कौन बर्बाद नहीं कर रहा है हिन्दी को
डॉ.बचन सिंह सिकरवार
सबसे अधिक क्षोभजन है कि उसके साथ सबसे बड़़ा छल अपने को सबसे बड़े राष्ट्रवादी बताने वालों ने ही किया है जिनका कोई भी कार्य अँग्रेजी के बगैर नहीं होता। यहाँ तक कि उनके राजनीतिक जुमले, विरोधियों पर तंज भी परायी भाषा में ही गढ़े गए होते हैं। सरकार और उसके विभिन्न उपक्रमों के नामों का अँग्रेजीकरण किया जा रहा है। उदाहरण के लिए दूरदर्शन-डी.डी.न्यूज, लोकसभा टी.वी.-एल.एस.टी.वी., राज्यसभा टी.वी.-आर.एस.टी.वी.,भारतीय जीवन बीमा-एल.आई.सी., भारतीय स्टेट बैंक-एस.बी.आई., राज्य व्यापार निगम-एस.टी.सी.,पंजाब नेशनल बैंक-पी.एन.बी.आदि। आज भी केन्द्र सरकार के मंत्रालयों द्वारा कामकाज अँग्रेजी में किया जा रहा है और हिन्दी में भेजी रपट आदि स्वीकार नहीं की जाती। सरकारी छोटी-बड़ी नौकरियों की परीक्षाओं में अँग्रेजी का बोलवाला पहले से अधिक हो गया है। हिन्दी पाठ के साथ देवनागरी अंकों को अटलबिहारी वाजपेयी के केन्द्र में राजग सरकार के प्रधानमंत्री रहते हटाया गया था। अँग्रेजी के ज्ञान के बिना साधारण-सी नौकरी पाना असम्भव हो गया है, ऐसे में हर किसी को अपने बच्चे को अँग्रेजी माध्यम के स्कूलों पढ़ाना अपरिहार्य हो गया, लेकिन इन राष्ट्रवादियों को इससे कोई सरोकार नहीं है, जबकि ये ही सबसे अधिक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का राग आलापते रहते हैं। कोई उनसे पूछे क्या विदेशी भाषा विशेष रूप से गुलामी की भाषा से कैसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ा जा सकेगा? क्या उन्हें यह भी बताना पड़ेगा कि भाषा और संस्कृति का अनन्य सम्बन्ध है। इनसे ही व्यक्ति अपनी धरती, अपने लोगों और .उसकी विरासत से जुड़ता है। विश्व भर केद दौरे करने वाले अपने राजनेताओं को इतना भी ज्ञान नहीं है कि आज दुनिया के जितने भी विकसित देश हैं,वे किसी परायी भाषा विशेष रूप से अँग्रेजी के जरिए नहीं, बल्कि अपनी भाषा से ज्ञान, विज्ञान, तकनीकी में सिरमौर बने हैं। इनमें जापान, जर्मनी, फ्रान्स, चीन, रूस, इजरायल का नाम प्रमुख हैं। इजरायल ने मृत समझी जाने वाली भाषा हिब्रू को पुनर्जीवित कर उसके माध्यम से हर क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभा रहा है, लेकिन हम भारतीय हैं कि इनसे कोई सबक नहीं लेना चाहते हैं। कुछ लोग हिन्दी को दुरुह, क्लिष्ट बताते हुए उसे सरकारी कामकाज के योग्य नहीं मानते, तो कुछ वैज्ञानिक/विधिक शब्दावली न होने का रोना होते हैं। विडम्बना यह है कि ये लोग ही कभी अॅग्रेजी को सरल बनाने की कभी वकालत नहीं करते।
यहाँ तक अब हिन्दी पट्टी के राज्यों में शिक्षा के उन्नयन के नाम पर प्राथमिक विद्यालयों को अँग्रेजी माध्यम करके हिन्दी को शिक्षा से बाहर करने की शुरुआत कर दी है। हिन्दी अखबारों/टी.वी.चैनलों के पत्रकारों अब अधिकाधिक अँग्रेजी शब्दों के इस्तेमाल करने को कहा जा रहा है। यहाँ तक कि स्वदेशी के नाम पर कोराबार कर रहे योगी बाबा को अपने उत्पादों के विज्ञापनों में हिंग्रेजी में करने में तनिक भी परेशानी नहीं है।
