भारत के जापान से बढ़ते सम्बन्धों से क्यों परेशान है चीन
डॉ.बचन सिंह सिकरवार
चीन का भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जापान यात्रा से पहले चेतावनी और उसके बाद नाराजगी जताना अप्रत्याशित नहीं है। एक ओर चीन में सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के एक समाचार पत्र में छपे लेख में ÷जापान से निकटता भारत अपने जोखिम पर करे, इससे उसकी मुश्किलें बढ़ सकती हैं',यह खुले आम भारत को चेतावनी और धमकी है। दूसरी ओर चीन जापान पर यह आरोप लगा रहा है कि वह भारत के साथ समुद्री सुरक्षा सहयोग बढ़ा कर उसे घेरने का प्रयास कर रहा है। यह उसकी रणनीति का एक वैसा ही नमूना है जैसे कि उसने अपने प्रधानमंत्री ली कछ्यांग (केकियांग) प्रस्तावित नयी दिल्ली यात्रा से पहले भारत के लद्दाख क्षेत्र में अपनी सैनिकों से घुसपैठ कराके उन्हें डाटे रख कर दिया था। चीन अपनी इन हरकतों से भारत को भयभीत और उनमें ही उलझा कर रखना चाहता है ताकि वह भारतीय महाद्वीप और हिन्द महासागर में अपने दावे और दबदबे को कायम कर तथा रखने के साथ-साथ भारत दक्षिण और पूर्वी चीन सागर ,प्रशान्त महासागर की ओर ताकने-झांकने की जुर्रत भी न करे।
चीन भारत के विरुद्ध इसलिए यह सब करता रहता है, क्यों कि उसने उसे कभी उसी की भाषा में उत्तर नहीं दिया। चीन शासकों की इस चालाकी या धूर्तता को क्या हैं ? वे कुछ कहते हैं ,उनकी पार्टी के अखबार कुछ लिखते हैं। भारत के प्रधानमंत्री की जापान यात्रा और उसके साथ समझौतों को भी चीनी अखबार कोस रहे हैं तो उसके नेताओं का कहना कि जापान-भारत के सम्बन्धों से क्षेत्र में स्थिरता और शान्ति आएगी। अब इनमें सच क्या है?
वस्तुतः चीन नहीं चाहता था कि भारत उसके आसपास के देशों से ऐसे कोई भी सम्बन्ध रखे ,जिनसे उसे कोई आर्थिक क्षति और उसके भू-राजनीतिक दबदबे में किसी भी प्रकार की कमी आए। यही कारण है कि उसे ज्यों ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की प्रस्तावित जापान यात्रा का पता चला कि वैसे ही चीन के समाचार पत्रों ने लिखना शुरू कर दिया कि भारत-चीन की मैत्री की सम्भावना के साथ ही ÷भारत-जापान गठबन्धन' की कोई गुंजाइश नहीं' है। चीन चाहता था कि भारत अपने में ही सिमट कर या कहें सिर्फ उसका होकर ही रहे।
अब जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जापान यात्रा के दौरान दोनों देशों के मध्य ÷समुद्री सुरक्षा समझौता' हो गया। इससे चीन बेहद परेशान है। इस समझौते से चीन को अब प्रशान्त महासागर ,पूर्वी चीन सागर, दक्षिण चीन सागर ,हिन्द महासागर पर एकछत्र दबदबा कायम होने का ख्बाव पूरा होता दिखायी नहीं दे रहा है। अपने मंसूबे इस मंसूबे को पूरा करने को ही उसने ÷मोतियों की माला(स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स) बनायी है जिसके अन्तर्गत चीन अपनी मुख्य भूमि से अफ्रीकी देश सूडान तक सैन्य और आर्थिक गतिविधियों का एक संजाल (नेटवर्क) विकसित करने में जुटा है। भू-राजनीतिक रूप से श्रृंखला में हिन्द महासागर में भारत को घेरने के लिए बांग्लादेश के चटगाँव, श्रीलंका में ÷हम्बनटोटा' तथा पाकिस्तान के कराची में ग्वादर में बन्दरगाहों का निर्माण कर रहा है। इतना ही नहीं, चीन श्रीलंका को हर तरह की मदद कर भारत से अलग कर अपने पक्ष में करने की कोशिश में लगा है। उसने मालद्वीव में भी भारत को उसकी शुरू की गयी परियोजना से पृथक कर उन्हें स्वयं पूरा कर रहा है।
