ऐसे नहीं आएँगे अच्छे दिन?

 डॉ.बचन सिंह सिकरवार 
 गत दिनों स्विट्जरलैण्ड के खूबसूरत शहर दावोस में आयोजित ‘विश्व आर्थिक मंच‘(डब्ल्यूइएफ) में  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उद्घाटन में अपने आर्थिक सिद्धान्त तथा नीतियों  का जमकर गुणगान करते हुए  विश्व में भारत को एक उभरती अर्थव्यवस्था सिद्ध करते हुए निवेश का एक बेहतरीन   स्थान होने का विपणन(मार्केटिंग)की। साथ ही सरंक्षणवाद को आतंकवाद की तरह घातक साबित करने की कोशिश की, जिसमें दुनियाभर के देशों के बड़े नेता, कारोबारी, उद्योगपति और अर्थशास्त्री आये हुए थे। निश्चय ही उनकी  अपनी इस कथित सफलता पर सिंहगर्जना से देश के उन चन्द उद्योगपति, कारोबारी, मोटी तनख्वाह पाने वाले  नौकरशाहों को खुशी हुई होगी, जिनके सत्ता में आने पर सचमुच में ‘अच्छे दिन आ गए है‘, लेकिन बाकी आम भारतीय नागरिक तो मोदी की राजग सरकार के कोई चार साल पूरे  होने पर अब भी ‘अच्छे दिन आने ‘ और ‘सुशासन‘ की बाट ही जोह रहे हैं, जिन्हें अब तक उनसे केवल नाउम्मीदी ही मिली है। जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विश्व आर्थिक मंच पर अपनी आर्थिक नीतियों की सफलता की ढींगे हाँक रहे थे, उससे कुछ ही समय पहले आयी ‘ऑक्सफैम‘ की सर्वे रपट उनकी तथाकथित कामयाबी का पर्दाफाश कर मुँह चिड़ा रही थी, जिससे यह स्पष्ट है कि एक प्रतिशत अमीर भारतीयों के पास पिछले साल बड़ी देश  की  आय का 73प्रतिशत पैसा गया है,जो देश में लगातार बढ़ती आर्थिक विषमता को दर्शा रही है। इससे स्पष्ट है कि देश के आर्थिक विकास का फायदा केवल कुछ ही लोगों को हो रहा है। आर्थिक विषमता (असमानता) की यह स्थिति भारत के लिए ही नहीं, दुनिया के किसी भी मुुल्क के लिए बेहद खतरनाक है जो जन आक्रोश, असन्तोष, अशान्ति, निर्धनता, बेरोजगारी, भूखमरी उद्वेलन, उथल-पुथल, आन्दोलनांे, सत्ता पलट के साथ-साथ आर्थिक मन्दी कारण भी बनती है।
        विडम्बना यह है कि  मोदी जी अब जिस ‘संरक्षणवाद‘ को ‘आतंकवाद‘ जितना खतरनाक बता रहे हैं, कभी उनकी पार्टी जनसंघ से लेकर भाजपा तक इस ‘संरक्षणवाद‘ और कम पूँजी तथा श्रमशक्ति प्रधान लघु एवं कुटीर उद्योगों को ही गरीबी, बेरोजगारी, गैरबराबरी  मिटाने के साथ देश को समृद्ध, आत्मनिर्भर, तथा स्वालम्बी बनाने का ‘अमोघ अस्त्र‘ बताती आयी थी। आज अमेरिका भी संरक्षणवाद का नारा लगाते हुए ‘बाय अमेरिकन, यूज अमेेरिकन‘ का नारा लगा रहा है। मोदी जी  देश के कमाऊ उद्योगों का विनिवेश के साथ-साथ रक्षा समेत सभी क्षेत्रों में  बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए द्वार  खोल कर तथाकथित नये राष्ट्रवाद और आर्थिक समृद्धि के शिखर को छूने का ख्वाब देख और देश के लोगों को दिखा रहे हैं, जबकि उनकी वर्तमान नीतियों से किसान, मजदूर, पढ़े-गैर पढ़े ,छोटा-मोटा व्यापारी, उद्योगपति कोई भी खुश नहीं है। इनमें कुछ तो हताश-निराश हो मौत के गले लगाने को मजबूर हैं। फिर भी उन्हें अपनी कथित उच्च विकास दर और उदारीकरण, वैश्वीकरण, निजीकरण आदि पर अटूट भरोसा बना हुआ है। क्या उन्हें नहीं पता, देश के स्वतंत्र होने के बाद से ही सभी राजनीतिक दलों की सरकारों ने आम आदमी, किसान और मजदूर को सुनहरे भविष्य के सिर्फ ख्वाब ही दिखाये हैं और असल में सपने अमीरों, नेताओं, नौकरशाहों, ठेकेदारों आदि के पूरे किये हैं।  
