घोटाले होते रहे, देश लुटता रहा
‘‘मोदी
को वोट देने
वालों को समुद्र
में डूब जाना
चाहिए। भारत कभी
साम्प्रदायिक नहीं हो
सकता। अगर यहाँ
साम्प्रदायिक तत्त्व सत्ता
में आ गए तो
कश्मीर इसका हिस्सा
नहीं रहेगा।''नेशनल
कान्फ्रेंस के वरिष्ठ
नेता और केन्द्रीय
अक्षय ऊर्जा मंत्री
डॉ.फारूक अब्दुल्ला के
इस बयान पर
शायद किसी को
हैरानी और परेशानी
हुई होगी? वे
अक्सर ऐसे ही
भड़काऊ और जज्बाती
बयानों से भारत
सरकार को डराने
और राज्य के
मुसलमानों की अपने
पक्ष में गोलबन्दी
करते आये हैं।
ऐसे ही खास
मौकों पर उन्हें
कश्मीरियत की खूब
याद आती है।
दरअसल, अपने
आजमाए इन्हीं हथकण्डों
की बदौलत उनकी
तीन पीढियाँ कश्मीर
पर हुकूमत करती
आ रही हैं।
कमोबेश रूप में
अब भी अपने
पिता के सुर
में सुर मिलते
हुए उनके बेटे
और कश्मीर के
मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला
ने भी कश्मीरियत
का राग अलापते
हुए कहा, ‘‘ अगर
कश्मीर और कश्मीरी नरेन्द्र मोदी
से एक चीज
नहीं चाहते वह
है पंथनिरपेक्षता पर
उनका भाषण। कश्मीर
ने विच्च्व को
कश्मीरियत और सहिष्णुता
दी है।''बाप-बेटे
के कश्मीरियत के
इस राग को
सुनकर आप को
भी यह जिज्ञासा
होगी कि आखिर
यह कश्मीरियत है
क्या?
फिलहाल, कश्मीरियत की
चर्चा करने से
पहले डॉ.फारूक अब्दुल्ला
के बयान पर
आते हैं जिस
पर तथाकथित धर्मनिरपेक्षता
के झण्डाबरदार और
राष्ट्रवादी पता नहीं
किस बिल जा
छुपे, जिन्हें
बिहार के नवादा
संसदीय क्षेत्र से
भाजपा उम्मीदवार गिरिराज
सिंह का बयान बेहद नागवार
ही नहीं, साम्प्रदायिकपूर्ण
और देशद्रोहपूर्ण भी
लगा था। उसे
लेकर उन्होंने कई
जगहों पर उनके
खिलाफ मुकदमें दर्ज
करा दिये। लेकिन
उन्होंने डॉ.फारूक अब्दुल्ला
के खिलाफ देशद्रोह
का मुकदमा दर्ज
कराना तो दूर
रहा, उनके
बयान की निन्दा-भर्त्सना
करना भी जरूरी
नहीं समझा। जहाँ
तक गिरिराज सिंह
के गत २०
अपै्रल को चुनावी सभा में
दिये बयान की
बात है वह
उन्होंने अपने नेता
की स्तुति, बडबोलेपन
में और हिन्दुओं
की गोलबन्द करने
के इरादे कह
दिया था। उसमें
गिरिराज सिह ने
कहा था,’‘ जो
नरेन्द्र मोदी को
रोक रहे हैं,वे पाकिस्तान
की तरफ देख
रहे हैं। आने
वाले दिनों में
ऐसे लोगों की
जगह हिन्दुस्तान में
नहीं ,बल्कि
पाकिस्तान में है।'' निच्च्चय
ही उनके इस बयान को
भी कोई समझदार
आदमी सही नहीं
ठहराएगा। यहाँ कि भाजपा ने
भी इससे किनारा
कर लिया। वैसे
भी अपने देश
में शायद ही
कोई राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ (आर.
