किसके हैं ये मानवाधिकार ?
डॉ. बचन सिंह सिकरवार
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला द्वारा गत दिनों सोपोर में एक मस्जिद में आतंकवादियों द्वारा एक युवक की हत्या किये जाने के बाद भी विधानसभा में उन लोगों के शान्त रहने पर फटकारा जाना सर्वथा उचित और सामयिक है जो प्रदर्शन या उपद्रवों अथवा घुसपैठियों के धोखे में सेना और सुरक्षा बलों की गोली से किसी के शिकार होने पर सड़कों से लेकर विधानसभा में अच्चान्ति फैलाने, तोड़फोड़ और हिंसा करने से बाज नहीं आते। यही नहीं ,इन पर न जाने उन पर कहाँ-कहाँ की तोहमतें लगाते नहीं थकते। लेकिन यही लोग पाकिस्तान परस्त और अलगाववादियों की बड़ी से बड़ी हिंसक वरदातों पर चुप बने रहते हैं। इन्हें उनके द्वारा इबादतगाहों(मस्जिदों या दरगाहों) के जलाये जाने से लेकर इबादत(नमाज पढ़ते) करते हुए बेकसूर लोगों की जान लेने पर भी कभी कोई गिला-च्चिकवा नहीं रही है। उनके द्वारा खून बहाये जाने पर इन्हें उनकी दरिन्दगी में कतई मानवाधिकारों का उल्लंघन नजर नहीं आता।
अब मुख्यमंत्री अब्दुल्ला ने भी विधानसभा में विधायकों से यह बात अपनी खुशी से नही, बल्कि बड़ी मजबूरी में ही कही है । वैसे वे और उनके पिताश्री डॉ.फारुक अब्दुल्ला भी समय-समय पर ज्यादातर अपनी कुर्सी की सलामती के लिए गाहे-बगाहे ऐसे ही लोगों के साथ अपना सुर मिलाते आये हैं। अब उन्होंने हकीकत बयान की है कि अत्याचार ,खून-खराबा चाहे किसी भी तरफ से हो, हम उसकी निन्दा करते हैं। हमें इकतरफा सियासत बन्द करनी चाहिए।
लेकिन यह भी सच है कि शासन-सत्ता के नरम के रुख के कारण ही अलगावादियों के सरपरस्तों के हौसले इतने बड़े हुए हैं कि उन्हें विधानसभा में बैठकर मुख्यमंत्री अब्दुल्ला के मुँह से निकली इस हकीकत पर भी एतराज हुआ। इन्हीं में से एक निर्दलीय विधायक इंजीनियर रशीद ने उन पर पलट वार करते हुए कहा, सुरक्षा बल हो या आतंकवादी उन्हें नियंत्रित करना भी आपका काम है। सुरक्षा बलों से अनुशासित रहने की उम्मीद की जाती है, आतंकवादी से नहीं। सुरक्षा बलों को हर हाल में जवाबदेह होना चाहिए।'' दरअसल, कश्मीर में ज्यादातर नेता इंजीनियर रशीद सरीखे हैं जो खुद ही आग लगाते और भड़काते हैं। फिर हालात सम्हालने में जरा-सी चूक पर सेना और सुरक्षा बलों को बदनाम करते हैं । हालाँकि बाद में रशीद की बेहूदा हरकतों से आजिज आकर विधानसभा अध्यक्ष के आदेश पर मॉर्च्चल से बाहर कराया गया। वैसे मुख्यमंत्री का इच्चारा अलगाववादी खेमे के साथ-साथ ‘पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी' (पी.डी.पी.)की ओर था।
विधानसभा में भी पाक परस्तों की हिमायत
