फिर बेनकाब हुई कश्मीर की सियासत
डॉ.बचन सिंह सिकरवार
जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल सत्यपाल मलिक द्वारा विधानसभा के भंग किये जाने के निर्णय और भाजपा नेता राम माधव के पाकिस्तान के इशारे पर परस्पर घोर विरोधी राजनीतिक पार्टियों के मिलकर राज्य में महागठबन्धन सरकार के गठन के आरोप के प्रत्युत्तर में पूर्व मुख्यमंत्री द्वय महबूबा मुफ्ती तथा उमर अब्दुल्ला का राज्यपाल पर केन्द्र सरकार के कहने पर चलने के आरोप के साथ-साथ राम माधव को अपना आरोप को साबित करने की चुनौती या माफी माँगने को भी कह रहे हैं, सम्भव है कि इन दोनों के सभी के ये आरोप सच हांे, लेकिन राज्य में भाजपा समर्थित सरकार के गठित होता देख चिर राजनीतिक प्रतिद्वन्द्विता /मतभेद /कटुता/बैर-भाव /दुश्मनी को भुलाकर एकाएक एकजुट होने को भी कोई साफ-सुथरी राजनीति नहीं कहा जा सकता, जिसकी अब ये सभी दुहाई दे रहे हैं। जब भाजपा ने अपनी धुर विरोधी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी(पी.डी.पी.) की असलियत जानते हुए भी राज्य में साझा सरकार बनायी थी, तब काँग्रेस समेत नेशनल कॉन्फ्रेंस(ने.कॉ.)ने उसकी यह कह कर कटु आलोचना की थी कि सत्ता के लिए भाजपा ने अपने सिद्धान्तों से समझौता किया है। लेकिन आज वही काँग्रेस, ने.कॉ., पी.डी.पी., माकपा आदि को भाजपा के खिलाफ इकट्ठे होने में कुछ भी गलत नहीं दिखायी दे रहे हैं। हालाँकि इसके लिए ये सभी अनुच्छेद 370 तथा विशेष रूप से अनुच्छेद 35ए को बचाने की बात कह रहे है जिसे लेकर सर्वोच्च न्यायालय दाखिल याचिका पर सुनवायी चल रही है। इन्हीं अनुच्छेदों के कारण जम्मू-कश्मीर की स्थिति वर्तमान में देश के अन्य राज्यों से भिन्न बनी हुई है और वहाँ जाकर भारत के दूसरे राज्यों के रहने वालों को बसना सम्भव नहीं है। अब से पहले जब भाजपा ने पी.डी.पी.के साथ बनायी साझा सरकार से अलग होने /गिराने के बाद उसका विभाजन कराके पुन.सरकार बनाने की कोशिश की, तब महबूबा मुफ्ती ने धमकी थी कि अगर ऐसा हुआ तो जम्मू-कश्मीर भारत के साथ नहीं रहेगा। इसके बाद भी न भाजपा ने उनकी आलोचना की और न काँग्रेस सहित देश के किसी दूसरे राजनीतिक दल ने ही,क्योंकि कहीं ऐसा करने से देश के मुसलमान उनकी पार्टी से नाराज न हो जाएँं। इनके इस रवैये से देश की सियासी पार्टियाँ का चाल-चरित्र और उनकी रीति-नीति को आसानी से समझा जा सकता,जिनके सत्ता ही सब कुछ है, जिसके जरिए देश और उसके लोगों को आसानी से लूटा जा सकता है। कश्मीर की सियासतदां पार्टियाँ इस लूटपाट में सिद्धहस्त और सिरमौर हैं, जिनका मकसद सिर्फ अपने परिवार और हममजहबियों को फायदा पहुँचना भर है। ये सभी लोकतांत्रिक व्यवस्था का लाभ लेकर राज्य में इस्लामिक मुल्क का मार्ग प्रशस्त करने में जुटी हैं।
