अमरीका के भरोसे खुशफहमी पालना फिजूल

 डॉ.बचन सिंह सिकरवार 
इस बार नये वर्ष के पहले दिन ही अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा पाकिस्तान को धोखेबाज बताते हुए आतंकवाद को खत्म करने को दी जाने वाली जिस सैन्य सहायता को बन्द करने की घोषणा की, उससे भारत को बहुत अधिक उत्साहित होने और इसे अपनी जीत जताने की आवश्यकता नहीं है। कारण यह है कि अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने यह निर्णय पाकिस्तान के भारत के विरुद्ध उसके आतंकवादी अभियान चलाने की वजह से नहीं, वरन् पड़ोसी अफगानिस्तान में सक्रिय कई दहशतगर्द गिरोहों को अपने यहाँ पालने-पोसने और पनाह देने को लेकर दी गई, जहाँ वह उनके सफाये को लेकर बड़ी संख्या में सैनिक रखे हुए हैं। फिर अमरीका बगैर स्वार्थ के कभी किसी मुल्क की न आर्थिक मदद करता और न ही सैनिक सहायता ही देता है। अपने हितों को देखते हुए उसे  निर्णय बदलने में देर भी नहीं लगती। पाकिस्तान अब तक अमरीका की बदौलत भारत को हर तरह से हैरान-परेशान करता आया है। अमरीका ने सन् 1965 और सन् 1971 के युद्धों में न केवल पाकिस्तान की खुलकर मदद की, बल्कि उसके रुख के कारण भारत अपनी इन जीतों के बाद भी पाकिस्तान के चुंगल से गुलाम कश्मीर को आजाद कराने में नाकाम रहा है। यहाँ तक कि  अमरीकी आर्थिक सहायता के बूते ही पाकिस्तान बेखौफ होकर  भारत के खिलाफ जम्मू-कश्मीर में घुसपैठ और आतंकवादी गतिविधियाँ चलाता आया है। इस हकीकत से अमरीका अच्छी तरह से वाकिफ रहा है। हर रोज पाकिस्तान से घात पर घात खाने के बाद भी भारत उसे ‘आतंकवादी देश‘ घोषित नहीं करने सामर्थ्य नहीं जुटा पाया है, बल्कि अब भी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एन.एस.ए.) के माध्यम से बातचीत जारी रखे हुए है। इसके विपरीत भारत अमरीका से यह अपेक्षा करता रहा है कि वह उसे ‘दहशतगर्द मुल्क‘ होने का ऐलान करे। 
 अब राष्ट्रपति ट्रम्प उसे धोखेबाज  भले ही कहें, जो उसकी दहशतगर्दों के खात्मे को दी गई रकम को उन्हें पालने-पोसने और पनाह देने पर खर्च करता रहा है, किन्तु अमरीका अब तक यह धोखा अनजाने में नहीं, बल्कि वह जानबूझकर और अपनी क्षेत्रीय कूटनीति एवं सामरिक फायदों को देखते हुए खाता आया है। इसका प्रमाण राष्ट्रपति ट्रम्प के पूर्ववर्ती राष्ट्रपति बराक ओबामा पाकिस्तान की काली कारतूतों को भलीभाँति जानते थे। फिर भी उन्होंने पाकिस्तान को आर्थिक सहायता देना बराबर जारी रखा। अमरीका  पिछले 15 सालों में पाकिस्तान को 33 अरब डॉलर यानी दो लाख दस हजार करोड़ रुपए की भारी भरकम रकम दे चुका है। निश्चय ही अमरीका ने यह फैसला पानी सिर गुजर जाने के बाद लिया है जिससे पाकिस्तान को भी गहरा आघात लगा होगा। लेकिन उसके लिए यह निर्णय  पूर्णतः अप्रत्याशित नहीं है। इस तरह के निर्णय का संकेत उसे बहुत पहले से अमरीकी नेता देते आए थे, किन्तु उन्हें पाकिस्तानी नेताओं ने कभी गम्भीरता से नहीं लिया। वैसे भी अमरीका द्वारा पाकिस्तान को दी जानी उक्त राशि बहुत अधिक नहीं है जिससे उसे बहुत अधिक आर्थिक क्षति हो। वैसे भी जब-जब  पाकिस्तान पर भारत समेत दुनिया के दूसरे देशों द्वारा दहशतगर्द्र गिरोह को पनाह देने के आरोप लगाये गए, तब-तब उसने उन्हें गुमराह करते हुए खुद को उनसे पीड़ि़त साबित करते हुए हमदर्दी हासिल करने की कोशिश की है जिनसे लड़़ते हुए उसने भी अपने हजारों नागरिकों, पुलिस तथा सुरक्षाबलों की जान की कुर्बानी दी है। यह अलग बात है कि उसकी इस दलील पर शायद ही किसी मुल्क ने यकीन किया होगा, पर पाकिस्तान की सेहत पर भी  इससे कोई खास असर नहीं पड़ा। अब अमरीका की 22.5करोड़ डॉलर (1626 करोड़ रुपए) सैन्य सहायता बन्द किये जाने से पाकिस्तान की जम्मू-कश्मीर में उसके द्वारा आतंकवादी गतिविधियों में किसी तरह की कमी आने या फिर बन्द होने की उम्मीद करना ही बेमानी होगा। लेकिन उसकी जर्जर अर्थव्यवस्था का अवश्य धक्का लगेगा। सम्भव है कि इसकी कुछ भरपाई चीन करे,जो अमरीका द्वारा खाली गए स्थान को भरने में लगा। यहाँ तक कि वह पाकिस्तान के आतंकवादी सरगना तथा मुम्बई हमले के षड्यंत्रकारी हाफिज सईद को अन्तर्राष्ट्रीय अपराधी घोषित किये जाने में बाधक बना हुआ है।
