पाकिस्तान की दहशतगर्दी के खिलाफ यह कैसी जंग?
पाकिस्तान सरकार के आतंकवाद के खिलाफ तथाकथित जंग के लड़ते अचानक स्वात घाटी में तालिबानों के संगठन ‘तहरीक -ए-निफाज-ए-शरीया-ए-मुहम्मदी'(इस्लामी कानून लागू करने की मुहिम-टी.एन.एस.एम.)के सरगना सूफी मुहम्मद साथ समझौता किये जाने से दुनिया के उन लोगों को जरूर हैरानी होगी ,जो उससे अमरीका के निरन्तर दबाव के चलते अपने मुल्क के मजहबी दहशतगर्दों के सफाये की उम्मीद लगाये हुए थे। यह समझौता पाकिस्तान में तालिबान के बढ़ते असर को ही दर्शाता है। पाकिस्तान की सेना ने अपनी मुहिम छोड़ यहाँ युद्धविराम भी घोषित कर दिया है। यह समझौता ऐसे वक्त हुआ है ,जब अमरीका राष्ट्रपति के विशेष दूत रिचर्ड होलब्रुक उपमहाद्वीप की यात्राा पर थे और पाकिस्तान सरकार पर ‘तालिबान' और ‘अलकायदा' के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई करने के लिए दबाव डाला जा रहा था। लेकिन आतंक के खिलाफ अमरीका की ‘वैश्विक युद्ध' का सबसे बड़ा और अहम मददगार पाकिस्तान ने दहशतगर्दों से ही हाथ मिला लिया है। इससे पाकिस्तानी सरकार की कमजोरी ही जाहिर होती है जो अपनी राजधानी इस्लामाबाद से महज १३० किलोमीटर दूर उत्तर-पश्चिम में स्थित मुल्क के ‘स्विट्जर लैण्ड' कहे जाने वाले ‘स्वात घाटी' पर हुकूमत खो बैठी है जहाँ चिनार के सघन वनों को अफगानिस्तान खदेड़े गये तालिबान अपना पनाहगाह बनाने में कामयाब हो गये हैं। इनसे मुकाबला करने की कुब्बत और हिम्मत न पाकिस्तानी सरकार में है और न उसकी फौज में ही। निश्चय ही पाक सरकार के इस कदम से अमरीका को गहरा सदमा पहुँचा होगा। साथ ही इससे अफगानिस्तान तथा भारत के लिए भी खतरा बढ़ गया है।
अब पाकिस्तान ने स्वात घाटी में जिन मौलाना सूफी मुहम्मद से समझौता किया है वह कौन है?यह भी जान लेना जरूरी है। वस्तुतः सोवियत संघ द्वारा गठित अफगान सरकार को गिराने के लिए पाकिस्तान अमरीकी सरकार ने जिन मौलवियों की मदद ली थी। उसके कारण ही ऐसे लोग पनपे हैं। सन् १९४२ में दीर जिले के कवाराज गाँव में मौलाना सूफी मुहम्मद का जन्म हुआ। कालान्तर में पश्चिमी सीमा प्रान्त में इन्हीं मौलाना ने टी.एन.एस.एम. नामक संस्था का गठन किया। सन् २००१ में ९नवम्बर के आतंकवादी हमलों के बाद जब अमरीका ने अफगानिस्तान की तालिबानी सरकार पर हमला किया , तब मुल्ला सूफी मुहम्मद स्वात के १०,०००लोगों को तालिबान की मदद के लिए अफगानिस्तान ले गए। इन दस हजार लोगों में से सिर्फ २००-३०० ही बच कर आ पाये। खुद मुल्ला अपने दस-बीस साथियों के साथ जैसे-जैसे जान बचाकर लौटे । तब अमरीका के दबाव और हजारों लोगों की जान गंवाने के लिए दोषी मानते हुए पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ ने २००२ में सूफी मुहम्मद को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। साथ इनकी तंजीम पर पाबन्दी लगा दी। मौलाना ने जमानत अर्जी देने से इसलिए मना कर दिया कि वह अदालत को गैर इस्लामी मानते थे। विपरीत इसके उसका दामाद मौलाना फैजलुल्लाह जमानत पर जेल से बाहर आ गया। सूफी मुहम्मद के जेल में रहने के कारण संगठन की कमान फैजलुल्लाह ने सम्हाल ली। बाद में सूफी मोहम्मद से उसके मतभेद हो गये। तब सूफी मुहम्मद ने उसे संगठन से निष्कासित दिया। लेकिन जेल के होने के कारण सूफी मुहम्मद की पकड़ संगठन पर कमजोर हो गई। लगभग सात साल जेल में रहने के पश्चात उन्हें तब छोड़ा गया , जब वह उत्तर-पश्चिमी प्रान्त के मुख्यमंत्री से शान्ति वार्त्ता के लिए तैयार हो गये। बुढ़ापे ने शायद सूफी मुहम्मद को तोड़ दिया। समझौते के अनुसार वह स्वात घाटी जाकर मौलाना फैजलुल्लाह और उसके समर्थकों से बात कर इलाके में शान्ति का प्रयास करेंगे और उनसे हथियार डालने के लिए कहेंगे। इस तरह समझौते की रूपरेखा और शान्ति बहाली के मकसद से अगस्त ,२००८ को जेल से रिहा किये गये। १८ फरवरी, २००९ को एक टी.