वैसे सत्ता पाने और उसमें बने रहने के मामले में भाजपा भी देश की बाकी सियासी पार्टियों से किसी भी माने में भिन्न नहीं है, क्योंकि उसने भी जनादेश की आड़ में न केवल पी.डी.पी.के साथ साझा सरकार बनायी, बल्कि सत्ता में रहते हुए उसने अपने समर्थक मतदाताओं से किये सभी वायदों को पूरी तरह से भुला-सा दिया। इससे उन्हें भाजपा से गहरी निराशा मिली है जिसके सत्ता में भागीदार बनने से बेहद उत्साहित थे। बाद में भाजपा ने राष्ट्रहित के बहाने साझा सरकार से समर्थन वापस ले लिया। अब फिर वह पी.डी.पी.में विभाजन कराके सत्ता हासिल करने की जुगत भिड़ा रही थी, किन्तु ने.कॉ.के नेता तथा पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को यह गंवारा नहीं था कि भाजपा फिर से सत्ता में आए और वह तथा उनकी पार्टी सत्ता से महरूम रह जाए ,इसके लिए उन्होंने अपनी चिर प्रतिद्वन्द्वी महबूबा मुफ्ती को बिना शर्त समर्थन दे दिया। इस तरह इस्लामिक कट्टरपन्थी पार्टियों के एकजुट होने से भाजपा के मन्सूबे धरे के धरे रह गए। इस राज्य के घटनाक्रम ने जहाँ पी.डी.पी. की कमजोरी को जाहिर कर दिया, वहीं काँग्रेस ने अपने अलगाववादियों तथा पाकपरस्त पार्टियों की हमदर्द, साथी-सहयोगी होने की मुहर एकबार फिर लगा दी है।
वैसे क्या यह सच नहीं है कि पी.डी.पी., ने. कॉ., पीपुल्स कॉन्फ्रेंस समेत सभी पार्टियाँ कश्मीर समस्या के हल के लिए हमेशा न केवल केन्द्र सरकार पर पाकिस्तान से बातचीत करने को दबाव बनाती आयी हैं, वरन् अलगावादियों की भी खुलकर हिमायत करती रही हैं। इनमें से किसी भी पार्टी ने आज तक जम्मू-कश्मीर में अलगाववादियों का हर तरह से समर्थन करते हुए अपने घुसपैठिये भेजकर अशान्ति तथा रक्तपात कराने के लिए पाकिस्तान को कभी जिम्मेदार नहीं ठहराया है। यहाँ तक कि महबूबा मुफ्ती की पार्टी पी.डी.पी.तथा उमर अब्दुल्ला की ने. कॉ. ने कभी अलगाववादी नेताओं और उनके उन समर्थकोें की निन्दा/भर्त्सना ही की है, जो अक्सर आतंकवादियों से सुरक्षा बलों की मुठभेड़ के समय और शुक्रवार की नमाज के बाद पाकिस्तान एवं खूंखार आतंकवादी संगठन आइ.एस.के झण्डा लहराते हुए ’हिन्दुस्तान मुर्दाबाद’, ’पाकिस्तान जिन्दाबाद’ के नारे लगाते हुए पत्थरबाजी करते आए हैं। महबूबा मुफ्ती ने तो मुख्यमंत्री रहते हजारों की संख्या में इन पत्थरबाजों के खिलाफ लगे मुकदमे वापस लिए थे। इनमें से पी.डी.पी. की नेता महबूबा मुफ्ती खुलकर अलगाववादियों की खुलकर हिमायत करती आयी हैं, ऐसा करने में उन्हें कुछ भी अनुचित दिखायी नहीं देता। उनकी प्रतिद्वन्द्वी पार्टी ने.कॉ. अपनी राजनीतिक सुविधा के अनुसार भारत तथा पाकिस्तान, अलगाववादियों, आतंकवादियों को लेकर अपना रुख/रवैया बदलती रहती है। इस राज्य की राजनीतिक सच्चाई यह है कि यहाँ सभी राजनीतिक पार्टी कहने-दिखाने को भले ही अपने को अलग-अलग दिखाती हैं, किन्तु इन सभी का एक ही मकसद है इस सूबे को किसी तरह से ’दारुल इस्लाम’ बनाना है। ऐसा चाहे पाकिस्तान का कब्जा करके हो या फिर स्वतंत्र इस्लामिक जम्मू-कश्मीर मुल्क बना कर। खेद की बात यह है कि अपने को राष्ट्रीय पार्टी बताने वाली काँग्रेस भी इनकी असलियत जानते हुए भी समय-समय पर न केवल इन दोनों के साथ साझा सरकार बना चुकी है, बल्कि अलगाववादियों और उनके पत्थरबाज समर्थकों की खुलकर मुखालफत करने से बचती रही है। यहाँ तक कि इनके नेता सुरक्षाबलों की आलोचना करने से भी नहीं चूकते। जहाँ काँग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद और सैफुद्दीन सोज ने सेना पर कश्मीरियों पर अत्याचार और उत्पीड़न करने आरोप लगाया, वहीं दिल्ली से काँग्रेस के सांसद रहे यहाँ की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पुत्र संदीप दीक्षित ने कश्मीर के अलगावादियों को चेतावनी देने पर सेनाध्यक्ष को ’गाली गुण्डा’ कहने से भी नहीं चूके।