जो राजनेताओं जिन गली, मुहल्लों, नगर, मार्गों, रेलवे,बस और हवाई अड्डों, शिक्षण संस्थाओं के नाम अपनी पार्टी, जाति/मजहब के नेताओं के नाम पर रखने पर अक्सर लड़ते-झगड़ते हैं, पर उनका अॅग्रेजी में संक्षिप्तीकरण कर उन्हें अर्थहीन बनने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं है जैसे महात्मा गॉधी मार्ग(एम.जी.रोड),रवीन्द्र नाथ टैगोर रोड(आर.एन.टी.रोड) मिर्जा इस्माइल रोड(एम.आई.रोड),तात्या टोपे नगर(टी.टी.नगर),जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय(जे.एन.यू),डॉ.भीमराव आम्बेडकर विश्वविद्यालय (डॉ.बी.आर.ए.यू), अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (ए.एम.यू.), रामकृष्ण पुरम(आर.के.पुरम)आदि। कम्प्यूटर पर टंकण की सुविधा के लिए हिन्दी के लेखन में अनुस्वर, अनुनासिक का भेद ही नहीं, उसकी वर्तनी को भी बदला जा रहा है। हिन्दी को सरल करने के नाम पर उसके वाक्यों में अरबी, फारसी, तुर्की, अँग्रेजी के शब्द जबरदस्ती ठँूसे जा रहे है। आभिजात्य वर्ग की देखादेखी आमजन भी अपना अँग्रेजी का ज्ञान जताने को अकारण अँग्रेजी शब्दों को प्रयोग कर रहे है, अब उन्हें ‘देर‘ या ‘विलम्ब‘ नहीं ‘लेट‘ ही याद आता है। इससे हिन्दी शब्दों का विस्थापन हो रहा है।यहाँ तक अपने हस्ताक्षर भी अँग्रेजी में कर गौरवान्वित होते हैं। वैवाहिक आमंत्रणपत्र भी परायी भाषा में छपवाकर अपने आभिजात्य वर्ग का जताने का प्रयास करते हैं।
ऐसे में हिन्दी की चिन्ता किसे हैं? सच यह है कि हिन्दी बोलने वालों को ही हिन्दी की इस हालत की परवाह नहीं है।ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा,कि हिन्दी कौन बर्बाद नहीं कर रहा है।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054
हाल में मॉरिशस में ग्यारहवाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन सम्पन्न होकर चुका है, जिसमें हिन्दी को तकनीकी रूप से समृद्ध करने का संकल्प लिया गया है। विश्व के कई देशों में हिन्दी सीखने के प्रति तेजी से बढ़ती दिलचस्पी, उससे लगाव और आकर्षण को लेकर अच्छा लगता है तथा उस पर गर्व का भी अनुभव होना चाहिए। आज देश में उत्तरी कोने में स्थ्ति जम्मू-कश्मीर के दूर-दराज के इलाकों से लेकर घुर दक्षिण-पश्चिम में स्थित केरल या फिर पश्चिम गुजरात से लेकर पूर्वाेत्तर में असम, अरुणाचल, नगालैण्ड, मणिपुर तक हिन्दी समझने -बोलने वाले मिल जाएॅगे। यह देश के आम से लेकर खास लोगों को एक-दूसरों को मिलाती और जोड़ती है। जो हिन्दी अपनी सरलता, सहजता, मधुरता, बोधगम्यता, भाषा विज्ञान की कसौटी पर सौ प्रतिशत खरी उतरने, बोलने-लिखने में समानता जैसी विभिन्न प्रकार की विशेषताओं के साथ विश्व में बोलने वालों की संख्या( 70 करोड़ से अधिक) के रूप में दूसरे-तीसरे स्थान पर होने और दुनिया के कई देशों में इसके बोलन-समझने वालों के कारण राष्ट्र संघ की भाषा होने की सारी अर्हता पूर्ण करती हैं, वहीं अपने ही देश में क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों नेताओं तथा उनकी गुलामी की मानसिकता के कारण न केवल हिन्दी राष्ट्रभाषा