वी. चैनल से बोलते हुए मौलाना ने प्रजातंत्रा को कुफ्र यानी इस्लाम के खिलाफ बताया।
इस बीच दामाद फैजलुल्लाह ने अल कायदा समर्थक तालिबान नेता बैतुल्ला महसूद की मदद से तालिबान की मुहिम तेज कर दी। सन् २००७ तक पूरे स्वात के ५९ गाँवों और २००९ में तक पूरे स्वात पर अपना कब्जा कर लिया। पाकिस्तान की १० से १५ ,००० सैनिकों की फौज भी करीब ४००० तालिबानों काबू में न कर सकी। स्वात में तैनात फौज में बहुत से फौजी पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त के पख्तून हैं। ज्यादातर तालिबान भी पख्तून हैं। इस वजह से पख्तून सैनिक अपने ही लोगों पर गोली नहीं चलाना चाहते हैं। पाकिस्तान में ऊँचे दर्जे के बहुत से कमाण्डरों को भी तालिबानों से हमदर्दी थी ,क्यों कि ये कमाण्डर जनरल जिया उल हक के शासन काल में मदरसों से सेना में भर्ती हुए थे। परिणामतः स्वात में पाकिस्तान के सैकड़ों सैनिकों को बन्धक बना लिया, उनके हथियार छीने लिए गए। इनसे मजहब के नाम पर कसम दिलायी गयी कि वे सेना की नौकरी छोड़ देंगे। बहुत से सैनिक मारे गए तथा बहुत से सेना छोड़ गए। हाल ही में राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने सेना की इस कमजोरी की ओर इशारा करते हुए कहा था कि तालिबान हमारी इसी कमी का फायदा उठा रहे हैं।
वस्तुतः स्वात घाटी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर यानी गुलाम कश्मीर के उत्तर-पश्चिम में स्थित है।
ऋग्वेद में स्वात नदी का वर्णन ‘सुवास्तु' के नाम से किया गया है।स्वात नदी हिन्दूकुश से निकल कर पेशावर के पास काबुल नदी में मिल जाती है। दो हजार वर्ष पूर्व पाकिस्तान के इस क्षेत्र में उदार, सुसंस्कत और अध्ययनशील समाज निवास करता था। यहाँ योजनाबद्ध नगर थे। पूरे क्षेत्र को ‘उद्यान' नाम से पुकारा जाता था। ईसा पूर्व ३२७ में सिकन्दर इस इलाके में लड़ता हुआ गुजरा था। ईसा पूर्व ३०५ में यह क्षेत्र मौर्य साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। तत्पश्चात सवा सौ वर्ष बाद यह क्षेत्र बौद्ध प्रभाव में आया। ऐसा माना जाता है कि इसी क्षेत्र में बौद्ध विचार वज्रयान का जन्म हुआ। इसी क्षेत्र के रहने वाले पद्मसम्भव बौद्ध तंत्रा पद्धति को तिब्बत ले गये थे। स्वात, बूनेर, दीर, बाजौर तथा आज की पेशावर घाटी वर्णन ऋग्वेद में ‘गांधार' क्षेत्र के नाम से हुआ है। महाभारत काल में राजा
धृतराष्ट्र की रानी गान्धारी इसी क्षेत्र की थीं। स्वात संग्रहालय में बुद्ध के पाँव की छवि रखी है। बुद्ध के निर्वाण के पश्चात उसकी भस्म सात राजाओं को दी गई थी , जिन्होंने अपने-अपने इलाकों में स्तूपों का निर्माण कराके उसे सुरक्षित रखा। तक्षशिला के हरमराजिका तथा स्वात के बुतकढ़ा स्तूप में बुद्ध की भस्म रखी है। कहा जाता है कि गांधार क्षेत्र के मूर्तिकारों ने ही सर्वप्रथम बुद्ध प्रतिमा बनाकर मानवीय रूप में प्र्रस्तुत किया। स्वात क्षेत्र में कई कबीले हैं। यहाँ के पख्तून पश्तो