ऐसे कैसे वापसी कर पायेगी काँग्रेस ?
डॉ.बचन सिंह
सिकरवार
हाल
में लोकसभा अध्यक्ष
द्वारा गोरक्षा के नाम
पर हो रही
हिंसा के खिलाफ
लोकसभा के अधिकारियों
की फाइलों से
कागज फाड़ कर उनके
गोले कर
उन पर फेंक
कर विरोध जताने,
अराजकता फैलाने और अशोभनीय
व्यवहार कर रहे
जिन छह काँग्रेसी
सांसदों का पाँच
दिन को निलम्बित
करने को विवश
होना पड़ा है,
इस निर्णय
पर प्रश्न चिह्न
लगाने और इन
हुल्लडबाजों के बर्ताव
को सही ठहराने
का कोई कारण
दिखायी नहीं देता।
उनके इस निलम्बन
का विरोध कर
विपक्षी दलों का कुछ
भला हो जाएगा,
इसके भी कोई
सम्भावना दिखाई नहीं देती।
अब जनता भी
चाहती है कि
उसने जिन प्रतिनिधियों
को बहुत सोच-विचार कर संसद
या विधानसभा में
चुन कर भेजा
है,वे वहाँ
गम्भीरता से उनकी
समस्याओं पर विचार
कर उनके
हित में कार्य
करें,न कि
इन सदनों के
अमूल्य समय का
अपने क्षुद्र स्वार्थो
के लिए बर्बाद
करें। वैसे इन
काँग्रेसी सांसदों के बर्ताव
से यह स्पश्ट
है कि काँग्रेस
ने अपनी हार
पर हार से
कोई सबक नहीं
लिया है। उसने
अपनी उन गलत
नीतियों और भूल-चूकों पर विचार
नहीं किया, जिनकी
वजह से जनता
से नकार रही
है। ऐसे लगता
है कि उसके नेतृत्व को
जनभावनाओं की समझ
नहीं है या
फिर वह समझना
ही नहीं चाहता।
यहाँ तक कि
उसने अपनी के
पार्टी के नेता
रहे राश्ट्रपति प्रणव
मुखर्जी की हाल
में संसद में दी
गई नसीहत पर
ध्यान देना भी
जरूरी नहीं समझा। काँग्रेस
समेत विपक्षी सांसदों
की यह समझ
में नहीं आता
कि विरोध के
लिए विरोध करने
या संसद
या विधान सभाओं
में हुल्लड़ करने
से आम लोगों
की भावनाओं की
अनदेखी कर उनकी
सहानुभूति तथा
सहयोग प्राप्त
कर सत्ता हासिल
नहीं की जा
सकती। लेकिन इस
यथार्थ के विपरीत
अब भी जाति
और मजहब की
राजनीति और उनके
तुश्टिकरण की नीति
के जरिए फिर सत्ता
पाने का ख्वाब
देख रही है
जो अब आसानी
से सम्भव नहीं
है। इसका कारण
यह है कि
देश के लोग
राजनीतिक रूप से
काफी परिपक्व हो
गए,वे जानते
है कि देश
के लिए क्या
सही है और
क्या गलत? हकीकत
यह है कि
अब भी काँग्रेस
नेतृत्व को न
तो अपनी घिसी
पिटी रीति-नीतियों
में कुछ अनुचित
दिखायी दे रहा
है और न
अपनों को एकजुट
बनाये रखने की
आवश्यकता ही अनुभव
हो रही है।
उसकी निष्क्रियता के
कारण गोवा और
मणिपुर में सबसे
अधिक विधायक होते
हुए वह अपनी
पार्टी की
सरकार नहीं बन
पाया। अरुणाचल के
तत्कालीन मुख्यमंत्री को मुलाकात
का समय न
देकर नाराज कर
उन्हें दल
बदल करने को
मजबूर किया। परिणामतः
काँग्रेस पराजय
का मुँह देखने
के साथ-साथ
संगठन के स्तर
पर भी सिकुड़
रही है। अफसोस
की बात यह
है कि इस
पर भी वह
बेपरवाह बनी हुई
है।उनके
बना
फिर
काँग्रेस सांसद जिस गोरक्षा
के नाम पर
हो रही हिंसा
के मुद्दे पर
सदन में चर्चा
की माँग कर
रहे थे उसके
पक्ष में सरकार
तथा अध्यक्ष भी
थीं। सरकार स्वयं
ंिहसक भीड़ का
निशाना बन रहे
दलित और अल्पसंख्यक
के मुद्दे पर
बहस को पूरी
तरह तैयार थी,ऐसे काँग्रेसियों
को खुद को
उनका सबसे बड़ा
हितैशी दिखाने को लोकसभा
को बाधित करने
को देश की
जनता कैसे उचित
मान सकती है।
वैसे भी संसद में
विपक्ष द्वारा इस तरह
का हंगामा पहली
बार नहीं हुआ
है कि जब
सरकारी पक्ष चर्चा/बहस के
लिए सहमत हो।
ऐसा अब आये
दिन होता है
और कई बार
तो चर्चा का
नोटिस दिये बिना
ही सम्बन्धित मसले
पर बहस की
जिद् की जाती
है। आखिर विपक्ष
ने ऐसा क्यों
मान लिया है
कि उस पर
किसी तरह के
नियम-कानून लागू
नहीं होते? यदि
ऐसा कुछ नहीं
है तो फिर
निर्धारित प्रक्रिया का पालन
किये बगैर चर्चा
करने य सरकार
से जवाब माँगने के बहाने
संसद और देश का
वक्त जाया करने
वाली हरकतें क्यों
की जाती हैं?
