विभेदकारी, निर्दयी, और राष्ट्र विरोधी राजनीति

 डॉ.बचन सिंह सिकरवार 

हाल में चर्चा में आए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय तथा जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में दलित/पिछड़ों को आरक्षण न दिये जाने का मामला, श्रीनगर में शेर-ए-कश्मीर कृषि विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में राष्ट्रगान के समय बड़ी संख्या में छात्र-छात्राओं के जानबूझकर बैठे रहकर अनादर करने, मन्दसौर में बालिका के साथ सामूहिक बलात्कार और वीभत्स तरीके से घायल किये जाने,केरल में वामपन्थी छात्र संगठन के पदाधिकारी की  एक पीआईएफ संगठन द्वारा नृशंस हत्या, कश्मीर घाटी में पुलिस के जवान जावेद अहमद डार को अगवा कर हत्या किये जाने की घटना,जवाहर नेहरू विश्वविद्यालय की उच्च स्तरीय जाँच कमेटी द्वारा  उमर खालिद, कन्हैया कुमार,उनके साथियों पर देश विरोधी नारे लगाने के आरोपों को सही ठहराने तथा उन्हें दी गई  सजा को बरकरार रखने जैसी घटनाओं पर देश के विभिन्न राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के रवैये ने एक बार फिर स्पष्ट कर दिया है कि वे अपनी जिन कथित नीतियों तथा सिद्धान्तों का अक्सर बखान करते/दुहाई देते रहते हैं उससे उनका सिर्फ लोगों को भरमाकर वोट हड़पने भर का नाता/वास्ता है। ये किसी भी घटना की निन्दा और समर्थन भी पीड़ित की  जाति और उसका मजहब देखकर ही करते हैं।ये वोटों की खातिर  क्रूरता और निर्दयता की सीमा लांघ कर बड़ी से बड़ी जघन्य घटना पर चुप्पी साध लेते हैं या आरोपियों के बचाव में उतर आते हैं।  सत्ता पाने और उसमें बनने रहने के लिए इन्हें जाति/सम्प्रदाय/मजहब/क्षेत्र/भाषा की आड़ में विभेदकारी, विरोधियों की हत्याएँ कराने, यहाँ तक कि देशद्रोहियों की तरफदारी पर  उन्हें न तो किसी तरह की शर्म हैं और न परहेज ही। परिणामतः आज जाति विद्वेष और मजहबी नफरत की सियासत के जरिए समाज को तोड़ने एवं देश की एकता को चुनौती देने वाली शक्तियाँ देशहित में काम करने वालों को ही खलनायक और गुनाहगार साबित करने में जुटी हैं। 
  अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया विश्वविद्यालय केन्द्रीय विश्वविद्यालय हैं, फिर भी इनमें अन्य शिक्षण संस्थाओं की भाँति दलित/पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था नहीं है। अपने बचाव में ये दोनों विश्वविद्यालय स्वयं को अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान बताते हैं,जबकि केन्द्र और न्यायालय के निर्णय ऐसा नहीं मानते। आश्चर्य की बात यह है कि इनमें आरक्षण के  मुद्दों को भाजपा उठा रही है जिसे बसपा,सपा,काँग्रेस इन जातियों का  ही नहीं, आरक्षण व्यवस्था का भी विरोधी प्रचारित कर बदनाम करती आयी हैं, पर  इस मुद्दे पर दलित और पिछड़ों की समर्थक बसपा,सपा,काँग्रेस आदि राजनीतिक चुप्पी साधे हुए हैं, क्योंकि उन्हें इन दोनों वर्गों से कहीं ज्यादा फिक्र मुसलमानों को  नाराज न होने देने की है। इस मामले में राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष इन विश्वविद्यालयों को सरकारी अनुदान रोक देने की चेतावनी भी दे चुके हैं। इससे स्पष्ट है कि आरक्षण का समर्थन करने पर मुसलमानों के नाराज होने से बसपा का  दलित-मुस्लिम गठजोड़ के दम