जहाँ तक जम्मू-कश्मीर की विधानसभा का प्रश्न है कि तो इस्लामिक कट्टरपन्थियों ने इसमें सदस्यों की संख्या का गणित ऐसा तैयार किया जिसमें हर हाल में सत्ता की बागडोर मुसलमान के हाथ में ही रहे। यही कारण है कि देश की आजादी के बाद से आज तक इस राज्य में कोई हिन्दू मुख्यमंत्री नहीं बन पाया है। इसकी वजह कम आबादी के बावजूद कश्मीर घाटी में विधान सभा की अधिक सीटें होना है, जहाँ बहुसंख्यक आबादी मुसलमानों की है,यहाँ थोड़े हिन्दू थे भी,उन्हें इस्लामिक कट्टरपन्थियों में नब्बे के दशक में जोर-जबरदस्ती से निकाल दिया है । यहाँ की विधानसभा में कुल 87 सीटें हैं। वर्तमान में इधर पी.डी.पी.के अपने 28, नेशनल कॉन्फ्रेंस के 15, काँग्रेस के 12 तथा तीन निर्दलीय उसके पक्ष में हैं। उधर भाजपा के 25,पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के 2और एक निर्दलीय1 का समर्थन मिला हुआ था।वह पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के सज्जाद लोन के नेतृत्व में भाजपा समर्थित सरकार बनाना चाहती है, जिसका दारोमदार पी.डी.पी.के कद्दावर नेता मुजफ्फर बेग की अगुवाई में 18 विधायकों की टूट पर टिका हुआ था, जो महबूबा मुफ्ती से विभिन्न कारणों से नाराज बने हुए हैं। इसी कारण विधानसभा भंग किये जाने पहले पी.डी.पी के एक दूसरे वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री इमरान रजा अंसारी पीपुल्स कान्फ्रेंस में शामिल हो गए।अब राज्यपाल के विधानसभा के भंग के बाद आगामी 21दिसम्बर के बाद राष्ट्रपति शासन लगना और फिर इसके तहत ही विधानसभा चुनाव होना तय है। लेकिन कश्मीर पण्प्रिाचीन नाम लौटाने पर इतना विरोध क्यों?
डॉ.बचन सिंह सिकरवार
पिछले दिनों जब से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने फैजाबाद तथा इलाहाबाद को उनके अति प्राचीन, पौराणिक, धार्मिक नाम क्रमशः अयोध्या तथा प्रयागराज लौटाए हैं जिनके उल्लेख हजारों साल पुराने ग्रन्थों में रहा है तब से लेकर कुछ लोगों द्वारा लगातार उत्तर प्रदेश को यह कह कर विरोध किया जा रहा है वह भगवाकरण कर रही है। इन्हंे लेकर विलाप-प्रलाप करते हुए ऐसा शोर और हाहाकर मचाया जा रहा है, जैसा देश में ऐसा पहली बार हुआ। सही बात यह है कि योगी सरकार ने विदेशी/विधर्मी आक्रान्ताओं/शासकों द्वारा भारतीयों की धार्मिक, राजनीतिक भावनों का दमन करने के इरादे से इन स्थानों के प्राचीन नामों को बदला , बल्कि उनके धार्मिक स्थलों का विध्वंस कर उनकी जगह अपने इबादतगाहों का निर्माण कराने के साथ-साथ तलवार के जोर पर लोगों का धर्मान्तरण भी कराया। कालान्तर में सत्ताएँ बदलती रहीं, पर लोकमानस में ये नाम अमिट बन रहे। ये स्थानों के नाम केवल नामभर नहीं हैं, बल्कि उनकी पृष्ठभूमि में गुण-धर्म, धार्मिक महŸव तथा उनका इतिहास भी समाहित है। अब योगी सरकार ने स्वतंत्रता के सात दशक बाद गुलामी की प्रतीक इन नामों को खत्म कर उचित एवं साहसिक कदम उठाया, जो देश की बहुसंख्यक लोगों की भावनाओं की अनुकूल है। वैसे भी अपने देश में विदेशी हमलावर समय-समय पर स्थानीय लोगों के स्वाभिमान, गौरव,गरिमा, उनकी पहचान का मिटाकर अपनी पहचान बनाने को सदियों से नगर, स्थानों के नाम