एस. एस.), भाजपा, विच्च्व
हिन्दू परिषद् को अकेले हिन्दुओं
का ठेकेदार मानता
हो। फिर इन्होंने
हिन्दुत्व का पेटेण्ट
तो कराया हुआ
नहीं है। अगर
निष्पक्ष होकर गिरिराज
सिंह और डॉ.फारूक
अब्दुल्ल के बयानों
की तुलना की
जाए, तो
डॉ.फारूक अब्दुल्ला का
बयान ज्यादा देशद्रोहपूर्ण
और देश की
स्वतंत्रता, एकता, अखण्डता
के लिए खतरनाक
साबित होगा। इसके
बावजूद देश के
सभी राजनीतिक दलों
के नेताओं की
चुप रहने से
उनकी खुदगर्जी से
साबित होती है।
उन्हें अपने मुल्क
से ज्यादा सत्ता
प्यारी है। इसलिए
वे सही बात
कहने से कतराते
आये हैं। किन्तु
इस बार भाजपा
के प्रधानमंत्री पद
के प्रत्याच्ची नरेन्द्र
मोदी ने यह
कहकर डॉ.फारूक अब्दुल्ला
और उमर अब्दुल्ला
की कश्मीरियत की
धज्जियाँ उड़ा दीं, जो
इस देश के मुसलमानों को
वोट बैंक समझने
वाले नेता सब
कुछ जानते हुए
भी कभी इसकी
सशाई बयान करने
की हिम्मत नहीं
दिखा पाये हैं।
मोदी का कहना
था ‘‘ जिन
लोगों ने कश्मीरी
पण्डितों को खदेड़
दिया, उन
लोगों को साम्प्रदायिकता
पर उपदेश देने
का हक नहीं
है। फारूक अब्दुल्ला और उनके
पिता की नीतियों
की वजह से
कश्मीर से पण्डितों
को पलायन करना
पड़ा।''
अब कश्मीरियत भी की
बात कर ली
जाए, जिसका
डॉ.फारूक अब्दुल्ला खान
समेत दूसरे कश्मीरी
नेता गाहे-बगाहे बखान
करते आये हैं।
ये लोग कश्मीरियत
के माने पंथनिरपेक्षता
और सहिष्णुता बताते
आये हैं लेकिन
ये इनकी और
किसी एक मजहब
की देन नहीं
है ,बल्कि
कच्च्यप ऋषि की
इस भूमि पर
तमाम ऋषियों-मुनियों के
ज्ञानार्जन और उनके
उपदेच्चों, कवियों, साहित्यकारों
की सीखों ,सूफी पीर-फकीरों
के तकरीरों और
उनके चाल-चलन से
पैदा मिलीजुली विरासत
है। हिन्दुओं और
बौद्धों के अनेक
प्रसिद्ध तीर्थस्थल, मठ, मन्दिरों
यहाँ ही हैं।
यहाँ हिन्दू आर्य
राजाओं, मौर्य
सम्राट अच्चोक, कुषाण
सम्राट कनिष्क, मुगल, अफगान, सिख, डोगरा
राजपूत शासकों का
राज रहा है।
हजारों साल से
हिन्दू -बौद्ध
और मुसलमानों ने
साथ-साथ रहते-सहते जिन्होंने
साझा सांस्कृतिक, आपसी
भाईचारा और
धार्मिक सहिष्णुता से
कश्मीरियत को गढ़ा
था जिसे देश
के आजाद होने
से पहले से
ही यहाँ के
कुछ कट्टरपन्थी मुसलमानों
ने मिटाना शुरू
कर दिया। इनमें
से एक शेख
अब्दुल्ला ने ‘मुस्लिम कान्फ्रेंस' बनाकर
मुसलमानों की हिमायत
के नाम पर
तत्कालीन हिन्दू शासक
की मुखालफत का
झण्डा उठाया हुआ
था। इस सबका
नतीजा गुलाम कश्मीर
के रूप में
सामने आया, जिस
पर पाकिस्तान ने
नाजायज कब्जा किया
हुआ है। बाद
में शेख अब्दुल्ला
ने भी पाकिस्तान
से कुछ हासिल
न होते देख
अपनी ‘मुस्लिम
कान्फ्रेंस' का
नाम बदल कर
‘नेशनल
कान्फ्रेस' कर
सैक्यूलरिज्मि का चोला
पहन लिया और
नेहरू की मदद
से सत्ता भी
हासिल कर ली।
अब रहे-बचे इन
कट्टरपन्थी पड़ोसी मुल्क
पाकिस्तान और दूसरे
इस्लामिक देच्चों से
रुपया लेकर कभी
पाक से जुड़ने
के लिए आन्दोलन
चलाते हैं तो
कुछ कश्मीर को
आजाद मुल्क के
रूप में देखने
के ख्याली पुलाव
पकाते रहते हैं।
जम्मू-कश्मीर को हिन्दू
विहीन करने के
लिए घाटी में
छुटपुट साम्प्रदायिक हिंसा
की वारदातें तो
शुरू से होती
आयी थीं लेकिन
बड़े पैमाने पर
फरवरी, १९८६
में अनन्तनाग समेत
पूरी कश्मीर घाटी
में मुस्लिम आतंकवादियों
ने हिन्दुओं का
नरसंहार और