जम्मू-कश्मीर में पाक परस्त और अलगावादियों की बेजा राष्ट्रविरोधी हरकतों की लम्बी फेहरिस्त है।फिर भी कुछ हाल की घटनाओं का जिक्र जरूरी है। जैसे गत १२मार्च को इन्हीं लोगों ने संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु को फाँसी दिये जाने पर भारी उत्पात मचाया था। जहाँ पी.डी.पी.के वरिष्ठ उपाध्यक्ष ने मौलाना इफ्तिार हुसैन अंसारी ने अफजल गुरु को शहीद कहते हुए उसकी लाश को कश्मीर लाने का प्रस्ताव पारित करने की माँग की और राष्ट्रविरोधी नारे लगाये। इनमें माकपा के विधायक यूसुफ तारीगामी भी शामिल थे ,वहीं इनमें कुछ ने तो अफजल गुरु को ‘शहीद' कहा। यहाँ तक कि राज्य के विधि एवं संसदीय मामलों के मंत्री मीर सैफल्ला के मुँह से ‘अफजल गुरु साहब' का सम्बोधन निकला। इसी मामले में १मार्च को निर्दलीय विधायक इंजीनियर रशीद ने भाजपा के विधायक को थप्पड़ मारा तथा दूसरे दिन विधानसभा का माइक छीना। दूसरे विधायकों ने भी माइक छीने-पोस्टर लहराये तथा सदन का बहिष्कार किया।
हद तब हो गई कि पी.डी.पी.के विधायक निजामदीन भट्ट ने कहा ,’’आज ही फैसला करो कि हमें हिन्दुस्तान में रहना है या नहीं।'' इसके विरोध में ‘जम्मू स्टेट मोर्चा'(जस्मो) , ‘भाजपा' ,’पैंथर्स पार्टी' के विधायकों ने राज्य सरकार पर अलगाववादियों की राह पकड़ने का आरोप लगाते हुए ‘हिन्दुस्तान के खिलाफ साजिश बन्द करो' , ‘विधानसभा भंग करो' ,वन्देमातरम्, ‘भारत माता' का जयघोष किया। उसी समय देश के कई कथित मानवाधिकारवादियों ने भी अफजल गुरु के मानवाधिकारों के हनन की बात करते हुए उसकी लाश को उसके परिवारीजनों को सौंपने की माँगी की थी। इनका यह भी कहना था कि केन्द्र सरकार को अफजल को फाँसी देने से पहले उसके परिवार के लोगों से मिलवाना चाहिए। इन लोगों से कोई यह नहीं पूछता कि क्या इन आतंकवादियों ने भी संसद पर हमले में मरने और घायल होने वालों को भी उनके परिवारीजनों से मिलवाया था ? इसी १३मार्च को श्रीनगर के बेमिना इलाके में स्थित ‘पुलिस पब्लिक स्कूल' में क्रिकेट खिलाड़ियों की पोश क में दो आतंकवादियों ने क्रिकेट के मैदान में सीमा सुरक्षाबलों पर हमला किया था जिसमें पाँच जवानों की जानें गईं थीं और १५जवानों समेत १८ लोग घायल हुए थे। इस मुठभेड़ में दो आतंकवादी भी मारे गए थे। तब इन पाक समर्थक अलगाववादियों ने आतंकवादियों के समर्थन और भारत के विरोध में नारे लगाये थे। तब मुख्यमंत्री अब्दुल्ला भी चुप रहे थे।
ऐसे ही ५ मार्च को बारामूला में हिंसक प्रदर्च्चन के दौरान एक युवक की मौत पर कई दिनों तक पूरी घाटी अच्चान्त बन रही। स्थानीय लोगों का आरोप है कि युवक की मौत जवानों की गोली से हुई है जबकि सेना ने इससे इन्कार करते हुए युवक की मौत को हालात खराब करने की साजिश बताया। इन हिंसक प्रदर्शन में १५ पुलिसकर्मियों समेत ४२ लोग घायल हुए और राज्य सरकार को सेना बुलाने को मजबूर होना पड़ा। इस दौरान अलगाववादियों के साझा मंच ‘मुत्ताहिदा मजलिस-ए-मच्चावरत' ने इस आग में घी डालने में पूरी भूमिका निभायी, यहाँ के ज्यादातर राजनीतिक दल उसके साथ थे।
