‘तंत्र‘ के आगे अब भी बेबस और लाचार है ‘गण‘
गणतंत्र दिवस पर विशेष
डॉ. बचन सिंह सिकरवार
यूँ तो अपने देश में हजारों साल पहले से ‘गणतंत्र‘ रहा था, जो यहाँ जन्मा और खूब फला-फूला भी। यह दो शब्दों ‘गण‘(जन/आम आदमी) तथा ‘तंत्र‘(व्यवस्था)से मिलकर बना है। पराधीनता काल में यह भले ही अपने रूप में पूर्व न रहा हो, पर अपने यहाँ किसी न किसी रूप में कहीं न कहीं बना रहा। वैसे हम यहाँ चर्चा कर रहे हैं देश के वर्तमान ‘गणतंत्र‘/गणतांत्रिक व्यवस्था की, जो अब सरसठ साल का हो गया, इसका हर साल बड़े जोर-शोर से उत्सव( जश्न) भी मनाया जाता रहा है जिसमें ‘गण‘ को उसका अभिन्न हिस्सा और उसका स्वामी होने का गर्व होता है। इसी अहसास के सहारे ‘गण‘ हर बार उसके उत्सव में अपने को सम्मिलित कर लेता है कि कभी तो वह दिन आएगा, जिस दिन यथार्थ में यह ‘गणतंत्र‘ उसका तंत्र बनेगा। यह तंत्र उसके दुःख-दर्द, कष्ट-कठिनाइयों, छोटी-बड़ी समस्याओं से .त्राण(मुक्ति/छुटकारा) दिलाने के साथ-साथ उसी के हित में कार्य करेगा। उस दिन ‘गण‘ को अपने अधिकार और न्याय पाने को दर-दर भटकने को विवश नहीं होना पड़ेगा। वह उसकी इच्छा तथा उसके कष्टों के निवारण हेतु उसके द्वार आएगा।
वैसे इतने साल में:तंत्र‘ के सहयोग/सहायता से ‘गण‘(जनसाधारण) को हर तरह से इतना सुदृढ़ और शक्तिशाली हो जाना चाहिए था कि कोई उसका न कुछ अहित कर सके और न ही कुछ बिगाड़ सके। उसके सभी अधिकार पूरी तरह सुरक्षित होते, जिनका उपयोग वह निर्बाध कर पाने में सक्षम होता। उसे मानव जीवन के लिए वांछित गौरव, गरिमा, आत्मसम्मान और स्वतंत्रता के साथ जीवन जीने का अधिकार प्राप्त हो गया होता। उसे स्वतंत्रता और समानता का अनुभव भी प्राप्त हो चुका होता। उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही नहीं, उसके कहे पर ‘तंत्र‘ अपेक्षित ध्यान देने और उसके निर्देशों का अनुपालन भी करता होता। दुर्भाग्य की बात यह है कि इसके विपरीत इस अवधि में ‘गण‘ के लिए बनाया गया ‘तत्र‘ ही उसका सबकुछ(मालिक) बन बैठा और उसने उसके अधिकारों का हरण (हथिया) कर लिया है। दूसरे शब्दों मंे वह ही उसका ‘भाग्यविधाता‘ ही बन बैठा है। इतना समय गुजर जाने के बाद ‘गणतंत्र‘‘ न केवल अपने सही लक्ष्य से भटक गया है, बल्कि अपना समूल विनाश करने पर उतर आया है। आज हालात ये हैं कि अपने लिए बनाये गए ‘तंत्र‘ के आगे ‘गण‘ पूरी तरह न केवल नतमस्तक है, वरन् उसके आगे बुरी तरह बेबस और हर तरह से लाचार भी है। उसका कोई भी काम बगैर अपने तंत्र के समक्ष अपना मान-सम्मान गंवाने के साथ-साथ ‘पत्र -पुष्प‘(रुपए) भी अर्पित किये नहीं होता है, जो इस निर्दयी व्यवस्था में उसने किसी तरह से अपना खून-पसीना बहाकर जैसे-तैसे कमाये होते हैं। देश में आजकल विभिन्न समस्याओं यथा-दलित विमर्श,स्त्री विमर्श इत्यादि का चलन है,पर ‘गणतंत्र‘ में ‘गण‘ की ही उपेक्षा, निरीहता, निर्बलता और दुर्दशा पर विमर्श नहीं।
विडम्बना यह है कि इस निरंकुश, संवेदनहीन, हृदयहीन, विभेदकारी, अन्यायी और शोषणकारी व्यवस्था के लिए ‘तंत्र‘ स्वयं को उत्तरदायी न मानते हुए ‘गण‘ को ही दोषी ठहराता आया है। यहाँ तक कि उत्कोच (घूस/ रिश्वतखोरी ) जैसी घृणित और शोषणकारी चलन के लिए भी ‘गण‘ को जिम्मेदार बताता रहा है, पर यथार्थ यह है कि ‘गण‘ को ऐसा करने कोई शौक नहीं है, वह तो अपने अस्तित्व रक्षा के लिए उत्कोच देने को विवश है। सच्चाई यह है कि अगर वह इस चलन का विरोध करने का दुस्साहस दिखाये, तो उसके परिणाम कल्पना से भी भीषण और भयावह होते हैं। यहाँ तक कि उसके मान-सम्माान ही नहीं, जान और माल पर भी बन आती है। ऐसे में देश का कोई कानून और उसके रखवाले भी उसके सहयोग /सहायता को आगे नहीं आते। हालाँकि विधि के शासन/लोकतंत्र/गणतंत्र में कानून के हाथ बहुत लम्बे बताये जाते हैं, जो उसकी रक्षा के नाम पर बनाये गए हैं। उस कानून के लिए ‘गण‘समान है, किन्तु यह यथार्थ नहीं है। कुछ के सामने अब भी कानून के लम्बे हाथ छोटे पड़ जाते हैं। यहाँ तक कि कभी -कभी वह धनवान और बलवान के साथ खड़ा दिखायी देता है या फिर बौना नजर आता है।
