क्या यही है सामाजिक समरसता,न्याय, समता?
डॉ.बचन सिंह सिकरवार
गत दिनों केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा और उसके सहयोगी दलों द्वारा संसद में अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निरोधक) संशोधन अधिनियम‘ पारित कर दिखा दिया कि वोट बैंक/तुष्टिकरण की राजनीति में वह भी देश के काँग्रेस समेत दूसरे राजनीतिक दलों से किसी भी माने में भिन्न नहीं है। यही कारण है कि छोटे-छोटे मसलों पर संसद न चलने वाले ये सभी राजनीतिक दल उक्त अधिनियम को पारित कराते समय उसके साथ खड़े थे,क्यों कि इन सभी को भारतीय नागरिक के उस अधिकार की कतई चिन्ता नहीं,जो उसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में मिला है। इन्होंने देश के सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्णय की अनदेखी करने से भी गुरेज नहीं किया, जिसमें उसने इस अधिनियम के दुरुपयोग के कारण किसी भी भारतीय नागरिक के साथ होने वाले अन्याय का निवारण किया था। अब भाजपा समेत देश के सभी राजनीतिक दलों का यह कृत्य क्या इस अधिनियम के माध्यम से होने वाले भेदभाव को विधिक वैधता प्रदान कराने जैसा नहीं है? क्या यह अधिनियम भारतीय नागरिक की स्वतंत्रता को बन्धक नहीं बनाता? क्या यह विभेदकारी कानून नहीं है? उक्त अधिनियम पर पूरी संसद ने जिस तरह मिलकर संविधान के अनुच्छेद 14 तथा 21प्रावधानों तथा न्याय के सिद्धान्तों की अवहेलना करते हुए पारित किया है, वह उसका हैरान करने वाला कृत्य है। ऐसा लगता है कि संसद ने ठान लिया है कि कुछ खास मामलों में वह न संविधान की चिन्ता करेगी और न सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों को ही मानेगी। इन प्रश्नों का उत्तर सभी राजनीतिक दलों को ज्ञात हैं, पर वोट के प्रलोभन में देंगे नहीं। भाजपा एक ओर तो सामाजिक समरसता का ढोंग करती है,तो दूसरी ओर उसे भी काँग्रेस, बसपा, सपा की तरह दलित तुष्टिकरण से परहेज नहीं है।
वैसे भी देश की स्वतंत्रता के सात दशक से अधिक होने के बाद भी देश के राजनीतिक दलों और
उनके नेताओं ने न इतिहास की उन भूल-चूकों से सबक लेने की कोशिश की है जिनके चलते देश को हजारों साल की विदेशियों की दासता में रहना पड़ा और न स्वतंत्रता सेनानियों की उन संकल्पों की याद है जिनके लिए उन्होंने अपने जीवन का उत्सर्ग किया था। सच्चाई यह है कि संविधान और लोकतंत्र के नाम पर चुनाव जीतने के लिए ये राजनीतिक दल और उनके नेता हर तरह के हथकण्डे अपनाते हैं। इसके लिए उन्हें देश के लोगों को जाति-उपजाति, मजहब ही नहीं, भाषा , क्षेत्रवाद के बहाने आपस में लड़वाने से कभी परहेज नहीं रहा है। यहाँ तक कि कुछ राजनीतिक दलों को कुछ खास जाति वर्ग या मजहब से सम्बन्धित लोगों के देश की स्वतंत्रता, एकता, अखण्डता के खिलाफ कार्य करने पर भी कोई परेशानी नहीं है। वे जरूरत पड़ने पर उनका बचाव करने में भी संकोच और शर्म महसूस नहीं करते। ज्यादातर राजनीतिक दल देश और लोगों की उन्नति, सुरक्षा, सभी प्रकार के अन्यायों से छुटकारा दिलाने के प्रति कतई गम्भीर नहीं हैं। ये राजनीतिक दल किसी भी तरह सत्ता पाने और उसके माध्यम से धन तथा सुख-सुविधाएॅ भोगते आए हैं। जिस संविधान को अक्षुण्ण रखने को कुछ नेता रात-दिन राग अलापते रहते हैं उन्हीं की जातियों को आरक्षण को बढ़ाने के लिए इसमें बार-बार संशोधन होता आया है,जबकि संविधान में इसका सिर्फ 10वर्ष के लिए प्रावधान था। सामाजिक समता के लिए आरक्षण का यह प्रावधान सभी राजनीतिक दलों के लिए सत्ता पाने का सबसे बढ़िया अचूक औजार बन गया है।