अब इसी १९ मार्च की रात को सोपोर के दोआबगाह गाँव में सुहेल नामक नाबालिग युवक की आतंकवादियों में मस्जिद में गोली मार कर हत्या कर दी, लेकिन इस वारदात के बाद भी विधान सभा में सन्नाटा पसरा देख मुख्यमंत्री अब्दुल्ला को खीज कर यह कहने का मजबूर होना पड़ा कि अगर यही हादस सुरक्षा बलों के हाथों हुआ होता ,तो कई लोग अपने कपड़े फाड़ रहे होते । लेकिन इस हादसे पर किसी भी तबके के लोगों ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की।
इन्तिहा यह है कि ८ जनवरी को पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा भारतीय सीमा में घुस कर दो भारतीय की हत्या कर सिर काट कर ले जाने पर जब पूरा देश गुस्से में उबल रहा था तब कश्मीर में अलगाववादी पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाते हुए खुच्चियाँ मना रहे थे। इस पर भी कश्मीर और बाकी देश के मानवाधिकारवादी चुप बैठे रहे।
इससे पहले आतंकवादी एक-एक कर कई ग्राम पंचायतों के प्रधानों, सरपंचों तथा दूसरे पदाधिकारियों की जान लेने से लेकर विधायकों तक पर हमले कर चुके हैं लेकिन किसी भी राजनीतिक दल या संगठन ने उनके खिलाफ न जुलूस निकाला और न उनके हमले की निन्दा ही की। इस स्थिति के लिए भी राज्य सरकार जिम्मेदार है। वह भी कहीं न कहीं अलगाववादियों के इरादे के मुताबिक चल रही है। वह राज्य में पंचायत व्यवस्था मजबूत करना नहीं चाहती। इस सुबूत गत २७ फरवरी को ‘ऑल जेएण्डके पंचायत कान्फ्रेस'के चेयरमैन शफीक मीर का बयान है। उन्होंने जुलूस निकाल कर सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा था कि सरकार जानबूझकर पंच-सरपंचों की सुरक्षा के मसले को गम्भीरता से नहीं ले रही है। सरकार वास्तव में पंचायतों को अधिकार दिलाने के पक्ष में नहीं है। पिछले छह माह में आतंकवादियों ने कई पंचायत प्रतिनिधियों को मौत के घाट उतार चुके हैं। क्या उनके मानवाधिकार नहीं थे ? उनका कसूर बस इतना था कि वे अपने प्रान्त में अमन-चैन चाहते थे। वे उनकी तरह पड़ोसी मुल्क में अपनी जन्नत नहीं तलाश रहे थे। जहाँ दहश तगर्दों को मजहब के नाम पर हममजहबियों का खून बहाने से भी गुरेज नहीं है। इन्हीं लोगों ने कई साल पहले सूफी सन्त के दरगाह चरारे शरीफ और दूसरे दरगाहों को जला डाला था। फिर उनके हमदर्दों को इसमें कुछ भी गलत नहीं दिखायी दिया।
कश्मीरी पण्डितों के मानवाधिकार क्यों नहीं दिखायी देते ?
कश्मीरियत के दुहाई देने वालों को कभी उन पाँच लाख से अधिक कश्मीर ब्राह्मणों की याद नहीं आती, जो कोई डेढ़ दश क से अपने घर-द्वार छोड़ कर च्चिविरों और देश के दूसरे इलाकों में जिल्लत भरी जिन्दगी बसर कर रहे हैं। क्या उनके कोई मानवाधिकार नहीं हैं? उनकी जमीन-जायदाद, मकान-दुकान, बाग-बगीचों ,मन्दिरों पर कट्टरपन्थियों और दबंगों ने कब्जा किया हुआ। अरुन्धति राय और उनके साथियों को उनकी परेच्चानियाँ क्यों नहीं दिखायी देतीं।क्या कश्मीर उनका वतन नहीं है? शायद इसलिए कि ऐसा करने पर उन्हें अखबारों तथा टी.वी.चैनलों पर सुर्खियाँ नहीं मिलेंगीं।
क्या पी.डी.पी.की आतंकवादियों को छुड़ाने की साजिश थी?