अगर यह कहा जाए, तो अतिश्योक्ति न होगी, कि देश के वर्तमान ‘गणतंत्र‘ में ‘गण‘ की महिमा और उसके विशद् अधिकारों का उल्लेख किया गया है लेकिन यथार्थ में ये कुछ को ही प्राप्त हैं जिन्होंने इस ‘तंत्र‘ पर आधिपत्य जमाया हुआ है। वस्तुतः गणतांत्रिक व्यवस्था में कुछ चतुर सुजानों ने ‘गण‘ के सहयोग/सहायता के बहाने ऐसा ‘तंत्र‘ बनाया है,जो उसी के लिए अनुपलब्ध है। वह उसका सेवक बताया जाता है,पर असल में वह स्चयं को ‘गण‘का न केवल ‘स्वामी‘ समझता है, बल्कि उसके साथ हर स्तर पर वैसा व्यवहार भी करता है। उसने ‘गण‘ को याचक बनाया हुआ है जिसे हर बात के लिए याचना करनी पड़ती है। इस तंत्र ने अपनी अनीतियों और दुष्कृत्यों से गण को इतना निरीह, निर्धन, निर्बल बना दिया है कि उसे तंत्र के आगे हर बात के लिए अपने घुटने टेकने और याचक बनने में ही अपनी खैरियत नजर आती है। यदि ‘गण‘ने गलती से भी ‘तंत्र‘के खिलाफ जुबान खोली तो उसकी खैर नहीं। तंत्र को कानून की आड़ में उसका हर तरह का उत्पीड़न करने की पूरी छूट है।
यह अलग बात है कि इस ‘गणतंत्र‘ में हर पाँच साल बाद छोटे-बड़े चुनावों के समय ‘गण‘ का मत(वोट) हथियाने के लिए उसे तंत्र का ‘स्वामी‘ होने का दिखावा करने को विवश होना पड़ता है। तंत्र को यह भय भी सताता रहता है कि कहीं:गण‘ संगठित न हो जाए,इसलिए तंत्र ने उनमें फूट डालने तमाम उपक्रम किये हुए है।इसी इरादे से इन्हें जाति,उपजातियों, धर्म,सम्प्रदायों में विभाजित कर उनके आगे आरक्षण का अंगूर लटकाया हुआ है। गण का मत छीनने को तंत्र के चतुर लोग उसे तरह-तरह के सुनहरे सपने दिखाकर/ प्रलोभन देकर या फिर जाति-धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्रवाद, भाषावाद का सहारा लेते हैं। यहाँ तक कि गण को डरा-धमका कर या फिर उसके मत देने के अधिकार को बन्दूक के बल पर छीनते आए हैं। फिर अपने छल-बल से उसके मत से शक्ति पाकर वे लोग ही जनप्रतिनिधि/जनसेवक होने का मिथ्या ढोंग करते हैं जबकि हर बार सभी सभाओं ,विधानसभाओं, संसद में वे गण/जन का नहीं, अपने दल का प्रतिनिधि बनकर रह जाते हैं , जहाँ वे स्वयं के या फिर अपने दल के हित में काम करते हैं। ऐसा करके ही उन्होंने वह सबकुछ(अपार धन, शक्ति,अधिकार ) पा लिया है, जो गण के लिए था। ऐसे क्षण बहुत कम ही आते हैं जब सचमुच ये अपने गण/जन के हित की बातें करते हों। ऐसे में उन्हें दल प्रतिनिधि कहें, तो अनुचित न होगा। ये चतुर सुजान जिस गण के मत(वोट) का पाकर शक्ति पाते हैं,उसी से उसके नाम पर सत्ता चलाने का अधिकार पाकर ‘गण‘ को न केवल हेय दृष्टि देखते हैं, वरन् उसे दुतकारने/छोटा दिखाने का कोई मौका नहीं चूकते।एक ओर जहाँ आमजन की स्वच्छ जल,दो वक्त के लिए रुखे-सूखे भोजन,शिक्षा,स्वास्थ्य,सुरक्षा,आवास जैसी माँगे पूरी नहीं होती,वहीं तंत्र से जुड़े हर शख्स को सहज उपलब्ध हैं।
कहने को यह ‘गण‘ का शासन है,पर उसके हर काम पर पाबन्दी है। यहाँ तक कि इन्होंने गण के हित में बेहतर शासन व्यवस्था चलाने के लिए तरह-तरह के हजारों नियम-कानून बनाये हुए हैं, जो सभी के सभी उनके हित में और गण के पूरी तरह से विरुद्ध हैं। यही कारण है कि वर्तमान व्यवस्था में पहले तो सांसद/विधायक या नौकरशाह अपने अनुचित/अवैध कार्यों के लिए कानून के दायरे(बँधन) में नहीं आते। अगर किसी तरह आ भी गए,तो उन्हें बचाने को सारा तंत्र पूरी ताकत से जुट जाता है। जिस दिन यह तंत्र किसी गण की सुधि लेने, उसकी अपेक्षाएँ पूरी करने, न्याय दिलाने का प्रणपण से जुटेगा,उसी दिन गणतंत्र सही अर्थ में गणतंत्र कहलायेगा, किन्तु ऐसा दिन आने के लिए गण को सदैव सचेत, सतर्क, सावधान रहना होगा, ताकि तंत्र के प्रतिनिधि हर बार की तरह अपने छल-बल से फिर से उसका मत हथिया न सकें।
सम्पर्क -डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें