फिर भी सब चुप हैं

डॉ.बचन सिंह सिकरवार
हाल में जम्मू-कश्मीरकी राजधानी श्रीनगर में अनंतानाग लोकसभा के लिए 12 अप्रैल को होने वाले उपचुनाव के लिए होने वाले मतदान रद्‌द के जाने के विरोध में नेशनल कान्फ्रेंस और काँग्रेस के कार्यकर्ताओं द्वारा उपायुक्त कार्यालय का घेराव करते हुए जिस तरह 'भारतीय लोकतंत्र मुर्दाबाद' के नारे लगा गए हैं, उससे यही लगता है कि इन दोनों दलों का देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में भरोसा नहीं है या फिर ये अलगाववादियों की राह पर चल पड़े हैं। इनमें नेशनल काँन्फ्रेंस  तो एक तरह से  श्रीनगर एवं अनंतनाग संसदीय क्षेत्रों के लिए हो रहे उपचुनावों का अलगाववादियों द्वारा किये जा रहे बहिष्कार  का समर्थन कर रही थी, जो पाकिस्तान की शह पर इस राज्य में अमन-चैन कायम करने में हर तरह की बाधा खड़ी करते आये हैं। फिर भी नेशनल काँन्फ्रेंस और काँग्रेस गत 9 अप्रैल को श्रीनगर संसदीय क्षेत्र के लिए मतदान में हुई जबरदस्त हिंसा के लिए सत्तारूढ़ पी.डी.पी.तथा भाजपा की साझा सरकार को जिम्मेदार ठहरा रही हैं। इस सच्चाई को जानते हुए भी देश की सियासी पार्टियों विशेष रूप से अपने पंथनिरपेक्ष बताने वाले दलों ने इनकी बेजा हरकतों की निन्दा, आलोचना/भर्त्सना करने की जरूरत महसूस नहीं की।
  वैसे यह बेजा हरकत  सिर्फ 'नेशनल कान्फ्रेंस' की होती, तो शायद ही किसी को आश्चर्य होता, क्योंकि उसके अध्यक्ष डॉ.फारूक अब्दुल्ला इस चुनाव से पहले ही अलगाववादियों की जुबान ही नहीं, वह बहुत-सी हरकतें भी उन्हीं जैसी करते आ रहे हैं। वह आतंकवादियों से मुठभेड़ के समय भारतीय सेना, सुरक्षाबलों, पुलिसकर्मियों
पर पत्थर बरसाने वालों को सही ठहराते हुए उन्हें वतनपरस्त और कश्मीर का असली वारिस साबित करते आये हैं, जो अपनी आजादी के लिए लड़ रहे हैं। कमोबेश ऐसा ही कुछ उनके बेटे और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी फरमाते रहे हैं। इससे यही साबित हैं तो ये दोनों भी किसी भी माने में अलगावादियों और मुल्क के दूसरे दुश्मनों से कम नहीं हैं। इन दोनों ने अपने सियासी फायदे के लिए कश्मीरघाटी की फिजा खराब करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। एक तरह से नेशनल कान्फ्रेंस ने अलगाववादियों के लोकसभा के लिए श्रीनगर एवं अनंतनाग संसदीय क्षेत्र के लिए हो रहे उपचुनावों का बहिष्कार समर्थन ही किया है जो किसी भी सूरत में इस इलाके में अमन-चैन की बहाली होने देने के खिलाफ हैं। वे दुनिया को दिखाना चाहते हैं कि यहाँ के लोग भारत के साथ रहना नहीं चाहते। अगर शान्तिपूर्ण तरीके से चुनाव के लिए मतदान सम्पन्न हो जाते, तो उनका मकसद कैसे पूरा होता ? अलगाववादियों के बहिष्कार  नतीजा यह निकाला कि 9 अप्रैल को श्रीनगर संसदीय क्षेत्र के मतदान के दिन हिंसा की अनेक घटनाएँ घटी,
क्योंकि अलगाववादियों के उकसावे पर युवा सुरक्षा बलों पर  पत्थरबाजी कर मतदान में व्यवधान डाल रहे थे। यहाँ तक कि वे सुरक्षा बलों के जवानों से हाथपाई कर उन्हें बन्दूक उठाने को मजबूर कर रहे थे। अलगाववादियों/आतंकवादियों ने लोगों को मतदान न करने का पहले ही फरमान जारी कर दिया था। इनके डर से लोग मतदान के लिए अपने घरों से नहीं निकले। इस कारण कुल केवल 7.14 प्रतिशत मतदान हुआ और कोई आठ लोगों सुरक्षा बलों की गोली से मारे गए तथा 150 सुरक्षाकर्मी, 12 मतदानकर्मी, 36 प्रदर्शनकारी घायल हुए। जहाँ इससे पहले लोकसभा के लिए सन्‌ 2014 में हुए चुनाव 26 प्रतिशत से अधिक वोट पड़े थे। उस समय डॉ.
फारूक अब्दुल्ला 42 हजार मतों से पी.डी.पी. के प्रत्याशी तारिक कर्रा से हारे थे, अब भी वह नेकां के उम्मीदवार हैं, लेकिन अब आद्गचर्य की बात यह है कि जम्मू-कश्मीर में पिछले लोकसभा के चुनाव में अपने सफाये और विधानसभा में अपेक्षित सफलता न मिलने से बौखलायी काँग्रेस भी अपने कथित सहयोगी दल नेशनल कान्फ्रेंस के नक्शे कदम पर चल पड़ी है, जो खुद को राष्ट्रवादी पार्टी बताती है। पता नहीं क्यों ? इसके नेताओं की समझ में इतनी-सी बात समझ क्यों नहीं आती, जनता उसके और दूसरे सियासी दलों के भ्रष्टाचार, वादाखिलाफी, अकर्मण्यता आदि कमियाँ-खामियों को तो एक दफा बर्दाश्त कर सकती है, पर उनकी देश के साथ गद्‌दारी करने वालों की तरफदारी को नहीं। वह अपने देश की स्वतंत्रता, सुरक्षा, एकता और अखण्डता के  साथ खिलवाड़ करने वालों को किसी भी सूरत में माफ नहीं करती।