यही कारण है कि ये राजनीतिक दल राष्ट्र के ज्वलन्त मुद्दों की अनदेखी कर समाज को बाँटने/तोड़ने/लड़ाने वाले जातिवाद और मजहब को विमर्श बनाये हुए हैं। ऐसे में इन सत्ता लोभियों से देश के लोगों के हर तरह से उन्नयन और कल्याण को लिए संकल्प लागू करने की अपेक्षा करना ही बेमानी है। इनसे राष्ट्र को सुदृढ़ करने को लोगों को तमाम तरह की विविधताओं, मतभेदों के रहते हुए उन्हें एकता के सूत्र में पिरोने और सामाजिक समरसता, न्याय और समानतापूर्ण व्यवस्था बनाने की भी कोई आशा नहीं है।
वैसे कुछ लोगों को भाजपा के इस कृत्य को देखकर यह आश्चर्य अवश्य हुआ होगा कि उसने भी अनुसूचित जाति-जनजाति(अत्याचार निवारण) अधिनियम को पारित कर वही किया, जो वर्षों पहले केन्द्र में सत्तारूढ़ काँग्रेस ने शाहबानों के गुजरा भत्ते के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटने के बाद किया था, उसके लिए भाजपा उसे मुस्लिम तुष्टिकरण का दोषी ठहराती आयी है। वास्तव में तब काँग्रेस ने मुस्लिमों के एकमुश्त वोट हासिल करने को ऐसा ही अधिनियम पारित किया था। उस समय काँग्रेस सरकार द्वारा मुस्लिम महिलाओं के हित में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को बदल कर जो गलती की थी, उसका खामियाजा वे अब तक उठा रही हैं। लेकिन उससे सबक न लेकर भाजपा ने काँग्रेस की गलती को ही दोहराया है,क्यों कि उसे भी 2019 के लोकसभा और मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान विधानसभा के चुनावों में दलितों के एकमुश्त वोटों की दरकार है, जिन पर काँग्रेस समेत दूसरे दल आँख गढ़ाये बैठे हैं। इन्होंने ही दलितों और उनके संगठनों को केन्द्र सरकार के खिलाफ यह कहकर भड़काया ,वह अनुसूचित जाति-जनजातियों को मिलने वाले आरक्षण को खत्म करने जा रही है। इसके बाद 2अप्रैल माह में दलितों ने देश के विभिन्न नगरों में जिस तरह हिंसा और आतंक मचाया है जिसमें कुछ लोगों की मौतें भी हुईं। उनके उस हिंसक आन्दोलन को किसी भी दशा में उचित नहीं माना जा सकता। लेकिन वोट बैंक की राजनीतिक के कारण किसी भी राजनीतिक दल ने उनके उस हिंसक आन्दोलन की खुलकर निन्दा नहीं की। इसमें जनसंचार माध्यमों का भी दोगला रवैया सामने आया। दलितों के हिंसक आन्दोलन की प्रतिक्रिया में कहीं-कहीं सवर्ण वर्ग के लोगों ने जुलूस निकाले, किन्तु वर्तमान में इस वर्ग के सुविधा जीवी तथा संघर्ष का माद्दा न होने के कारण किसी भी राजनीतिक दल ने उसे गम्भीरता से नहीं लिया। वैसे भी पहले काँग्रेस और अब भाजपा यह समझ बैठी है कि यह वर्ग तो राष्ट्रीयता या हिन्दुत्व के नाम पर न चाहते हुए उसे ही अपना वोट देने को विवश हैं।
हालाँकि गत 20मार्च को महाराष्ट्र के एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय से अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निवारण)अधिनियम के उन प्रावधानों /खामियों को खत्म कर दिया था जिनके कारण निर्दोष लोगों का उत्पीड़न होता था, क्यों कि उस अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज होते ही गिरफ्तार कर लिया जाता था और अन्तरिम जमानत का प्रावधान नहीं था। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में जाँच के बाद के मुकदमा दर्ज करने और अन्तरिम जमानत देने का निर्णय दिया था। इस अधिनियम में किसी सरकारी अधिकारी या कर्मचारी को गिरफ्तार करने से पहले उसके नियोक्ता की अनुमति और गैर सरकारी के मामले में पुलिस अधीक्षक(एस.पी.)स्तर के अधिकारी द्वारा जाँच करने तथा उसके लिखित आदेश के पश्चात् गिरफ्तारी का प्रावधान किया था। सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय संविधान के अनुच्छेद 21 को दृष्टिगत रखते हुए दिया था।