       फिलहाल, इस रपट के अनुसार इन एक प्रतिशत धनी लोगों की सम्पत्ति गत वर्ष में 4.9 लाख करोड़ से बढ़कर 20.9 हो गई। यह रकम 2016-17 के आम बजट के बराबर है। वैसे आर्थिक असमानता की यह स्थिति अपने देश की ही नहीं है। वैश्विक स्तर पर और अधिक भयावह है। विश्व के सबसे धनवान एक प्रतिशत लोगों के पास एक वर्ष में आय वृद्धि का 82 प्रतिशत पैसा चला गया, वहीं सबसे निर्धन 3.7अरब लोगों की सम्पत्ति यथा बनी हुई है। रिवार्ड वर्क, नॉट वेल्थ शीर्षक रपट के अनुसार वैश्विक अर्थव्यवस्था धनवानों की सम्पत्ति बढ़ोत्तरी करती जा रही है।  सरकार नीतियों के कारण यह छह गुना रफ्तार से बढ़ रही है। सन् 2010 से अरबपतियों की धन-सम्पत्ति में प्रतिवर्ष 13 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। यह सामान्य कर्मचारियों की आय में बढ़ोत्तरी से छह गुना तेज है। कर्मचारियों की आय प्रतिवर्ष 2प्रतिशत की दर से बढ़ रही है।
अब जहाँ अपने देश की बात करें, तो एक  सामान्य ग्रामीणकर्मी जितना 941वर्ष में कमाएगा,उतना निजी कम्पनी का उच्च अधिकारी एक वर्ष में कमा लेता है। अमेरिका में असमानता थोड़ी कम है। वहाँ सामान्य कर्मी जितना एक साल में कमाता है,उतना सीआईओ एक दिन में। सर्वे में दस देशों के 70हजार से अधिक लोगों से बातचीत की गई। 
इस आर्थिक विषमता से उत्पन्न गरीबी, बेरोजगारी  जैसी समस्याओं को लेकर दुनियाभर के शासक चिन्ता अवश्य व्यक्त करते रहे हैं और इसका समाधान उन्होंने वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण को माना। इसकी सफलता की  माप वे  ‘विकास की उच्च दर‘ या तीव्र विकास को समझते आए हैं। इन सभी का मानना रहा है कि जब अधिक उत्पादन से उत्पन्न समृद्धि  आएगी, तो उससे रिसाव (सिपेज) होगा। इस रिसाव से ही लोगों की  गरीबी और बेरोजगारी मिट जाएगी। लेकिन अब तक का अनुभव इसके विरीत रहा है। अपने देश में वर्तमान में जिन आर्थिक सिद्धान्तों और नीतियों के कारण आर्थिक असमानता बढ़ रही है उसके लिए सिर्फ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही जिम्मेदार नहीं है, बल्कि उनका अपने पूर्ववर्तियों की नीतियों का अन्धानुकरण है। वे जिन नीतियों के माध्यम से देश के लोगों के अच्छे दिन आने की उम्मीद कर रहे हैं,वे कभी आने वाले नहीं हैं।
प्रधानमंत्री पी.वी.नरसिंहराव के कार्यकाल में शुरू हुए वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के बाद से देश का पूरा आर्थिक परिदृश्य बदल गया है।  इन नीतियों से  देश की अर्थव्यवस्था में विदेशी पूँजी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों  का दखल बढ़ता चला गया। इसने अर्थव्यवस्था को ही नहीं, सभ्यता,संस्कृति को भी प्रभावित किया है।  जन संचार माध्यमों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश ने इन्हें  भी अपने रंग में डाला है।इसके कारण अपसंस्कृति तथा हिंग्रेजी यानी अँग्रेजी के  अधिकाधिक शब्दों और अंकों का चलन बढ़ा है। इससे हिन्दी शब्दों का विस्थापन हो रहा है।  इन्हीं नीतियों की उपज 2007-2008 वित्तीय संकट था। ऑक्सफैम की 2015 की एक रपट में बताया गया है कि आज की दुनिया 62 परिवारों के पास कुल आबादी 50 प्रतिशत जितनी सम्पत्ति है। इन 62 परिवारों की सम्पत्ति दुनिया के 350 करोड़ जनसंख्या के बराबर है। विगत 30वर्षों में कई देशों में विषमता बहुत तेजी से बढ़ी है। अमेरिका के ऊपर के 1 प्रतिशत लोगों को जाने वाला राष्ट्रीय आय का हिस्सा 1980  में 10 प्रतिशत था। वह अब बढ़कर 20 फीसदी तक पहुँच गया है। कमोबेश यही स्थिति अमरीका समेत कई अमीर मुल्कों तथ चीन की भी है। कुछ ऐसी ही तस्वीर भारत की भी है। 