बहुत दिन नहीं
हुए जब काँग्रेसी
सांसद सदन में
नारे लिखी तख्तियाँ
लेकर जाते थे
और इसके लिए
अतिरिक्त कोशिश करते थे
जिससे उनकी करतूत
लोकसभा में लगे
टी.वी. कैमरों
में समा जाएँ।
लेकिन इन फिजूल
की हरकतों से
कोई राजनीतिक दल
या नेता लोगों
के दिलों जगह
नहीं बना सकता।
अब काँग्रेस
जनता के असल
मुद्दों भूख, गरीबी,
बेरोजगारी, भ्रश्टाचार, पीने का
पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य
सुविधाओं समेत मूलभूत
आवष्यताओं का अभाव, अर्थिक
विशमता, अन्याय,अत्याचार, आन्तरिक
और बाह्य सुरक्षा
को छोड़ कर
दलितों से फर्जी
हमदर्दी जताने को
कभी रोहित वेमुला,
तो कभी कन्हैया
कुमार जैसे कथित
नक्सलवादियों, जातिवादियों, अलगाववादियों, आतंकवादियों के समर्थक
ही नहीं, भारत तेरे
टुकड़े होंगे, कश्मीरमाँगे
आजादी, मणिपुर माँगे आजादी आदि
जैसे देश विरोधी
नारे लगाने वालों
के पक्षधर बनने
में संकोच नहीं
करती। क्या उसके
इस कदम को
देश की जनता
सही मानेगी?
गोरक्षा
के नाम पर
किसी व्यक्ति की
हत्या किये जाने
की इज्जत नहीं
दी जा सकती
और इसके लिए
दोशियों को किसी
भी सूरत में
बख्षा नहीं जाएगा।
यह बात देश
के प्रधानमंत्री नरेन्द्र
मोदी स्वयं कह
चुके हैं। फिर
भी विपक्षी दल
विषेश रूप से
इस मुद्दे काँग्रेस
प्रधानमंत्री मोदी और
उनकी सरकार तथा
पार्टी को घेरने
को कोई मौका
नहीं चूकती। यहाँ
तक उसने गायों
के तस्करों
के हाथों बरेली
में मारे गए
पुलिस इन्सपेक्टर मनोज
मिश्रा, कर्नाटक में पुजारा
बन्धुओं,आगरा के
एक युवक माहौर
की हत्या की
निन्दा करने तक
नहीं की, लेकिन
बिसहाड़ा में अखलाख,
गुजरात तथा राजस्थान
की गोहत्या किये
जाने या सन्देह
में मारपीट करने/हत्या करने किये
जाने पर जमीन-असमान एक दिया।
यहाँ तक कि
हाल में केन्द्र
सरकार के पशु
विक्रय को लेकर
बने कानून के
विरोध में केरल
में कुछ काँग्रेसियों
ने गाय का
खुल आम वध
कर बीफ पार्टियों आयोजित कीं,
लेकिन काँग्रेसी नेतृत्व
ने बहुसंख्यक हिन्दुओं
की भावनाओं के
आहत किये जाने
पर उनके
इस दुषत्य की
निन्दा/आलोचना नहीं की।
पष्चिम
बंगाल में मुख्यमंत्री
ममता बनर्जी तृणमूल
काँग्रेस की सरकार की
अल्पसंख्यक तुष्टिकरण नीति के
चलते वहाँ बार-बार साम्प्रदायिक
दंगे हो रहे
है,जिनमें अनेक
हिन्दुओं की जान
जानें के साथ
ही उनकी सम्पत्ति
बर्बाद हुई है।
फिर भी काँग्रेस ने
उनकी नीति के
खिलाफ कोई बयान
तक नहीं दिया
है। ऐसे ही
जम्मू-कश्मीरके पूर्व
मुख्यमंत्री डॉ.फारूक
अब्दुल्ला और उनके
बेटे उमर अब्दुल्ला