उनके मन्दिर ध्वस्त
करने शुरू कर
दिये। उन्होंने हिन्दुओं
की जानें ही
नहीं लीं, उनकी
बहू-बेटियों के साथ
बलात्कार भी किये।
तब मजबूर होकर
अपने घर-द्वार , खेत-खलियान, बाग-बगीचे, मठ-मन्दिर छोड़ने को
उन्हें मजबूर होना
पड़ा। दहशत फैलाने
और सरकार को
चुनौती देते हुए
इन मुसलमान अलगावादियों
और उग्रवादियों ने
१४ अगस्त, १९८९
श्रीनगर सहित घाटी
के अनेक स्थानों
पर पाकिस्तान दिवस
मनाया। इसके बाद
१९८९-१९९१के दौरान जम्मू-कश्मीर
में आतंकवादी घटनाओं
में करीब ढाई
हजार हिन्दू मारे
गए तथा पाँच
लाख कश्मीरी पण्डित घाटी से
जम्मू पलायन करने
पर मजबूर हो
गए।ज्यादातर विस्थापित जम्मू, ऊधमपुर
के च्चिविरों रह
रहे हैं। बहुत
छोटे इन च्चिविरों
में वे नारकीय
जीवन जी रहे
हैं।सर्द मौसम के
अभ्यस्त कश्मीरी पण्डितों
को गर्म माहौल
में रहने से
अनेक बीमारियाँ हो
गयी हैं।एकान्त के
अभाव के कारण
उनकी सन्तानोत्पत्ति भी
थम गयी है।बहुत
से विस्थापित दिल्ली और देश
के दूसरे शहर
शरण लिए हुए
हैं।सन् १९९२-१९९३ में
भी करीब ४०
हजार कश्मीरी पण्डित
कश्मीर से बाहर
निकले।कश्मीरी पण्डितों पर
१९९६ के बाद
भी हमले हुए, उस
समय डॉ.फारूक अब्दुल्ला
ही मुख्यमंत्री थे।राज्य
को हिन्दू-बौद्धों से
विहीन करने के
इरादे से सरकार
मुसलमानों को गैर
मुसलमान युवतियों से
निकाह करने पर
इनाम दिया जाता
है। देश के
बँटवारे के समय
पाकिस्तान चले गए
मुसलमानों को नागरिकता
और सम्पत्ति पाने
का हक है, किन्तु
उसी समय से
पाकिस्तान से यहाँ
हिन्दुओं और सिखों
को न मत देने
का अधिकार है
और न सम्पत्ति खरीदने
का। यहाँ तक
कि कश्मीरी युवती
के गैरकश्मीरी से
शादी करने पर
उसे कश्मीर में
सम्पत्ति के अधिकार
से वंचित होना
पड़ता है। कश्मीर
में न केवल स्थानों, पहाड़ों, नदियों
के नामों का
इस्लामीकरण हो रहा, बल्कि
हिन्दुओं के मन्दिरों-मठों
को भी नहीं
बख्शा जा रहा
है। राज्य सरकार
इतने सालों के
बाद भी कश्मीरी
पण्डितों को फिर
से घाटी में
लौटने लायक न
माहौल बना पायी
है और न
उनकी सुरक्षा के
पुख्ता इन्तजाम ही।
घाटी में च्चियाओं
के दरगाहों पर
हमले-जलाये जाने की
घटनाएँ भी होती
आयी हैं। उन्हें
ताजिये भी उठाने
नहीं देते। जम्मू-कश्मीर
में कोई भी
दिन ऐसा नहीं
गुजरता ,जब
पाकिस्तानी सैनिक या
उनके समर्थक कश्मीरी
अलगाववादी सरहद
पर या इसके
अन्दर गोलियाँ बरसा
कर बेकसूरों और
निहत्थों का खून
न बहाते हों।
पाकिस्तान जिन्दाबाद ,हिन्दुस्तान मुर्दाबाद
के नारों के
साथ राष्ट्रीय झण्डे
का अपमान करना
उनका आयेदिन का
काम हो गया
है। लेकिन आज
तक शायद ही
राज्य सरकार ने
उन्हें कभी दण्डित
किया हो। ताजुब्ब
की बात यह
है कि कश्मीर
के एक बड़े
हिस्से को हड़पने
वाले पाकिस्तान और
चीन के खिलाफ
डॉ.फारूक अब्दुल्ला या
किसी भी सियासी
या अलगाववादी नेता
ने शायद कभी
अपनी जुबान खोली
हो,उस
हिस्से को वापस
करने की माँग
तो बहुत दूर
रही। ऐसे में
डॉ.फारूक अब्दुल्ला और
उनके मुख्यमंत्री बेटे
के कश्मीरियत के
राग की आड़
में उनके इस
फिरकापरस्ती के असली
खेल पर सवाल
क्यों नहीं उठने
और उठाने चाहिए? सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार ६३ब,
गाँधी नगर,
आगरा-२८२००३ मो.नम्बर-९४११६८४०५४
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