बनने से वंचित है, बल्कि 14 सितम्बर, सन् 1949 में संसद द्वारा संवैधानिक रूप से हिन्दी को राजभाषा घोषित किये जाने के बाद भी यह सर्वथा उपेक्षित या अँग्रेजी की दासी बनी हुई है। इसी कारण अँग्रेजी के जानकार को ज्ञानवान, योग्य, प्रथम श्रेणी का नागरिक तथा हिन्दी/अन्य भारतीय भाषाओं वालों को दोयम दर्जा का समझा जाता रहा है। देश के स्वतंत्र होने के बाद से ही हिन्दी को अपने सही स्थान पर आसीन न होने देने में आभिजात्य वर्ग(राजनेता, न्यायिक व्यवस्था में जमे लोग, न्यायाधीश/अधिवक्ता, नौकरशाह (प्रशासनिक/आइ.एफ.एस/आइ.पी.एस/आर.इ.एस.,पी.सी.एस.),चिकित्सक, इंजीनियर, धनिक वर्ग ) बाधक बना हुआ है, जो नहीं चाहता कि जनसामान्य की पहुँच देश की शासन- सत्ता और उच्च पदों तक हो तथा केवल उनके ही परिजन देश पर राज कर सकें। अगर सरकार ने हिन्दी को रोजी-रोटी रोजगार से जोड़ दिया गया, तो उस दशा में अँग्रेजी को कोई क्यों पूछेगा/बूझेगा?
इन सभी के षड्तंत्र के कारण अँग्रेजी का हर जगह वर्चस्व बना हुआ है। इसके चलते हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाएँ उच्च शिक्षा संस्थानों और व्यावसायिक शिक्षण संस्थानों, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, तकनीकी, प्रबन्धन ( मैनेजमेण्ट) यानी मेडिकल कॉलेजों,, आइआइटी, आइआइएम, इंजीनियरिंग आदि से ही नहीं, विधि (कानून) की शिक्षा से कोसों दूर हैं, उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय इन्हें अपनी भाषा बनने देने से स्पष्ट शब्दों में मना कर चुके हैं। कमोबेश यही हालत देश की सर्वोच्च शासकीय सेवाओं की परीक्षा लेनी वाली संस्था-‘संघ लोक सेवा आयोग‘ (यू.पी.एस.सी.) और कई राज्यों के राज्य लोक सेवा आयोगों की है। वैश्वीकरण और उदारीकरण के इस दौर में भारत में बड़े बाजार को देखते हुए बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने उत्पाद बेचने को उनका हिन्दी में प्रचार कर रही हैं। हिन्दी के महत्त्व को दृष्टिगत रखते हुए विश्व भर में कोई 125 शिक्षण संस्थानों में इसके अध्ययन की व्यवस्था है। इंग्लैण्ड की लन्दन यूनिवर्सिटी, कैम्ब्रिज तथा यॉर्क यूनिवर्सिटी, अमेरिका 32 विश्वविद्यालयों, जर्मनी में 15 शिक्षण संस्थानों, रूस आदि में हिन्दी पढ़ाई जाती है। चीन में सन् 1942 से हिन्दी अध्ययन की व्यवस्था है। वर्तमान में जहॉ हिन्दी मॉरिशस, फिजी, त्रिनिदाद, सूरीनाम, टुबैगो, संयुक्त अरब अमीरात, नेपाल की दूसरी भाषा है,वहीं तथा दक्षिण अफ्रीका, यूगाण्डा, सिंगापुर, न्यूजीलैण्ड, जर्मनी, यमन आदि में बड़ी संख्या में हिन्दी के बोलने वाले हैं। इण्टरनेट पर हिन्दी बहुत तेजी से बढ़ रहीं है। हिन्दी फिल्मंे और गाने दुनिया भर में लोकप्रिय हैं। सन् 1960 में गठित वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग अब तक साढ़े लाख से अधिक हिन्दी में नए और सरल वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्द बना चुका है,फिर भी इसमें उच्च शिक्षा में हिन्दी माध्यम में नहीं पढ़ाया जा रहा है।