अब इसी वोट की राजनीति के चलते केन्द्र सरकार ने एस.सी./एस.टी.कर्मचारियों को न केवल प्रोन्नति में आरक्षण देने की तरफदारी की ह,ै बल्कि इसमें क्रीमी लेयर लागू नहीं करने की भी बात कहीं है। इस प्रावधान से तो इस वर्ग के उन लोगों का ही अहित होगा,जो अपने ही वर्ग के शिक्षित तथा आर्थिक रूप से सुदृढ़ से बहुत पीछे/कमजोर हैं।
इस मामले में केन्द्र सरकार के महाअधिवक्ता के.के.वेणुगोपाल की दलील थी कि एस.सी./एस.टी.वर्ग के व्यक्ति के सम्पन्न हो जाने के बावजूद उसे अपनी ही जाति में शादी करनी पड़ती है। वह उच्च जाति में शादी नहीं कर सकता, क्योंकि सम्पन्न होने से उसका जातिगत पिछड़ापन समाप्त नहीं होता। क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के नेता इस सच्चाई को नहीं जानते कि अपने देश में जातिवाद केवल सवर्ण वर्ग में ही नहीं, हर जाति और धर्म में है। क्या दलित और पिछड़े वर्ग में आने वाली जातियाँ में परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध होते हैं? यहाँ तक कि जिन मजहबों( इस्लाम, ईसाई,पारसी,बौद्ध,सिख,जैन आदि)में भी जाति प्रथा का प्रावधान नहीं है,पर अपने देश में यह प्रचलित है। महाधिवक्ता वेणु के उक्त दलील के उत्तर में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायीधीश आर.एफ.नरीमन यह कथन सर्वथा उचित है कि जाति हर धर्म में घुस आयी है। यहाँ तक कि उनके पारसी धर्म में भी है। उसका भी हिन्दूकरण हो गया है।
वस्तुतः आजकल सर्वोच्च न्यायालय में 12 वर्ष पुराने एम नागराज के फैसले को पुनर्विचार के लिए सुनवायी कर रहा है जिसमें पाँच न्यायाघीशों की संविधान पीठ ने कहा था कि पिछड़ेपन और अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के आँकड़े जुटाने के बाद ही सरकार एस.सी./एस.टी.को प्रोन्नति में आरक्षण दे सकती है। अब आरक्षण के मुद्दे पर केन्द्र सरकार के रुख से स्पष्ट है कि दलितों के वोट हासिल करने को वह भी रिपब्लिकन पार्टी, बसपा को पीछे छोड़ना चाहती है। तभी तो भाजपा की केन्द्र सरकार ने दलित वर्ग के एक महापुरुष के देश-विदेश में इतने बड़े स्मृति केन्द्र बनवाये हैं,जितने 70 साल में भी नहीं बन पाये थे। उसने उन सभी जाति वर्ग के छोटे से छोटे नेता के स्मारक बनवाये हैं जिनके एक मुश्त वोट उसे मिलने की सम्भावना है। इसके विपरीत उसने बड़े से बड़े देशभक्त क्रान्तिकारी,स्वतंत्रता सेनानी की याद में कुछ नहीं बनवाया,जिनकी जाति वर्ग के वोट मिलने की उसे उम्मीद नहीं थी। भले ही भाजपा राष्ट्रवाद,हिन्दुत्व,सामाजिक समरसता,विकास की बात करती है लेकिन जातिवाद और मजहब के नाम पर लोगों को बाँटने में किसी भी राजनीतिक दल से किसी भी माने में अलग नहीं है। अब भाजपा ही देश के लोगों को बताए कि वह ऐसे विभेदकारी कानून बनाकर किस तरह से सामाजिक समरसता, न्याय,समानता लाने की कोशिश कर रही है।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054
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