फिर भी सियासी फायदे के लिए काँग्रेस पंथनिरपेक्षता का राग अलापते हुए अल्पसंखयक तुष्टीकरण की नीति पर चलती आयी है। जम्मू-कश्मीर में भी वह अल्पसंखयक हिन्दुओं, बौद्धों, सिखों समेत दूसरे समुदायों के हितों की बराबर अनदेखी और उपेक्षा करती आयी है। उसी का नतीजा है कि इस राज्य के कट्‌टरपंथी और अलगाववादी न केवल सत्ता सुख भोगते आ रहे है, बल्कि वे दूसरों के हकों पर भी खुलेआम डाका डालने में पीछे नहीं रहे हैं। नब्बे के दशक में जब इस्लामिक कट्‌टरपंथियों ने पाँच लाख से अधिक कश्मीरी पण्डितों को हिंसा के जरिए उन्हें घाटी से बेदखल किया, तब नेकां और काँग्रेस की साझा सरकार  थी जो कश्मीरी पण्डितों की दरिन्दगी से बचाने में नाकाम रही।
     वैसे हकीकत यह है कि कश्मीरके ज्यादातर नेता इन्सानियत, जम्हूरियत, कश्मीरियत  का राग महज दिखावे को अलापते हैं, ये सत्ता हासिल करने को आपस में लड़ते-झगड़ते भी नजर आते हैं, लेकिन असल में ऐसा कुछ नहीं है। इन सभी का असल मकसद इस इलाके को 'दारुल इस्लाम' बनाना है जिसे कथित सियासी मसला बताते हैं। इसका प्रमाण काँग्रेस वरिष्ठ नेता सैफुद्‌दीन सोज का ताजा बयान है जिसमें उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि कश्मीर समस्या पाकिस्तान ने पैदा नहीं की है, बल्कि यह हिन्दुस्तान की पैदा की हुई है, क्योंकि उसने लार्ड माउण्ट बेटन का सुझाव न मानते हुए कश्मीर का पाकिस्तान में विलय नहीं होने  दिया। इस तरह वे पाकिस्तान की जुबान नहीं, बल्कि इस मुद्‌दे पर उसकी हिमायत कर रहे थे। सैफुद्‌दीन सोज के इस देश विरोधी बयान का काँग्रेस के किसी नेता खण्डन करना उचित नहीं समझा। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, बल्कि लगातार होता आ रहा है। काँग्रेस के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का बताते हैं। उसके नेता दिग्विजय सिंह बटाला हाउस मुठभेड़ को फर्जी बताते हुए उसमें मारे गए आतंकवादियों को बेकसूर साबित करते हैं, जबकि उसमें पुलिस का एक इन्सपेक्टर शहीद हुआ था। पाकिस्तान के हमले में वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हाथ बताते हैं। महिषासुर दिवस समेत आतंकवादी याकूब मेनन की फाँसी का विरोध और मातम मानने वाले रोहित वेमुला और कन्हैयाकुमार का काँग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी समर्थन करते हैं। ऐसा करते हुए उन्हें यह खयाल कभी नहीं आया कि वह ऐसे शखस की हिमायत कर रहे, जो भारत तेरे टुकड़े होंगे, कश्मीर माँगे आजादी, अफजल हम शर्मिन्दा हैं, तेरे कातिल जिन्दा है' जैसे देश विरोधी नारे लगाता आया है। देश में गाय काटे जाने पर काँग्रेसी शान्त रहते हैं, किन्तु उसके प्रतिकार में हिन्दुओं द्वारा आवेश में कहीं गोवध करने वाले के साथ कुछ कर दिया, तो ये सभी पूरी हिन्दू कौम हत्यारा साबित करने पर उतर आते हैं। वह कश्मीर में हिन्दुस्तान मुर्दाबाद, पाकिस्तान जिन्दाबाद के साथ इस्लामिक आतंकवादी संगठन 'आई.एस. और पाकिस्तान के झण्डे लहराये जाने पर शान्त रहती है,पर इसके विरोध में हिन्दुओं की प्रतिक्रिया व्यक्त करने पर उनकी गिरफ्तारी की माँग करने लगती है। इन्हें पत्थर मारने वालों पर पैलेटगन चलाने पर तो दुःख होता, गुस्सा आता है, किन्तु इन पत्थरबाजों के हाथों घायल सुरक्षाबलों के जवान रहम कभी नहीं आता। ऐसे देश के लोग काँग्रेस को वोट कैसे दें ? इसलिए काँग्रेस ही नहीं, उसकी तरह पंथनिरपेक्षता का फर्जी राग अलापने वाली सपा, बसपा आदि भी अपना जनाधार लगातार खो रही हैं
 ऐसे में देश के लोगों को अब सत्ता के लिए देश की स्वतंत्रता, एकता, अखण्डता की परवाह न करने वाले सियासी दलों को सबक सिखाना जरूरी हो गया, ताकि कोई भी मुल्क की कीमत पर ऐसी सियासत करने की जुर्रत न करें।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार
63ब,गाँधी नगर, आगरा - 282003

मो.नम्बर-9411684054

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