भारत और जापान के इस समुद्री सुरक्षा समझौते और ÷ द्विपक्षीय रक्षा सन्धि' से चीन अब कितना बौखलाया हुआ ?, इसका अन्दाज उसके नेताओं बयानों और अखबारों की टिप्पणियों से लगाया जा सकता है। जहाँ चीन ने जापान के नेताओं का परिहास करते हुए कहा कि वे चीन के खिलाफ भारत को भड़का रहे हैं पर उनका यह मकसद पूरा होने वाला नहीं है, वहीं चीन के एक अखबार ने भारत और जापान के पराम्परागत सम्बन्धों पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि भारत और उसके रिश्ते न तो कभी गहरे थे न ही मजबूत। अब सम्बन्ध सृदृढ़ करने के प्रयास किसी विशेष उद्देश्य को पूरा करने के लिए हैं। चीन के ही दूसरे अखबार ने लिखा है कि चीन की रणनीति की काट करते हुए जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे भी कुछ समय पहले म्यांमार जाकर कुछ भारत-जापान सरीखे समझौते की भूमिका तैयार कर आये हैं। जापान चीन के सभी पड़ोसी देशों से रणनीतिक समझौते करने पर विचार कर रहा है। इक्कीसवीं सदी में जापान सबसे ज्यादा चीन से प्रभावित है लेकिन उसे ऐसे किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि वह किसी भी स्पर्द्धा चीन से आगे निकल जाएगा। कभी एशिया की सबसे बड़ी ताकत रहे जापान को अब यह मंजूर कर लेना चाहिए कि उसका स्थान चीन ले चुका है।
यह अलग बात है कि भारत के नेता चीनी अजदह(डे्रगन)कुछ ज्यादा ही डरे हुए हैं,क्यों कि उन्होंने न उसका इतिहास पढ़ा है और न वे चीनियों के छल-फरेब और उनकी मानसिकता से परिचित हैं। उन्हें चीन के प्रसिद्ध रणनीतिकार सुन जू के इस कथन का भी ज्ञान नहीं ÷÷दुश्मन की कमजोरी का फायदा उठाते हुए और अपराध को रक्षा का चोला पहना कर दुश्मन को बिना युद्ध किये जीत लो।'' अब चीनी सरकार इसी नीति पर चल रही है। यही कारण है कि गत अप्रैल माह में जब चीनी सैनिकों ने लद्दाख में १८किलोमीटर अन्दर घुसकर अपनी चौकी ही नहीं, पाँच किलोमीटर लम्बी पक्की सड़क भी बना ली थी, तब दिल्ली सरकार चीनी सैनिकों की इस घुसपैठ को दूसरी घुसपैठों की घटनाओं की तरह छुपाने और उसे महत्त्वहीन बताने-जताने में जुटी रही ,जब कि इसे लेकर पूरे देश के लोग बहुत उद्वेलित और चीन खिलाफ गुस्से से भरे हुए थे। फिर भी विदेशमंत्री सलमान खुर्शीद ने अपनी चीन यात्रा रद्द नहीं की। कई दिनों बाद चीन ने अपनी न जानें कितनी अनुचित शर्तों को दिल्ली सरकार से मनवाने के बाद अपने सैनिक वापस बुलाए। इसके बाद मई माह में चीन के प्रधानमंत्री ली कछ्यांग की दिल्ली यात्रा से भारत नेता स्वयं को धन्य मानते रहे, जब कि उनकी पहली विदेश यात्रा मुख्य लक्ष्य पाकिस्तान था न कि भारत। फिर भी भारत सरकार ने अपनी सीमाओं पर चीनी सैनिकों की बार-बार घुसपैठ पर नाराजगी जताना दूर रहा ,अपै्रल की घुसपैठ पर कुछ ज्यादा कहना-सुनना भी जरूरी नहीं समझा। भारत ने मौजूदा व्यापार में कटौती कर उसे अपनी नाराजगी जताने की भी कोशिश नहीं । इसके विपरीत कुछ नये व्यापारिक समझौते पर दस्तखतों के साथ सीमा विवाद सुलझाने को कोई नया सूत्र बनाने में नाकाम रहे। इस पर भारत सरकार भविष्य में घुसपैठ की घटनाओं को रोकने पर सहमति बनी है और सीमा विवाद पर बने मौजूदा तंत्र को और मजबूत किया जाएगा॥ ऐसे में चीन के हौसले कैसे न बढ़ें?