लेकिन इसके विपरीत हिन्दी को अपने ही देश में अपनों के ही द्वारा हर रोज न केवल अनादर और उपेक्षा का दंश झेलना पड़ रहा है, बल्कि वह अपनी बर्बादी के मार्ग पर धकेले जाने को देखते रहने को भी विवश है। अपनी इस बेबसी/विवशता, दुर्दशा को लेकर हिन्दी पर क्या बीत रही है? यह वही जानती है। उसके दुःख का सबसे बड़ा कारण यह है कि उससे ही कमाने वाले, सत्ता हासिल करने वाले नेताओं से लेकर अभिनेता तक वक्त आने पर अँग्रेजी में बोलते ही अपना मुँह खोलते हैं। हिन्दी फिल्मों के नामावली अँग्रेजी में होती है, अब इनके नाम भी अँग्रेजी या हिंग्रेजी में आने लगे हैं। यहाँ तक इनके संवाद/गीतों में भी हिंग्रेजी की भरमार हो गई है। हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं, चैनलों के नाम ही अँग्रेजी में नहीं हैं, वरन् हिन्दी के नाम पर वे हिंग्रेजी परोस रहे हैं। देश के स्वतंत्र हुए सात दशक से भी अधिक गुजर जाने के बाद हिन्दी की वर्तमान हालत के लिए वे सभी लोग उत्तरदायी हैं जिन पर इस देश को सही माने स्वतंत्र, स्वाभिमान, उन्नत, आत्मनिर्भर बनाने का दायित्व हैं। अपने को जनवादी, मजदूर, किसान के हमदर्द, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद के घोर विरोधी बताने वाले वामपंथी अँग्रेजी के सबसे बड़े हिमायती बने हुए हैं। इन्हें हिन्दी हिन्दू साम्राज्यवादियों की भाषा दिखायी देती है। सबसे अधिक क्षोभजन है कि उसके साथ सबसे बड़़ा छल अपने को सबसे बड़े राष्ट्रवादी बताने वालों ने ही किया है जिनका कोई भी कार्य अँग्रेजी के बगैर नहीं होता। यहाँ तक कि उनके राजनीतिक जुमले, विरोधियों पर तंज भी परायी भाषा में ही गढ़े गए होते हैं। सरकार और उसके विभिन्न उपक्रमों के नामों का अँग्रेजीकरण किया जा रहा है। उदाहरण के लिए दूरदर्शन-डी.डी.न्यूज, लोकसभा टी.वी.-एल.एस.टी.वी., राज्यसभा टी.वी.-आर.एस.टी.वी.,भारतीय जीवन बीमा-एल.आई.सी., भारतीय स्टेट बैंक-एस.बी.आई., राज्य व्यापार निगम-एस.टी.सी.,पंजाब नेशनल बैंक-पी.एन.बी.आदि। आज भी केन्द्र सरकार के मंत्रालयों द्वारा कामकाज अँग्रेजी में किया जा रहा है और हिन्दी में भेजी रपट आदि स्वीकार नहीं की जाती। सरकारी छोटी-बड़ी नौकरियों की परीक्षाओं में अँग्रेजी का बोलवाला पहले से अधिक हो गया है। हिन्दी पाठ के साथ देवनागरी अंकों को अटलबिहारी वाजपेयी के केन्द्र में राजग सरकार के प्रधानमंत्री रहते हटाया गया था। अँग्रेजी के ज्ञान के बिना साधारण-सी नौकरी पाना असम्भव हो गया है, ऐसे में हर किसी को अपने बच्चे को अँग्रेजी माध्यम के स्कूलों पढ़ाना अपरिहार्य हो गया, लेकिन इन राष्ट्रवादियों को इससे कोई सरोकार नहीं है, जबकि ये ही सबसे अधिक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का राग आलापते रहते हैं। कोई उनसे पूछे क्या विदेशी भाषा विशेष रूप से गुलामी की भाषा से कैसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ा जा सकेगा? क्या उन्हें यह भी बताना पड़ेगा कि भाषा और संस्कृति का अनन्य सम्बन्ध है। इनसे ही व्यक्ति अपनी धरती, अपने लोगों और .