष्टाचार के एक से एक गम्भीर आरोप लगाने और सत्ता में आने पर कठोर कार्रवाई करने का भरोसा दिलाने के बावजूद वे सत्ता पा कर सब कुछ भूल जाते हैं। सरकार बनने के बाद बड़ी तादाद में पुलिस-प्रशासन के अधिकारियों के स्थानान्तरण व्यवस्था में सुधार के लिए नहीं। इन अधिकारियों से जनता को लूटने के लिए उन्हें बेहतर कमाई के शहरों और पदों पर तैनाती के बदले अपनी चौथ वसूलने के लिए किये जाते हैं।  अब थाने-चौकियों की बोली बोली जाती हैं। चौराहें-बाजार बिकते हैं। ऐसे में इन पुलिस-प्रशासनिक अधिकारियों से सुशासन की उम्मीद करना बेमानी है। इधर कुछ क्षेत्रीय राजनीतिक दलोंं का वश चले तो अपने राज्यों में पुलिस-प्रशासन से लेकर हर सरकारी विभाग में अपनी बिरादरी के ही छोटे-बड़े अधिकारी/कर्मचारियों को तैनात कर दें। ये बात अलग है कि चौथ उन्हें भी देनी पड़ती है। जो चौथ देकर तैनाती पाते हैं। उन्हें लूट की पूरी छूट के साथ-साथ कार्यस्थल पर जाने या कार्य करने की भी अनिवार्यता नहीं है। तभी तो पहले शिक्षक स्कूल नहीं जाते, अगर वहाँ जाते हैं तो पढ़ाते नहीं। यही हालत चिकित्सकों और दूसरे सरकारी अधिकारियों/कर्मचारियों की है। आजादी के बाद तो केवल कोटा/परमिट के बदले में घूस चलती है। अब पूँजीपतियों को सभी तरह के खनिजों की खदानों ,जल-जंगल,जमीनें लूटने की छूट ,करों में रियायत, देसी-विदेशी आयात-निर्यात के लाइसेन्स ,हथियार ,जलयान-वायुयान से लेकर गोला-बारूद खरीदने में दलाली ली-दी जा रही है। कड़वी सच्चाई यह है कि आज देश की सभी ज्वलन्त समस्याओं नक्सवाद, अलगाववाद,भुखमारी,गरीबी, अशिक्षा,अन्याय-अत्याचार ,संवेदनहीनता की पृष्ठभूमि  में कहीं कहीं यह राजनीतिक भ्रष्टाचार है।  अब राजनीतिक दलों को ÷सूचना के अधिकार' के तहत लाने से भले ही उनके भ्रष्टाचार पर पूरी तरह रोक लग पाए, पर उसमें कुछ कुछ कमी जरूर आएगी।  इससे दूसरे चुनाव सुधारों का मार्ग भी प्रशस्त होगा।
सम्पर्क- डॉ.बचन सिंह सिकरवार ६३ ,गाँधी नगर,आगरा-२८२००३
मो.न.९४११६८४०५४񺭏

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