बदलते और उनके धार्मिक, सामाजिक आस्था के केन्द्र का विध्वंस/परिवर्तित कर उनके स्थान पर अपने बनाते आए है। सदियों के पराधीनता के कारण आज भी देश भर में ज्यादातर शहरों और स्थानों के नाम हमलावारों के नाम पर बने हुए है, जो हमें चिढ़ाते हुए से लगते हैं। अब देश के स्वतंत्रत होने के बाद भी सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों की भी कुछ ऐसी ही मानसिकता रही है, तभी तो वे किसी स्थान, संस्थान, मार्ग आदि का नाम परिवर्तित करते, नामकरण करते समय जनता की भावना जानने का प्रयास न करते हुए अपनी मनमानी करते आए हैं। जो सत्ता बल का दम्भ विदेशी आक्रान्ताओं में था, वैसा ही वर्तमान में सभी राजनीतिक दलों के नेताओं/मंत्रियों में है। ये लोकतंत्र का राग अवश्य आलापते रहते हैं, किन्तु इनकी कार्य प्रणाली पूर्णतः सामन्ती/एकाधिकारीवादी है। ये जनभावनाओं या राष्ट्रीय हित या उसके गौरव के स्थान पर सदैव अपनी राजनीतिक आवश्यकताओं /फायदों को ही तरजीह देते आए हैं। इधर पं्राचीन नगरों के नाम वापसी पर मीडिया के दुष्प्रचार से प्रभावित लोग यह कहकर आलोचना कर रहे हैं, कि इससे क्या विकास हो जाएगा?क्या वहाँ की बेरोजगारी मिट जाएगी?ऐसे बेहूदा सवाल उठाने वालों को न तो इतिहास का ज्ञान हैं और न उनका राष्ट्रीय गौरव से कुछ लेना-देना ही है।
इससे पहले भी कुछ पार्टियाँ अपने जातिवादी राजनीतिक उद्देश्यों के लिए प्रदेश भर में कई प्रख्यात विश्वविद्यालयों, हवाई अड्डांे, मेडिकल कॉलेजों, राजमार्गों, पार्कों, गली, मुहल्लों, जनपदों के नाम बदल गए और कुछ नए बना कर उनके नाम उन व्यक्तियों के नाम पर रखे गए, जिनका उनसे दूर-दूर तक नाता नहीं था, पर जातिवादी राजनीति और थोक वोटों के कारण तब व्यक्ति तो क्या किसी राजनीतिक दल तक ने मुखालफत करने की हिम्मत नहीं दिखायी और किसी छाती पर पत्थर रखे शान्त रहे। इसके बाद अपने राजनीतिक एजेण्डे के तहत ही भाजपा के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह और सपा के मुख्यमंत्री मुलायमसिंह यादव ने उनमें से कुछ के नामों को वापस दिया, किन्तु विश्वविद्यालय और दूसरे संस्थानों के नाम बदलने का साहस नहीं दिखा पाए,क्यों कि दूसरे राजनीतिक दलों ने अपने राजनीतिक उद्देश्यों से अवध विश्वविद्यालय, मेरठ विश्वविद्यालय, आगरा विश्वविद्यालय समेत कई विश्वविद्यालयों आदि के नाम जो बदले हैं। जो जनसंचार माध्यम(मीडिया) विशेष रूप समाचारपत्र/टी.वी.चैनल आज नामकरण के मुद्दे बहस-मुबाहिसे आयोजित कर रहे थे, तब इनमें से कोई भी अपने ऊपर एक जाति/समुदाय के हमलावार कार्रवाई के डर से एक शब्द भी लिखने से कतरा रहे थे। उस दौरान उन राजनीतिक दलों की सरकारों के रहते कहीं से किसी ने जुबान खोलना, आन्दोलित होना तो बहुत किसी भी तरह विरोध तक जहमत तक नहीं दिखायी,क्यों कि उन्हें तब अपने विरोध का अंजाम पता था। हैरानी की बात यह है कि आज एक ओर तो ये दल प्रधानमंत्री से लेकर हर किसी को जीभर के गरिया रहे हैं और दूसरी ओर अब वामपंथी और तथाकथित सेक्यूलर तबका केन्द्र और राज्य की भाजपा सरकारों पर आपतकाल जैसा माहौल बनाये जाने के झूठे आरोप लगा रहा है। जहाँ तक अपने नाम राजनीतिक उद्देश्यों के लिए प्रसिद्ध स्थानों, नगर, संस्थानों, मार्गों के नाम जनभावना की अनदेखी करने का प्रश्न है तो इसमें दूसरे राजनीतिक दलों की तरह भाजपा भी बराबर की दोषी है,जिन जातियों/समुदायों के वोट लेने हों, तब वह जातिवादी राजनीतिक दलों नाम बदलने पर चुप्प रहती है, बल्कि मौका आने पर स्वयं भी जातिवादी एजेण्डे के तहत खुद भी बदलती आयी है।