       अमरीका अफगानिस्तान में अमन कायम कर उसका विकास करना चाहता, जो पिछले कई दशक के गृहयुद्ध सरीखे हालात के रहते पूरी बर्बाद हो चुका है। उसके इस लक्ष्य को पूर्ण करने में भारत उसका सहयोगी है, लेकिन पाकिस्तान की मंशा अफगानिस्तान को हर तरह से पिछड़ा और अपना पिछलग्गू बनाये रखने की है। उसे अफगानिस्तान में भारत का बढ़ता प्रभाव और दखल किसी भी सूरत में मंजूर नहीं है। इसलिए पाकिस्तान अमरीकी हितों की अनदेखी और उपेक्षा करते हुए अपने यहाँ विभिन्न दहशतगर्दों के गिरोह को पनाह दिये हुए है जो अफगानिस्तान में मौका मिलते ही न केवल दहशत फैलाते रहते हैं, बल्कि अमरीकी सुरक्षा बलों पर हमला करने से भी बाज नहीं आते।
 वैसे पाकिस्तान में ही नहीं, दुनिया के विभिन्न देशों विशेष रूप से इस्लामिक मुल्कों में सक्रिय आतंकवादी संगठनों जैसे अलकायदा, तालिबान, जैश-ए-मुहम्मद,लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल मुजाहिदीन, जमात-उर-अहरार,नुसरा फ्रण्ट, लश्कर-ए-इस्लाम, जमात-उल-मुजाहिदीन, इस्लामिक स्टेट (आइ.एस.) आदि को पैदा करने, उन्हें पालने-पोसने मे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अमरीका का ही हाथ रहा है। सन् 1978 में अफगानिस्तान में सोवियत संघ के दखल के बाद बड़ी संख्या में यहाँ के लोग पाकिस्तान में शरणार्थी बन कर आ गए। अमरीका ने अपने प्रतिद्वन्द्वी/शत्रु सोवियत संघ को अफगानिस्तान में लड़ने और उसे वहाँ खदड़ने के लिए मजहब का सहारा लिया। इसके लिए उसने पाकिस्तानी इस्लामिक कटटपन्थियों मुल्ला-मौलवियों की मदद ली और उन्हें भारी धन और एक से एक घातक हथियार उपलब्ध कराये, जिन्होंने साम्यवादियों (कम्युनिस्टों) से ‘इस्लाम को खतरा‘बताते हुए मुसलमान युवकों को संगठित कर दहशतगर्द तैयार किये। फिर उनके सहयोग और सहायता से सोवियत सेनाओं को अफगानिस्तान छोड़ने को मजबूर कर दिया।बाद में तालिबान अफगानिस्तान में साम्यवादी शासन का अन्त कर स्वयं सत्तारूढ़ हो गया,जिसे केवल पाकिस्तान और युनाइटेड अरब अमीरत (यू.ए.ई.) ने मान्यता दी थी। तालिबान सरकार ने अफगानिस्तान को इस्लामिक मुल्क घोषित कर दिया, जिसे अमरीकी सैन्य सहायता से जैसे-तैस सत्ता से बाहर किया है, पर तालिबानी दहशतगर्द अब भी अफगानिस्तान पर अवसर मिलते ही तबाही मचाने से बाज नहीं आ रहे हैं। यह सब अब अमरीका को बर्दाश्त नहीं, क्योंकि एक ओर तो उसे अफगानिस्तान में अपने सैन्य बल रखने पर भारी धन खर्च करना पड़ रहा है,दूसरी ओर उसके किये धरे को ये आतंकवादी तहस-नहस कर रहे हैं। इससे अमरीकी सरकार की अपने ही देश मेें बदनामी हो रही है। लेकिन पाकिस्तान है कि अमरीकी नेताओं की चिन्ताओं और मुश्किलों को समझना नहीं चाहता। इस कारण अब अमरीका को पाकिस्तान के खिलाफ यह अत्यन्त कठोर उठाने को मजबूर होना पड़ा है।इसमें भारत को अपना बहुत ज्यादा फायदा तलाशना फिजूल ही है। उसे पाकिस्तान से निपटने के लिए स्वयं को ही हर तरह से तैयार करना होगा।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मो.नम्बर-911684054

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