जरूरी है राष्ट्रगान के अपमानकर्ताओं को यह याद दिलाना



डॉ. बचन सिंह सिकरवार
हाल में श्रीनगर में विश्वविद्यलय में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अल्तमश कबीर और अन्य गणमान्यों की उपस्थिति में बड़ी संख्या में सिरफिरे छात्रों द्वारा राष्ट्रगान का अपमान करने की घटना अत्यन्त गम्भीर और क्षोभजनक है। जब मुख्यन्यायाधीश और उनके साथी राष्ट्रगान के समय उसके सम्मान में खड़े हुए थे तब अधिकांश छात्र केव


बैठे रहे, बल्कि बराबर शोरशराबा (हूटिंग) करते रहे। इस गम्भीर मसले पर  विश्वविद्यालय के जनसम्पर्क अधिकारी का कहना है यह तो यहाँ की आयेदिन की बात है इसे तूल देने की जरूरत नहीं है। यहाँ इन छात्रों की इस हरकत वे कथित मानवाधिकार समर्थक और विशेष सैन्य अधिकार (आस्फा) हटाने की माँग करने वाले क्या कहेंगे? इस देशद्रोहपूर्ण कृत्य की ओर हमें अपनी आँखें मूँद लेनी चाहिए या इन कथित कश्मीर की आजादी या पाकिस्तान के हिमयातियों से सवाल करना चाहिए। अगर उन्हें इस मुल्क में नहीं रहना है तो शौक से पाकिस्तान समेत दुनिया में जहाँ जन्नत नजर आये, वहाँ वे तशरीफ ले जाएँ। यह कश्मीर अकेले उनके बाप का नहीं है, जितना उनका है उससे ज्यादा देश के दूसरे लोगों के बाप का ही नही ,उनके दादा- परदादों का भी  है जिन्हें उन्हीं जैसी मानसिकता वाले  इन्सानियत के दुश्मनों की दहशतगर्दों ने मजहबी परस्ती के आड़ में उन्हें अपने घर-द्वार छोडने को मजबूर किया हुआ है। फिर पूरे जम्मू-कश्मीर में उनसे जैसी मानसिकता के सारे लोग नहीं हैं। उन्हें पाकिस्तान के जन्नत की हकीकत और भारत में बने रहने के फायदे पता हैं। वैसे भी जम्मू और लददाख में उन जैसा शायद ही कोई मिले। कश्मीर घाटी में भी सभी उन जैसे नहीं हैं फिर हिन्दुओं का हिस्सा क्यों और कैसे छिन लेंगे?
 