भाषा बोलते हैं जो अफीम की खेती करने के साथ इसकी और हथियारों की तस्करी भी करते हैं। यहाँ पर्यटक सैर सपाटे को आते थे तथा स्कींग आदि करते थे। इस क्षेत्र के लोगों की आय पर्यटकों से ही होती थी। लेकिन २००७ से यहाँ जंग छिड़ी हुई है। इससे आमदनी का यह जरिया बन्द हो गया है। परिणामतः यहाँ के लोग गरीब और अभाव की जिन्दगी बसर करने को मजबूर हैं। अब स्वात घाटी में तालिबान के वर्चस्व के बाद कश्मीर में इनकी हमलावर कार्रवाइयाँ बढ़ने की आशंका है। वैसे पाकिस्तान में तालिबानों का प्रभाव वहाँ अधिक है जहाँ गरीबी अधिक है। तालिबानों में ज्यादातर पठान हैं।
कुछ जानकारों का मानना है कि तालिबानों से यह समझौता पाकिस्तान और अमरीका की साझा चाल हो सकती है , क्यों कि इस समझौते से पहले पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी जानबूझकर दुनिया के तालिबानों की ताकत को बढ़ा- चढ़ा कर बखान कर उसका हौव्वा पैदा किया जिससे उससे हाथ मिलने पर कोई ज्यादा एतराज न करे और उसकी मजबूरी समझे। इसमें अमरीका के शामिल होने का अन्दाज लगाने की वजह यह है कि जब अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान पर उसके विशेष दूत रिचर्ड होलब्रुक भी आतंक को भारत, पाकिस्तान, अमरीका का ‘साझा दुश्मन' करार दे रहे थे। इसके बाद भी पाकिस्तान की सरकार ने ‘तहरीक-ए-निफाज-ए-शरीया-ए-मुहम्मदी' से समझौता कर लिया। फिर अमरीका ने अपनी जुबान नहीं खोली है। इस मामले में अमरीका के उपराष्ट्रपति जो बिडेन का यह बयान गौर फरमाने के लायक है जो उन्होंने अपने अफगानिस्तान के दौरान राष्ट्रपति हामिद करजई के सामने दिया था कि उनके लिए पाकिस्तान अफगानिस्तान से पचास गुना ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। इसलिए यह भी कहा जा रहा है कि कहीं तालिबान को भारत की तरफ मोड़ने की पाकिस्तानी रणनीति की अमरीका अनदेखी तो नहीं कर करेगा ? उस हालत में भारत को उनका मुकाबला करने की तैयारी रखनी होगी।
अब इस समझौते के बाद स्वात घाटी समेत सारे मलाकंद इलाके में शरीयत के कानून लागू होंगे , जिसके अन्तर्गत बालिकाओं की तालीम पर रोक लगा दी गयी है। वहाँ तालिबानों ने सैकड़ों लोगों का सिर कलम कर दिये है। यहाँ ४००लगभग स्कूल बन्द करा दिये गये हैं और उनके डेढ़ सौ से अधिक मदरसे जला दिये गये हैं। इससे लगभग ४०हजार लड़कियाँ शिक्षा से वंचित हो गईं। जिन स्कूलों ने तालिबान की समय सीमा पार होने के बाद शिक्षा जारी रखी उन्हें तोपों के गोलों से उड़ा दिया गया है। महिलाओं को अकेले घर से बाहर निकलने की इजाजत नहीं , सिनेमा , टेलीविजन तथा दूसरे मनोरंजन के साधनों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। मर्दों को दाढ़ी रखनी होगी और उनके पश्चिमी तरीके कपड़े पहनने न सख्त हिदायत दे दी है। हज्जामों की दुकानें बन्द करा दी गयी हैं। हालाँकि कुछ तालिबानी नेता इस समझौते को केवल शरीयत कानून करने तक सीमित बता रहे है और वे ज्यादा सख्त नहीं होंगे , किन्तु अत्याधुनिक हथियार थामे हुए ये तालिबानी मामूली मजहबी गुरुओं की तरह रहकर सिर्फ मजहबी मामलों में ही दखल देंगे ,यह कह पाना मुमकिन नहीं है। फिर जब तालिबान का हुक्म चलेगा, तब कई अलिखित कानून-व्यवस्था की सरकारी मशीनरी को भी बेमानी रहेगा।