आज चीन को भारत के जापान से समझौते करने पर एतराज है उससे पहले दक्षिण चीन सागर में वियतनाम के लिए तेल की खोज पर भी आपत्ति है। लेकिन कभी भारत ने चीन से यह कहने का साहस नहीं दिखाया कि वह उससे तिब्बत पर समर्थन और लगातार व्यापार बढ़ाना चाहता। लेकिन वह पाकिस्तान की इतने बड़े पैमाने पर आर्थिक और सैन्य सहायता देकर उसके खिलाफ क्यों खड़ा कर रहा है? उसने पाकिस्तान द्वारा हथियाये गुलाम कश्मीर की जमीन पर कराकोरम मार्ग क्यों बना लिया है और वह गुलाम कश्मीर में भारत की नाखुशी के बावजूद कई पाकिस्तानी परियोजना में सहायता करने और वहाँ अपने सैनिक क्यों तैनात किये हुए है? वह १९६२ के युद्ध में भारत के कब्जाए आक्साई चिन को कब लौटाएगा? अगर वह जिस तरह कश्मीर और अरुणाचल के निवासियों को नत्थी वीजा देने की कोशिश करता आया है उसी तरह भारत भी तिब्बत और शिनजियांग के लोगों के चीनी वीजा पर आपत्ति करने लगे ,तो उसे कैसा लगेगा? इतना ही नहीं, वह ब्रह्मपुत्र नदी पर भारत के हितों की अनदेखी करते हुए बाँध पर बाँध बनाता जा रहा है। चीन जापान के साथ मिलकर भारत के अपने को घेरने की आशंका जता रहा है तो वह पाकिस्तान से मिलकर भारत के साथ कौन-सा खेल खेल रहा है? क्या इसका चीन के पास है?
दरअसल, जापान के साथ भारत के नये समझौते से चीन को अपने लिए खतरा दिखायी देने की सबसे बड़ी जापान के नये प्रधानमंत्री शिंजो एबे द्वारा अपने देश के संविधान में ९६ संशोधन के माध्यम से ÷न्यूनतम रक्षा तंत्र' के अनुच्छेद ९ का प्रावधान को खत्म कर जापान की सैन्य शक्ति को बढ़ाना और सुदृढ़ करना चाहते हैं। इसके साथ वे आने समय में हिन्द महासागर और प्रशान्त महासागर क्षेत्र ,दोनों को प्रभावित करने वाले देशों के संगठन में जापान ,,आस्ट्रेलिय, दक्षिण कोरिया के साथ अन्य आसियान देशों को सम्मिलित कर उसका नेतृत्व भारत को सौंपना चाहते हैं। चीन किसी भी दशा में ऐसे संगठन का विरोध करेगा। चीन जापान की पराधीनता में रह चुका है। इसलिए वह उससे द्वेष मानता है। अब भी उसका सेनकाकू(डीयवू) द्वीप को लेकर जापान से विवाद बना हुआ है। गत जनवरी माह के शुरू में जब चीन ने इस द्वीप पर सर्विलांस प्लेन भेजा, तब इसके प्रत्युत्तर में जापान ने भी लड़ाकू विमानों को भेजा था।यह द्वीप पूर्वी चीन सागर जापान,चीन और ताइवान के बीच स्थित है।यह ÷अमरीका-जापान सुरक्षा समझौते' के अन्तर्गत होने के कारण चीन इस हमला करने की हालत में नहीं है।
वर्तमान परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते भारत को चीन भयभीत होने के आवश्यकता नहीं है, उसे अपने हितों की रक्षा के उसकी नाराजगी झलने के लिए भी तैयार रहना होगा। ऐसा किये बिना चीन न उसे अपनी सीमा पर सड़क करने देगा और न हवाई पट्टियाँ ही। इनके बगैर भारत की सीमा में चीनी सेना बार-बार घुसपैठ करने का दुःसाहस करती रहेगी।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार ६३ ब,गाँधी नगर,आगरा-२८२००३ मो.न.९४११६८४०५४
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