इन भटके हुए और अपने देश को ही अपना दुश्मन मानने-समझने वाले छात्रों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि अगर यही काम वे चीन सरीखे किसी गैर मुल्क में करते तो उनकी खैरियत नहीं थी। वे जिस पाकित्सान की गोद में जाने को बेताब हैं। उन्हें पाक अधिकृत कश्मीर (उनकी निगाह में कथित आजाद कश्मीर) की जमीनीं हकीकत पता कर लेनी चाहिए। जहाँ के लोग आज भी दोयम दर्ज की जिन्दगी बसर कर रहे हैं और उनका इलाका विकास से कोसों दूर है। कश्मीर के जिस हिस्से पर गैरकानूनी तरीके  से पाकिस्तान कब्जा किये हुए उसका भी एक बड़ा हिस्सा वह अपने आका चीन को तौहफे में दे चुका है। देश के विभाजन के वक्त यहाँ विभिन्न भागों से जो लोग पाकिस्तान को जन्नत समझ कर गए थे वे आज  ६५ साल बाद भी  दोजख सरीखी जिन्दगी जी रहे हैं और अपने पुरखों की गलती पर पछता रहे हैं। जिन्हें आज भी वहाँ के लोग बड़ी हिकारत से  मुहाजिर' कहते हैं। उनके साथ हर जगह भेदभाव होता है। जिस पाकिस्तान की स्थापना का मकसद इस्लाम के मानने वाले की हिफाजत था उसमें इस्लााम तो क्या ? यह मुल्क अपने हुक्मरानों/रहनुमाओं की भी हिफाजत करने में नाकाम रहा। उनकी जान किसी गैर मजहब वाले नहीं ,खुद हमजहबियों ने ही ली है। आज भी पाकिस्तान में शायद ही कोई दिन ऐसा गुजरता होगा, जिस दिन मजहबी कट्टरपन्थी एक-दूसरे या फिर अपने ही मजहब के बेकसूर बन्दे के खून से होली खेलते हों।
यहाँ दूसरे मजहबों वालों  की तो बात ही छोड़िए, उनका तो हर दिन की दहशत में गुजरता है। उनकी जायदाद महफूज और उनके बीवी-बच्चें। सच्ची- अच्छी और सही बात कहने वाले की यहाँ खैर नहीं है। यहाँ तो इस्लाम के मानने वाले भी दहशतगर्दी से आजिज चुके हैं। सन्‌ १९७१ में पूर्वी पाकिस्तान के लोगों को पाकिस्तान से मजबूरी में अलग होना पड़ा, जिनके साथ उन्हीं के मजहब वालों ने उनकी लाखों महिलाओं के साथ बलात्कार करने के साथ-साथ उनका बड़े पैमाने पर नरसंहार  किया। अब +भी पाकिस्तान में शियाओं को चुन-चुन कर मारा जा रहा है। उनकी मस्जिदें और दरगाहों जलाया और तबाह किया जा रहा है। अहमदिया, कदियानी ,बोहरा आदि को तो इस्लाम से ही बाहर कर दिया गया है। बलूचों के साथ दुश्मनों से भी बदतर बर्ताव हो रहा है इस कारण वे बन्दूक उठा कर अपनी आजादी की जंग लड़ रहे हैं। खैबर पख्तूनव्वा के पठान शुरू से पाकिस्तान में शामिल होने की  मुखालफत करते आये हैं उनके नेता सीमान्त गाँधी खान अब्दुल गफ्फार और उनके बेटे की सारी जिन्दगी जेल में ही गुजरी। ये पठान भी मजबूरी में पाकिस्तान में रह कर अपने को बेगाना समझाते हैं। ये छात्र और दूसरे लोग आये दिन सेना पर पत्थरबाजी कर उन पर अत्याचार के झूठ आरोप लगाने  वाले जिस कश्मीर की आजादी का ख्वाब देख रहे हैं उनकी समझ में इतनी-सी बात समझ में नहीं आती है कि उनका आका पाकिस्तान तो उनके कश्मीर से कई गुना बड़ा है जब वह ही अमरीका और चीन की गुलामी तथा उनकी खैरात के बगैर जिन्दा नहीं रह सकता, तो उनकी कश्मीर घाटी की तो बिसात क्या है ? हकीकत यह है कि अगर केन्द्र कश्मीर को विशेष अनुदान दे ,तो वहाँ की सरकार रोजमर्रा के कामकाज का खर्चा  चलाने को भी तरस जाए। वे जिस देश के राष्ट्रगान, राष्ट्रगीत और तिरंगे का अपमान करते रहे हैं उसी को आदर-सम्मान देने वालों के करों के धन से उनकी रोटी और पढाई चल रही है। अगर वे आजादी से सुकून साँस लेते अपने ही मुल्क को कोस रहे हैं तो यह अपने आका पाकिस्तान की बदौलत नहीं, भारत के कौने-कौने से सेना में शामिल सैनिकें के बूते है।
दरअसल, अपने देश में इस तरह की मुल्क विरोधी हरकतों की को हम अपनी सियासी फायदे को देखते हुए चुप रह जाते हैं इससे ऐसे तत्त्वों के हौसले बढ़े हुए हैं। इसलिए कुछ लोग कश्मीर घाटी में राष्ट्रीय प्रतीकों के अपमान के साथ-साथ भारत विरोधी और पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगते रहते हैं। सरकार ऐसे तत्त्वों से सख्ती निपटने के बजाय उन्हें हर की तरह सुविधाएँ और सुरक्षा प्रदान करती आयी है। कुछ समय पहले उ.प्र.के सम्भल से बसपा के सांसद शफीकुर्रहमान बर्क संसद सत्र में राष्ट्रगीत वन्देमातरम्‌ के गायन के समय बाहर चले गए। उनका तर्क था कि इस्लाम इसकी इजाजत नहीं देता, जबकि ये जनाब कई बार के सांसद हैं। क्या इन्हें यह अब ख्याल आाया कि इससे इस्लाम की तौहीन हो जाएगी। अगर उन्हें अपनी मजहब की इतनी ही फिक्र है तो क्या उनके बाप-दादा कहेंगे कि बेटे सांसदी करो। अगर वे राजनीति करेंगे और संविधान की कसम खाकर संसद-विधानसभा समेत सरकारी सेवाओं  में दाखिल होंगे, तो उन्हें संविधान में दर्ज प्रतीकों सम्मान करना ही होगा। अपने देश में ऐसे सिरफिरों को अभी तक नमूने की सजा नहीं दी गयी है जिसकी वजह से ऐसी घटनाएँ बार-बार होती रहती हैं। ऐसे लोग जम्हूरियत तथा सेक्यूलरिज्म की सहूलियतें और दूसरे फायदे तो सबसे ज्यादा चाहते हैं लेकिन उसके कायदे-कानून मानने की बात आने पर वे मजहब की दुहार्ह देने लगते हैं। उन्हें यह समझाने का वक्त गया है कि इस मुल्क के लोग उनकी इन बेजा हरकतों और दोगले रवैये को अब ज्यादा देर तक बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं।
सम्पर्क -डॉ.बचन सिंह सिकरवार ६३ ,गाँधी नगर,आगरा-२८२००३
मो.न. ९४११६८४०५४

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