सही नहीं है वैचारिक असहमति के लिए हिंसा
डॉ.बचन सिंह सिकरवार

इस तरह के अनुचित लांछन और ओछी बयानबाजी की जितनी निन्दा की जाए, वह कम होगी। क्या गौरी लंकेश के हिन्दू संगठनों के विरुद्ध लिखने के कारण ही उनकी हत्या के लिए हिन्दूवादी संगठनों पर आरोप लगाना सही है? वैसे अपने देश में कुछ पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को रवैया भी विचित्र है वे कुछ विशेष विचारधारा /मजहब/जाति से सम्बन्ध रखने वालों की हत्या पर भारी शोक/मातम मानते हैं। उस समय उन्हें देश में असहिष्णुता भी बढ़ती और अभिव्यक्ति स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध दिखायी देने लगता है, किन्तु दूसरों के साथ इससे भी अधिक हो जाने पर चुप्पी साध लेते हैं जैसे उनके प्राणों या अभिव्यक्ति के कोई माने ही नहीं हैं। यही कारण है कि केरल में राजनीतिक हत्याओं आर.एस.एस.,भाजपा कार्यकर्ताओं ही नहीं, काँग्रेसी या मुस्लिम लीग के कार्यकर्ता की हत्या भी कोई कुछ नहीं बोलता, क्योंकि वहाँ वामपंथी सरकार है। गौरी लंकेश की हत्या के तीसरे दिन ही बिहार के अररिया में पत्रकार पंकज मिश्रा पर गोलियाँ बरसाई गई,पर कहीं भी इस घटना की निन्दा तक नहीं की।
अब गौरी लंकेश की हत्या को लेकर हो रही श्रद्धांजलि सभा में जे.एन.यू.के पूर्व उपाध्यक्ष शेहला राशिद का ऐसा ही दोगला रवैया रहा है। उन्होंने एक चैनल के पत्रकार को वहाँ से बाहर चले जाने को कहा,उनका आरोप था कि उनका चैनल भाजपा समर्थक है। पर यहाँ सवाल यह है कि क्या उनकी कोई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है? गौरी लंकेश के लिए श्रद्धांजलि सभा में राष्ट्रद्रोह के आरोपी कन्हैया कुमार ,उमर खालिद जैसों की उपस्थिति भी विचारणीय है।
फिलहाल, इस मामले की गम्भीरता को देखते हुए कर्नाटक की काँग्रेस के सरकार के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने विशेष जाँच दल(एस.आई.टी)को सौंप दिया और उनके हत्यारों को पकड़ने वालों को दस लाख रुपए का इनाम भी घोषित किया है, ताकि उनके हत्याओं को जल्दी से जल्दी पकड़ा जा सके। वह वैसे कई सामाजिक मसलों विशेष रूप से नक्सलवादियों को समझा-बुझाकर समाज की मुख्यधारा पर लाने में जुटी थीं। कुछ लोग गौरी लंकेश की हत्या को एम.एम.कलबुर्गी, गोविन्द पनसारे, नरेन्द्र दाभोलकर, सरीखा मान रहे हैं, क्यों कि ये सभी सामाजिक कुरीतियों, अन्धविश्वासों और दूसरी बुराइयों को लेकर संघर्षरत थे। इनके राज्यों में तब काँग्रेस की सरकारें ही थीं। लेकिन क्षोभ की बात यह है कि अभी तक इन सभी के हत्यारों की गिरफ्तारी और सजा दिलाने में सरकारें विफल रही हैं। कर्नाटक की सी.आई.डी.दो साल के पश्चात् भी एमएम कलबुर्गी के के हत्या के कारणों की पता नहीं कर पायी है।इसी तरह महाराष्ट्र सरकार का विशेष जाँच दल गोविन्द पनसारे के हत्यारों को पकड़ने में नाकाम रहा है। इसलिए यह भाजपाँ के विधायक डी.एन.जीवराज का यह बयान भी निन्दनीय है कि यदि गौरी लंकेश आर.एस.एस.के के खिलाफ न लिखती, तो उनकी हत्या न होती। इसी तरह एक अन्य व्यक्ति ने सोशल मीडिया पर कई अरुन्धति राय,सागरिका घोष समेत कई महिला पत्रकारों को राष्ट्रद्रोही बताते हुए हत्या किये जाने की बात कही है। ऐसों की हरकत की अक्षम्य हैं।
वैसे अपने देश और प्रदेश में पत्रकारों की विभिन्न कारणों से हत्याएँ होती आयी हैं। असम में सन् 1987से अब तक 32 पत्रकारों की हत्याएँ हो चुकी हैं जिसमें असम ट्रिब्यून और असम प्रतिदिन पत्रकारों की हत्या मुख्य है। इनमें पूनरमल की उल्फा उग्रवादियों हत्या कर दी थी। देश में सन् 1992 से अभी तक 67 पत्रकारों की हत्या हुई है, किन्तु अगस्त, 2015 को हेमन्त यादव, जून, 2015 को जगेन्द्र सिंह, मई,2016में राजवीर रंजन आदि की हत्याएँ हुई है।
अपने देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जिनके लिए अभिव्यक्ति स्वतंत्रता ही नहीं, मानवाधिकार, राजनीतिक,सामाजिक स्वतंत्रता के अपने -अपने माने हैं। इस कारण हम वैचारिक असहमति को लेकर की जाने वाली हत्याओं को अपने-अपने राजनीतिक चश्मे से देखते है। इस कारण पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्याएँ आम हो गई हैं और इनमें से हर बार लोग बँटे-बँटे रहते हैं,क्यों लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोगों के इस रवैये को उचित नहीं कहा जा सकता,क्यों कि असहमति को सम्मान ही लोकतंत्र का आधार है सम्पर्क- डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054
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