पर सत्ता पाने का ख्वाब बस ख्वाब बनकर  रह जाएगा। कमोबेश यही हालत सपा की है जिसकी सारी राजनीति ही  पिछड़ों और मुसलमानों के गठजोड़ पर टिकी है। इस मुद्दे पर मुसलमानों की खोई हुई हमदर्दी फिर से पाने को बेताब काँग्रेस अपना मुँह खोले तो कैसे? दूसरे राजनीतिक दलों की तरह ही भाजपा को भी दलित, पिछड़ों, सवर्णों से कोई विशेष प्रेम नहीं है, वह भी उन सारे हथकण्डे को अपनाती आयी है,जिनके लिए दूसरे राजनीतिक दल बदनाम हैं। भाजपा एक ओर तो सामाजिक समरसता का राग आलापती है,तो दूसरी ओर तरफ आरक्षण को हथियार बनाकर वोट हासिल करने को प्रोन्नति में आरक्षण का कानून बना कर  जातीय विद्धेष भ़ड़काने में लगी है। यहाँ तक कि विभिन्न जातियों को रिझाने को कुछ का महिमामण्डन कर झूठा इतिहास गढ़ने में लगी है। उसकी भी राष्ट्रहित की अपनी ही परिभाषा है,जिसमें परायी भाषा और विदेशी उत्पाद भी अब स्वदेशी हो गए हैं तथा पूँजीपति प्रबुद्ध नागरिक। हाल में मुस्लिमों को खुश करने को ही विदेशमंत्री सुषमा स्वराज्य ने पासपोर्ट अधिकारी का पक्ष जाने बगैर उसका तबादला कर दिया। उन्होंने  हिन्दू से मुस्लिम बनी महिला को बिना पूरी जाँच के एक घण्टे में पास पोर्ट दिला दिया,जबकि दूसरों की महीनों तक कोई सुनवायी तक नहीं होती।
गत दिनों श्रीनगर के शेर ए कश्मीर विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में राष्ट्रगान के दौरान कई छात्र-छात्राएँ उसके सम्मान खड़े होने के बजाय आराम से बैठे रहे, तो कुछ अपने मोबाइल को देखते रहे, लेकिन भाजपा के कुछ स्थानीय नेताओं के अलावा काँग्रेस, नेशनल कान्फ्रेंस के नेताओं ने यह कहकर उनका बचाव करते रहे कि ये छात्र जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों के कश्मीरियों के साथ कठोर बर्ताव को लेकर नाराज हैं,इसलिए उन्होंने ऐसा किया। वैसे भी इनमें से कभी किसी ने आजतक इन पत्थरबाज युवक-युवतियों के सुरक्षाबलों पर पत्थरबाजी करने, पाकिस्तान और आई.एस. का झण्डा लहराने या फिर पाकिस्तान जिन्दाबाद, हिन्दुस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाने की मजम्मत नहीं की है। यहाँ तक कि रमजान में सैन्यकर्मी राइफमैन औरंगजेब और अब पुलिसकर्मी जावेद अहमद डार को अगवा कर उसकी नृशंस हत्या करने किये जाने की निन्दा नहीं की,क्यों कि वे भी अलगावादियों की तरह कश्मीरियों के सेना-पुलिस में काम करने के खिलाफ हैं। इनके लिए इनका कश्मीरियत, जम्हूरियत, इन्सानियत से कोई वास्ता नहीं है जिसकी वे अक्सर दुहाई देते हैं। ये दिखावे को अलग-अलग सियासी पार्टियों से जरूर जुड़े हैं, लेकिन इन सभी का एक ही मकसद है किसी भी तरह इस सूबे को दारूल इस्लाम बनाना है। वैसे भी जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रीय ध्वज/राष्ट्र गान के अपमान की घटनाएँ विभिन्न स्कूल/कॉलेजों, विश्वविद्यालय, सड़कों से लेकर विधानसभा तक में आए दिन होती आयी हैं,पर ज्यादातर राजनीतिक दल खामोशी से यह सब देखते आए हैं। 