जब तक अलगाववादियों
से हमदर्दी और
सुरक्षा बलों पर
पत्थरों बरसाने वालों को
कश्मीरका असली वारिस
बताते आए हैं।
यहाँ तक कि
हाल डॉ.फारूक
अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीरसमस्या के हल
में चीन और
अमरीका की मध्यस्थता
जैसे राश्ट्र विरोधी
बयान की भी
खुलकर आलोचना नहीं
कर सकी। जहाँ
तक कि प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी की
राजग सरकार का
सवाल है तो
काँग्रेस अकारण
उसकी हर नीति
का अकारण हरदम
विरोध करने में
तैयार रहती है
जबकि उसकी
ज्यादातर नीतियाँ काँग्रेस की
ही हैं,जिन्हें
वह उन्हीं नाम
से या फिर
उनका नाम बदल
कर उन्हें
बस बढ़-चढ़
कर लागू कर
रही है। वैसे
भी भाजपा पर
अब काँग्रेस की
कार्बन कापी बन
जाने का आरोप
लगने लगा है।
इतना ही नहीं,
काँग्रेस को इतना
भी याद नहीं
कि उसकी संप्रग
सरकार भ्रश्टाचार के
मुद्दे पर जनता
ने हराया था,
फिर भी वह
बिहार में महागठबन्धन
बचाने को राजद
नेता लालू यादव
परिवार के विषेश
रूप से उपमुख्यमंत्री
तेजस्वी यादव पर
लगे भष्टाचार के
आरोपों के बावजूद
उसका समर्थन करने
पर आरूढ़ है
जिसे मुख्यमंत्री नीतीश
कुमार अपने मंत्रिमण्डल
से हटने का
संकेत दे चुके
हैं। लेकिन जनभावना
के विपरीत अपने
सियासी फायदे देखते हुए
काँग्रेस लालू यादव
का खुलकर हिमायत
कर रही है। ऐसे
में काँग्रेस जनता
का भरोसा कैसे
जीत सकती है ?
वह स्वयं विचार
करे। इसके सिवाय
काँग्रेसी नेतृत्व अपने बड़े
नेताओं को अपने
संग रख पाने
में भी असमर्थ
है उससे असन्तुष्ट
होकर उसके प्रभावशाली नेता एक-एक पार्टी
छोड़ कर जाने
पर मजबूर हैं। इनमें
गुजरात के कद्दावर
काँग्रेसी नेता षंकर
सिंह बाघेला,कर्नाटक
के मुख्यमंत्री तथा
केन्द्रीय मंत्री रहे एस.एम.कृष्णा,
उ.प्र.काँग्रेस
अध्यक्ष रहीं रीता
बहुगुणा जोशी, पूर्व सांसद
जगदम्बिका पाल, दिल्ली
में कृष्णा तीरथ,
तमिलनाडू जयन्ती नटराजन, आन्ध्र
प्रदेश डी.पुन्देश्वरी,
उत्तराखण्ड पूर्व मुख्यमंत्री विजय
बहुगुणा समेत कई
दूसरे नेता प्रमुख
हैं। फिर काँग्रेस
नेतृत्व स्वयं को सुधार
करने पर विचार
करने तक को
तैयार नहीं है,
लेकिन यह भी
तय है कि
केवल दूसरों के
दोश दिखाने-गिनाने
से सत्ता नहीं
मिलती है। अगर
काँग्रेस ने समय
रहते अपने को
नहीं बदला, तो
उसके दिन फिरने
के ख्वाब बस
ख्वाब ही बने
रहेंगे।
सम्पर्क-डॉ.बचन
सिंह सिकरवार, 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003
मो.नम्बर-9411684054
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