एक अर्से से इस प्रान्त की मुख्य विपक्षी पार्टी ‘पी.डी.पी.'अप्रत्यक्ष रूप से अलगाववादियों से हमदर्दी जताती आयी है, जब कि इसकी ही नेता महबूबा मुफ्ती की बहन रूबिया का अलगावादियों ने उस समय अपहरण किया, जब उनके पिता मुफ्ती मुहम्मद सईद देश के गृहमंत्री थे। उस समय उनकी बेटी को आतंकवादियों के चंगुल से छुड़ाने के बदले कई दुर्दान्त आतंकवादियों को छोड़ना पड़ा था। इसके बाद भी इस पार्टी की उनसे हमदर्दी बराबर बनी रही है। आखिर ऐसा क्यों है? क्या यह उनके परिवारीजनों की इन आतंकवादियों को छुड़वाने की महज एक चाल थी?
फिर सुरक्षा की जरूरत क्यों?
जम्मू-कश्मीर में केन्द्र सरकार में मंत्री डॉ.फारुक अब्दुल्ला ,उनके बेटे मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला सहित दूसरे राजनीतिक दल, घाटी के अलगावादी ,कुछ कथित मानवाधिकारीवादी राज्य में ‘सश स्त्र बल विच्चेषाधिकार कानून'(अफस्पा)हटाने की वकालत करते हैं ,ये लोग ही स्वयं अपने लिए अधिक से अधिक कड़ी सुरक्षा चाहते हैं। इस साल उनकी सुरक्षा पर डेढ़ अरब रुपए खर्च हुए हैं जो अब कुछ दिनों में दो अरब होने को है। अगर राज्य में सब कुछ ठीक-ठाक है तो क्यों नहीं अपनी सुरक्षा हटाने की माँग करते?आखिर उन्हें किससे खतरा है? वैसे इस मामले में सेनाध्यक्ष विक्रम सिंह का जवाब सही है कि हमें कश्मीर में मरने में मजा नहीं आ रहा है। वहाँ इसलिए हैं, क्यों कि हमें ऐसा करने का आदेश है।
क्या राष्ट्र विरोधियों के ही मानवाधिकार हैं?
अपने देश में कमोबेश रूप में यही हाल दूसरे तथाकथित मानवाधिकारवादियों का है, जिन्हें सुरक्षा बलों या पुलिस के अत्याचार ,दमन, हिंसा तो नजर आती हैं लेकिन नक्सलियों के झारखण्ड ,छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में हुए बड़े से बड़े खून-खराबे दिखायी नहीं देते। ऐसे लोग अपने क्षुद्र आर्थिक हितों या विदेच्चों से पुरस्कार और दूसरी सुविधाएँ पाने के लालच में बड़े से बड़ा झूठ बोलने को तैयार रहते हैं। हकीकत में चन्द अँग्रेजी दा पच्च्िचम पलट लेखकों का यह शगल बना हुआ कि देश के खिलाफ जो भी काम करे ,वह उनका नायक है और जो उसके हित के लिए लड़े वह खलनायक और मानवाधिकारों का हन्ता हो जाता है। अरुन्धति राय जैसे कई दूसरे लोग हैं जिन्हें आज तक किसी आतंकवादी ,अलगाववादी ,कट्टरपंथी में कोई खोट और कसूर नहीं दिखायी दिया, तभी तो आज तक कश्मीर समेत देश के किसी भी हिस्से में बम विस्फोट कर या गोली मार कर बेकसूरों की जान लेने वालों के खिलाफ एक लफ्ज तक इनकी जुबान पर नहीं आया। उनके हिसाब से कश्मीर समेत कई राज्य भारत के अंग नहीं हैं। शर्म की बात यह है कि हम फिर भी ऐसे लोगों को बर्दाच्च्त करते चल जा रहे हैं।
सम्पर्क- डॉ.बचन सिंह सिकरवार
६३ ब,गाँधी नगर, आगरा-२८२००३
मो.न.९४११६८४०५४
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