उसकी विरासत से जुड़ता है। विश्व भर केद दौरे करने वाले अपने राजनेताओं को इतना भी ज्ञान नहीं है कि आज दुनिया के जितने भी विकसित देश हैं,वे किसी परायी भाषा विशेष रूप से अँग्रेजी के जरिए नहीं, बल्कि अपनी भाषा से ज्ञान, विज्ञान, तकनीकी में सिरमौर बने हैं। इनमें जापान, जर्मनी, फ्रान्स, चीन, रूस, इजरायल का नाम प्रमुख हैं। इजरायल ने मृत समझी जाने वाली भाषा हिब्रू को पुनर्जीवित कर उसके माध्यम से हर क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभा रहा है, लेकिन हम भारतीय हैं कि इनसे कोई सबक नहीं लेना चाहते हैं। कुछ लोग हिन्दी को दुरुह, क्लिष्ट बताते हुए उसे सरकारी कामकाज के योग्य नहीं मानते, तो कुछ वैज्ञानिक/विधिक शब्दावली न होने का रोना होते हैं। विडम्बना यह है कि ये लोग ही कभी अॅग्रेजी को सरल बनाने की कभी वकालत नहीं करते।
यहाँ तक अब हिन्दी पट्टी के राज्यों में शिक्षा के उन्नयन के नाम पर प्राथमिक विद्यालयों को अँग्रेजी माध्यम करके हिन्दी को शिक्षा से बाहर करने की शुरुआत कर दी है। हिन्दी अखबारों/टी.वी.चैनलों के पत्रकारों अब अधिकाधिक अँग्रेजी शब्दों के इस्तेमाल करने को कहा जा रहा है। यहाँ तक कि स्वदेशी के नाम पर कोराबार कर रहे योगी बाबा को अपने उत्पादों के विज्ञापनों में हिंग्रेजी में करने में तनिक भी परेशानी नहीं है।
जो राजनेताओं जिन गली, मुहल्लों, नगर, मार्गों, रेलवे,बस और हवाई अड्डों, शिक्षण संस्थाओं के नाम अपनी पार्टी, जाति/मजहब के नेताओं के नाम पर रखने पर अक्सर लड़ते-झगड़ते हैं, पर उनका अॅग्रेजी में संक्षिप्तीकरण कर उन्हें अर्थहीन बनने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं है जैसे महात्मा गॉधी मार्ग(एम.जी.रोड),रवीन्द्र नाथ टैगोर रोड(आर.एन.टी.रोड) मिर्जा इस्माइल रोड(एम.आई.रोड),तात्या टोपे नगर(टी.टी.नगर),जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय(जे.एन.यू),डॉ.भीमराव आम्बेडकर विश्वविद्यालय (डॉ.बी.आर.ए.यू), अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (ए.एम.यू.), रामकृष्ण पुरम(आर.के.पुरम)आदि। कम्प्यूटर पर टंकण की सुविधा के लिए हिन्दी के लेखन में अनुस्वर, अनुनासिक का भेद ही नहीं, उसकी वर्तनी को भी बदला जा रहा है। हिन्दी को सरल करने के नाम पर उसके वाक्यों में अरबी, फारसी, तुर्की, अँग्रेजी के शब्द जबरदस्ती ठँूसे जा रहे है। आभिजात्य वर्ग की देखादेखी आमजन भी अपना अँग्रेजी का ज्ञान जताने को अकारण अँग्रेजी शब्दों को प्रयोग कर रहे है, अब उन्हें ‘देर‘ या ‘विलम्ब‘ नहीं ‘लेट‘ ही याद आता है। इससे हिन्दी शब्दों का विस्थापन हो रहा है।यहाँ तक अपने हस्ताक्षर भी अँग्रेजी में कर गौरवान्वित होते हैं। वैवाहिक आमंत्रणपत्र भी परायी भाषा में छपवाकर अपने आभिजात्य वर्ग का जताने का प्रयास करते हैं।
ऐसे में हिन्दी की चिन्ता किसे हैं? सच यह है कि हिन्दी बोलने वालों को ही हिन्दी की इस हालत की परवाह नहीं है।ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा,कि हिन्दी कौन बर्बाद नहीं कर रहा है।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054
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