                    अफसोस की बात यह है कि ये राजनीतिक दल हत्या/बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों के मामलांे में भी जाति/मजहब देखते हैं। यही कारण है कि जम्मू के रसाना (कठुआ) में मुस्लिम बक्करवाल आठ साल की बालिका की बलात्कार के बाद हत्या को लेकर जम्मू- कश्मीर से लेकर देशभर में कुछ राजनीतिक दलों तथा संगठनों द्वारा जैसी बयानबाजी, विरोध प्रदर्शन,कैंडिल मार्च निकाले गए ,वैसे मन्दसौर में आठ वर्षीय बालिका के सामूहिक बलात्कार की घटना पर नहीं निकाले गए, क्यों कि जहाँ कठुआ में बलात्कार पीड़ित मुस्लिम और आरोपी हिन्दू थे, जबकि मन्दसौर की बालिका हिन्दू और आरोपी मुसलमान थे। ये विभेदकारी रवैया  सियासी पार्टियों और कुछ सामाजिक संगठनों का ही नहीं,बल्कि जनसंचार माध्यमों का भी रहा है इस घटना का समाचार छापने तथा दिखाने में भारी कोताही बरती। इसी 5जुलाई में दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश पर गठित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की उच्च स्तरीय जाँच कमेटी ने गत 9 फरवरी, 2016 को विश्वविद्यालय में उमर खालिद, कन्हैया कुमार और उनके साथियों द्वारा देश विरोधी नारे, भारत तेरे टुकड़े होंगे, कितने अफजल मारोगो, घर-घर अफजल पैदा होंगे, कश्मीर माँगे आजादी आदि जैसे देश विरोधी नारे लगाये जाने के आरोपों को सही मानते हुए इन सभी की सजा को बरकरार रखा है, लेकिन  इस मुद्दे पर विशेष रूप से वामपंथी पार्टियाँ, काँग्रेस, आम आदमी आदि पार्टियाँ अब भी उस घटना की सच्वाई को झुठलाने पर आमादा हैं या फिर उन्होंने  चुप रहना ही बेहतर समझा है। वस्तुतः इन सियासी पार्टियों ने अपनी वोट बैंक लिए राष्ट्रद्रोहियों की तरफदारी से कभी गुरेज नहीं किया है।
              यही कारण है कि इनकी जुबान तभी खुलती है, जब किसी समुदाय/जाति विशेष का मसला हो, इन्हें देशहित या फिर राष्ट्रगीत वन्देमातरम या राष्ट्रगान जनगण मन, फिर तिरंगे के अपमान का विरोध करने वाले कट्टरपन्थी हिन्दू या संघी /भाजपाई दिखाई देते हैं। इन्हें भाजपा/हिन्दुत्व विरोध की आड़ में घोर जातिवादी  राजनीति करने वालों, महाभ्रष्टाचारियों, अपराधियों का संरक्षण देने वालों में कोई खोट नजर नहीं आता। पश्चिम बंगाल में भारी हिंसा के बल पर पंचायत चुनाव में सफलता पाने वाली मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तृणमूल काँग्रेस पार्टी लोकतंात्रिक दिखायी देती हैं। केरल की हिंसा की राजनीति से भी इन्हें कोई परेशानी नहीं है, जहाँ अभी तक वामपंथियों द्वारा अधिकतर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर.एस.एस.) तथा कुछ काँग्रेसियों की नृशंस हत्याएँ की जाती रही हैं,  अब वामपंथी छात्र संगठन एस.एफ.आई.के कार्यकर्ता अभिमन्यु की हत्या एक मुस्लिम कट्टरपन्थी संगठन पी.आई.एफ.द्वारा किये जाने पर ज्यादातर सियासी पार्टियाँ खामोश हैं, क्यों कि ये सभी ही अब तक इसका बचाव करती आयी थीं। ये देश का दुर्भाग्य है कि यहाँ के बाशिन्दों ने इतिहास से कोई सबक नहीं लिया है। वे सत्ता के लोभ और आपसी द्वेष के लिए सदैव कुछ भी कर गुजरने को तत्पर रहते हैं,भले ही उनकी वजह से देश की स्वतंत्रता, सम्प्रभुता, एकता, अखण्डता को खतरा उत्पन्न हो जाए। इसलिए ऐसे स्वार्थी ,क्षुद्र मानसिकता रखने वाले सियासी नेताओं को बेनकाब करने को लोगों को स्वयं ही आगे आना ही होगा। 
सम्पर्क- डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63 ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054

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