अक्टूबर, 2015 में क्रेडिट सुईस (भारत में कार्यरत एक वित्तीय सेवा कम्पनी) द्वारा जारी रपट में बताया गया है कि शीर्ष के 10 प्रतिशत व्यक्ति भारत में 76 प्रतिशत सम्पत्ति के स्वामी हैं। भारत में बढ़ती आर्थिक विषमता थमने का नाम नहीं ले रही है, विगत 15 सालों ंमें देश में आर्थिक असमानता की खाई और आर्थिक चौड़ी हुई है। क्रेडिट सुईस एजेन्सी द्वारा जारी धन बँटवारे के बारे में जारी रपट ने तो भारतीयों की बेचैनी को और भी बढ़ा दिया है। इस रपट पर विश्वास करें, तो भारत में सबसे धनी एक प्रतिशत जनसंख्या के पास देश का 53 प्रतिशत  धन है। वर्ष 2000-2015 इस अवधि में शीर्ष 10 प्रतिशत आबादी के पास कुल उत्पन्न राष्ट्रीय धन का 81प्रतिशत हिस्सा सिमट कर रह गया है। परिणामतः उदारीकरण के इस दौर में बड़ी जनसंख्या फटेहाल स्थिति में जीने को मजबूर है। दिलचस्प बात यह है कि इस बीच देश में पहले ‘राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन‘(एन.डी.ए.) फिर 10 वर्ष तक ‘संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन‘ (यू.पी.ए.)और अब पुनः एन.डी.ए.की सरकार सत्ता में है। सभी सरकारों का आर्थिक रूझान एक जैसा रहा है। हालत यह है कि सामाजिक आर्थिक न्याय दिलाने का हर समय दम भरने वाली इन सरकारों के दौर में गैर बराबरी घटने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। इसके कारण चन्द लोगों के हाथ में देश की अधिकांश पूँजी का सिमटना एक खतरनाक संकेत है। इस बढ़ती गैर बराबरी के कारण ही समाज में अशान्ति और राजनीतिक उथल-पुथल  का गम्भीर संकट पैदा हो गया है। बढ़ती आर्थिक विषमता की स्थिति से यूरोप और अमेरिका भी अछूत नहीं हैं।
  क्रेडिट सुईस की ताजा रपट के अनुसार अमेरिका शीर्ष एक प्रतिशत के पास देश का 37.5 प्रतिशत धन जमा है, जबकि भारत में यह आँकड़ा इससे कहीं अधिक है। इस साफ मतलब यही है कि देश में जितना राष्ट्रीय धन पैदा हो रहा है,इसका बड़ा हिस्सा चन्द लोगों की तिजौरियों मं जा रहा है। इसके पीछे  भ्रष्टाचार प्रमुख कारण है।
 ऐसे में प्रश्न यह है कि संसाधनों तथा धन का न्यायपूर्ण वितरण कैसे और किस तरह हो, प्राथमिक महŸव का हो गया है। आर्थिक विषमता की खाई कम किये बगैर देश की तस्वीर और तकदीर  कतई बदली नहीं जा सकती है।
वर्तमान में सरकार विकास दर बढ़ाने का प्रयास अवश्य कर रही है, लेकिन उसे उसे इस सच्चाई का स्वीकार करना चाहिए कि गरीबी घट नहीं रही है। देश की जनसंख्या 37.24 प्रतिशत गरीब है और प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक लगभग 88 हजार रुपए है। करीब 19 करोड़ भरपेट भोजन किये बगैर ही सोने को विवश हैं। इतना ही नहीं, 14 करोड़ लोग अशिक्षित हैं। हर भारतीय औसतन सात हजार रुपए का कर्जदार है।
अब समय आ गया है कि राष्ट्रीय सम्पत्ति कुछ लोगों की तिजौरियाँ और खातों से निकलकर उन हाथों तक पहुँचे ,जो इसके वास्तविक हकदार हैं। धन और संसाधन को चन्द हाथों में सिमटने में मददगार मौजूदा व्यवस्था पर अंकुश लगाकर ही बहुसंख्यक जनसंख्या का जीवन बेहतर बनाया जा सकेगा। इससे देशवासियों की स्थिति में सकारात्मक बदलाव आएगा और उनके मन में पनप रहा आक्रोश को किया जा सकता है। विषमता की खाई को पाटते हुए भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाकर ही देश का भविष्य सुनहरी बनाया जा सकता है।इसके लिए आम लोगों की आय बढ़ाने के लिए उनके लिए उचित आय देने वाले रोजगारों की व्यवस्था करनी होगी।ऐसा गहन पूँजी, उच्च तकनीक, स्वचलित मशीनों से उत्पादन करने वाले उद्योग लगाकर किया जाना सम्भव नहीं। इसके लिए अब भी भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल आर्थिक, व्यापारिक, औद्योगिक,कर नीतियाँ बनानी होंगी। साथ आय की विषमताकारकों के उन्मूलन के ओर वांछित कदम उठाने होंगे।इसमें भ्रष्टाचार विषमता बढ़ाने वाला गम्भीर कारक बना हुआ है। सरकार को शिक्षा, स्वास्थ्य समेत कई दूसरे सामाजिक कल्याण की योजना के जरिए आम जन पर व्यय बढ़ाना होगा,ताकि राष्ट्रीय आय का अधिकाधिक लाभ जनसाधारण तक पहुँचाया जा सके। 
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार, 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054

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