पिछले दिनों तालिबान व्यवस्था को मान्यता दिये जाने के बाद स्वात के सबसे बड़े शहर मिंगोरा में जुलूस निकाला गया, जो मकसद ‘अमन चैन' लाना था। लेकिन जहाँ एक ओर स्वात में मौलाना सूफी मुहम्मद का खैरमखदम(स्वागत) हो रहा था, अज्ञात बन्दूकधारियों ने ‘दी न्यूज' के पत्राकार मूसा खानखेत को गोलियों से भून डाला। कातिलों ने पहले उसे अगवा किया और फिर नृशंसता से मार डाला।
‘दी न्यूज' के अनुसार स्वात में २००७ से यह चौथा पत्रकार था ,जिसे मार डाला है। इस हत्या से पाकिस्तान में सारे नगरों में पत्रकारों ने विरोध प्रदर्शन किया और जाँच की माँग की। स्वात प्रेस क्लब ने ‘जियो टी.वी.' के पत्राकार हामिद मीर ने मूसा को निडर पत्रकार बताते हुए कहा कि मैं बार-बार स्वात में आऊँगा। सिर्फ अपनी कलम तथा कैमरा लेकर मैं अपने काम के लिए मूसा की तरह शहीद हो जाने के लिए तैयार हूँ।
इधर आम पाकिस्तानी का विचार है कि तालिबान के खिलाफ जंग उनकी नहीं, अमरीका की है। सेना के बड़े तबके की राय भी यही है। मध्य वर्ग के पास अमरीका के समर्थन में सिर्फ एक तर्क है कि वह आर्थिक विकास में मददगार भर है।
कुछ जानकारों का यह विचार है कि पाकिस्तान की सरकार और सेना में तालिबान से लड़ने की इच्छा ही नहीं है, बल्कि वे तालिबान को और मजबूत देखना चाहते हैं, ताकि जब अफगानिस्तान में कोई राजनीतिक हल निकालने की बात हो, तब तालिबान का वजन ज्यादा हो। दरअसल , पाकिस्तान का मानना है कि अफगानिस्तान में उत्तर-पश्चिमी गठबन्धन की शक्तियाँ अमरीका तथा भारत के करीब हैं, इसलिए उनके ताकतवर होने से अफगानिस्तान में पाकिस्तान की हैसियत कमजोर हो जाएगी। तालिबान से उनकी नजदीकियाँ रही हैं इसलिए वे तालिबान को बनाए रखने और मजबूत करने में लगे रहते हैं। यह आरोप पाकिस्तान के उदारवादी तत्त्व ही लगा रहे हैं कि पाकिस्तान सरकार जान-बूझकर तालिबान को स्वातघाटी में मनमानी करने दे रही है।
हालाँकि इस समझौते का सीधा-सीधा मतलब इस इलाके की सत्ता तालिबान को सौंप देना है लेकिन इस वक्त पाकिस्तानी सरकार की हैसियत उससे टक्कर लेने की नहीं है। पश्मिोत्तर सीमान्त प्रान्त में तो तालिबान का कब्जा हो ही गया है। ये पंजाब में भी अपना दबदबा बढ़ा रहे हैं। अब पाकिस्तान के ‘डेली टाइम्स' अखबार ने २८फरवरी को यह समाचार प्रकाशित किया कि सिन्ध प्रान्त में दक्षिणी व्यापारिक केन्द्र कराची को कभी भी तालिबान बन्धक बना सकता है। प्रतिबन्धित ‘तहरीक-ए-तालिबान' का उपप्रमुख हसन महमूद कराची में छिपा हुआ है। तालिबान के पास हथियार और गोला-बारूद के भारी भण्डार हैं।
यह भी सच है कि सारे पाकिस्तानी तालिबान के पक्षधर हों ,पर इसके विरोध में खड़े होना उनके लिए सम्भव नहीं है। अब एक तरफ राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने यह कह रह है कि तालिबान के पाकिस्तान पर कब्जा कर लेने का खतरा है ,तो दूसरी तरफ प्रधानमंत्राी युसूफ रजा गिलानी यह बयान देते फिर है कि स्वात घाटी की समस्या से सिर्फ सैन्य बल से हल नहीं किया जा सकता। अब हकीकत यह है कि पाकिस्तानी राष्ट्राध्यक्ष और दूसरे नेताओं की यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि उनके लिए अमरीका और दुनिया का ज्यादा दिन भ्रमित करना सभ्मव नहीं होगा। उन्हें तालिबान और अलकायदा सरीखे दशहतगर्द गुटों के खिलाफ हकीकत में निर्णायक जंग लड़नी ही पड़ेगी। ऐसा किये बगैर न पाकिस्तान का अस्तित्व सुरक्षित और न लोगों का भविष्य।
सम्पर्क-डॉ.बचनसिंह सिकरवार
६३ब,गाँधीनगर,आगरा-२८२००३
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