अब नाम वापसी या बदले जाने को सबसे ज्यादा उद्वेलित, आन्दोलित काँग्रेस, बसपा, वामपन्थी, मुस्लिम समुदाय के कुछ नेताओं/मुल्ला-मौलवियों का सवाल है, तो इनमें से किसने बम्बई के पुराने नाम मुम्बई,पूना से पुणे, कलकत्ता का कोलाकाता, मद्रास शहर का नाम चैन्नई तथा प्रदेश का तमिलनाडु, त्रिवेन्द्रम को तिरुअनन्तपुरम, पण्डीचेरी को पुड्डीचेरी, उड़ीसा को ओडिसा, असम का ओसाम समेत न जाने कितने जगह, संस्थानों, मार्गों के नाम परिवर्तित किये गए हैं, पर कभी किसी ने ऐसा विरोध नहीं जताया। देशभर में सबसे अधिक नाम नेहरू-गाँधी परिवार के नेताओं के नाम पर रखे गए हैं। इसके बाद सभी राजनीतिक पार्टियों की सरकारों में एक दलित समुदाय के एकमुश्त के वोट पाने के लिए उसके एक नेता के नाम पर रखे जाने की होड़-सी़ लगी है।कुछ नेताओं को बस चले तो नोटों पर गाँधी जी को प्रतिस्थापित कर उनका चित्र ही छाप दें या फिर भारत का नाम बदल कर उनके नाम रख दें। इस मामले में भाजपा सबसे आगे है, ताकि बसपा, काँग्रेस से उनके वोट हथिये जा सकें। विपक्ष में रहते हुए जो भाजपा नामकरण को लेकर काँग्रेस पर सदा हमलावर रहती थी। अब उसे अपनी पार्टी के एक नेता या दलित समुदाय के नेता के सिवाय किसी दूसरे नेता या क्रान्तिकारी का नाम किसी संस्था या स्थान का नामकरण करते समय नहीं सूझता। जम्मू-कश्मीर में विशेष रूप से कश्मीर घाटी में कई स्थानों, धार्मिक स्थलों, कस्बों, नदियों, पहाड़ों आदि के नामों का इस्लामीकरण किया जा रहा है जैसे -कृष्णा घाटी को नीलम घाटी,श्रीनगर के पास स्थित शंकराचार्य की पहाड़ी का नाम सुलेमान टॉप, इत्यादि, किन्तु देश के किसी राजनीतिक दल को इसकी कोई परवाह नहीं,क्यों कि हिन्दू के संगठित न होने के कारण उसका एक मुश्त वोट बैंक जो नहीं है। इधर भाजपा के एक विधायक द्वारा आगरा शहर का नाम ‘अग्रवन‘ रखे जाने का सुझाव दिया है, जो महाभारत काल में होने की बात कही जाती है। लेकिन उन्हें आगरा विश्वविद्यालय को उसका पुराना नाम लौटाना की ख्याल नहीं आया,क्यों कि ऐसा करने से उनके और उनकी पार्टी के वोट बैंक जो प्रभावित होगा। आशा करनी चाहिए कि भविष्य में जब भी किसी नगर, जगह , कॉलेज, विश्वविद्यालय का नामकरण करें, तो राजनीतिक दलों को जनता की भावना ख्याल जरूर रखना चाहिए।
सम्पर्क- डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63 ब, गाँधी नगर,आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054
डतों की घर वापसी और उनकी सुरक्षा ,अनुच्छेद 370 अनुच्छेद 35ए की समाप्ति ,कट्टरपन्थियों की अलगाववादियों की हरकतों पर लगाने , जम्मू,लद्दाख के लोगों के साथ होने वाले भेदभाव तथा विकास की उपेक्षा, सूबे का सर्वांगीण विकास जैसी कई समस्या जस-तस रह गयी है,उनका समाधान कैसे होगा?यह प्रश्न भविष्य में भी उठता रहेगा।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003मो.नम्बर-9411684054
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