ये कैसे मुजाहिद?
डॉ.बचन सिंह सिकरवार
इस्लाम
समेत किसी भी
मजहब में भले
ही बेगुनाहों का
खून बहाना या
उनकी जान लेने
को जायज नहीं
माना है और
ऐसा किया जाना
इन्सानियत के खिलाफ
बताया है। फिर
खासतौर पर इस्लाम
तो अमन, भाईचारे,
प्रेम, बराबरी का दर्जा
देने वाला मजहब है।
विडम्बना यह है
कि फिर भी
आदिकाल से हर
मजहब के मानने
वालों ने अपने
मकसद को हासिल
करने के लिए
उसकी कभी परवाह
नहीं की है।
इसके विपरीत ऐसे
गुनाहों को छुपाने
ये लोग को
खुद को उस
मजहब का सबसे
बड़ा ‘मुजाहिदिन धर्म रक्षक, धार्मिक
योद्धाद् साबित करते आए
हैं, ताकि और
लोगों को अपने
मकसद के साथ
जोड़ा जा सके।
ऐसे लोग किसी
एक मजहब से
नहीं, हर धर्म/मजहब से
जुड़े हैं। यही
कारण है कि
इनमें से कुछ
ने अपने गिरोह
के नाम के
साथ अपने मजहबी
पहचान को जोड़ा
हुआ, जैसे अलकायदा,
लश्कर ए तैयबा,
हिजबुल मुजाहिदीन, जैष-ए-मुहम्मद, लश्कर-ए-इस्लाम, जमात-उल-मुजाहिदीन आदि। इन्होंने
सबसे ज्यादा किसी
गैर मजहबियों से
कहीं ज्यादा अपनों
का न केवल
हर तरह से
बर्बाद किया है,बल्कि उनका खून
भी बहाया है।
दुनिया में आज
सबसे अधिक विस्थापित
इन्हीं किये गए
हममजहबी हैं जो
आज अमरीका समेत
यूरोप के तमाम
देषों में शरणार्थी
बनकर रहने को
मजबूर हैं। कश्मीरघाटी
में कष्मीरियों की
जिन्दगी इन्हीं ने दोजख
सरीखी बना दी।
यहाँ युवा पीढ़ी
का भविष्य
बर्बादी के कगार
पर है,पर
इन्हें तो अपने
कथित जेहाद से
मतलब है। अफसोस
की बात यह
है कि जाने-अनजाने में मजहबी
जुनून में उसके
मानने वाले उनकी
इस गैरमजहबी बात
की मजम्मत करने
के बजाय सही
मानते आए हैं,
इसलिए अब तक
ऐसे लोगों के
इन गैरमजहबी हरकतों
पर रोक नहीं
लग पायी है।
गत
10 जून को दक्षिण
कश्मीरके अनन्तनाग के बटेंगू
में अमरनाथ की
तीर्थयात्रा कर लौट
रहे लोगों पर
दहशतगर्दों का कोई
चौदह साल बाद
गया हमला
इसी हकीकत को साबित
करता है, जिसमें
उन्होंने अन्धाधुन्ध गोलियाँ बरसा
कर 19 लोगों को जख्मी
करने के साथ-साथ 7 को मार डाला।
इनमें 5 महिलाएँ और 2 दो पुरुष
हैं। वैसे बाकी
तीर्थयात्रियों की जान
बचाने वाला भी
बस चालक कोई
और नहीं, सलीम
शेख ही था।
सम्भवतः दहशतगर्दों
ने इन तीर्थयात्रियों
को अपना निशाना
अनजाने में नहीं,
बल्कि सोची समझी
साजिष के तहत
लगाया, ताकि हिन्दुओं
को इस सूबे
में स्थित बर्फानी
बाबा अमरनाथ, माता
वैष्णों देवी समेत
उनके तमाम तीर्थस्थलों तक
आने से रोका
जा सके। ऐसा
किये बगैर उनका
यहाँ काबिज होने
में कामयाबी हासिल
होना नाामुमकिन है।
वैसे भी हिन्दुस्तान
में किसी भी
सियासी पार्टी की सरकार
बन जाए, पर
उसके लिए हिन्दुओं
को नाराज कर
ऐसा कोई भी
समझौता कर पाना
सम्भव नहीं, जिससे
उनका इन तीर्थस्थलों
से कैलास मानसरोवर
जैसा नाता टूटता
हो। देश के
लोग प्रधानमंत्री पण्डित
जवाहर लाल नेहरू
को उनकी तिब्बत
नीति के लिए अब
तक कोसते हैं
जिसके कारण देश
की सुरक्षा को
खतरा पड़ने के
साथ-साथ भगवान
शिव के वास
कैलास मनसरोवर से
भी हाथ बैठे
हैं। अब वहाँ
की तीर्थयात्रा चीन
की दया पर
निर्भर हो गया
है। इसी साल
चीन ने कैलास
मानसरोवर के तीर्थयात्रियों
को सिक्किम से
सीमा से मार्ग
खराब होने के
बहाना बना कर
लौटा दिया है।
किया
यह वारदात देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं की
आस्था पर सीधा
हमला था। इस
घटना से वे
एक बार स्तब्ध
रह गए, किन्तु
उन्हें इस आघात
से सम्हलने में
भी देर नहीं
लगी, क्यों कि
इस देश के
लोग हजारों साल
से विदेषी हमलावर
हमले झेलते जो
आए हैं फिर
उनकी स्वतंत्र रहने
और उनकी अपने
धर्म के प्रति
आस्था में कोई
कमी है। इन
हमलावरों ने हिन्दुओं
के आस्था केन्द्र
मन्दिरों को जमींदोज
और मूर्तियों को
नष्ट-भष्ट किया।
उन अपना धर्म
मानने पर जाजिया
;धार्मिक करद्ध , तीर्थकर तक
चुकाने के साथ
तमाम तरह के
अपमान और पाबन्दियाँ
झेलनी पड़ी। यहाँ
तक बहू-बेटियों
की इज्जत या
प्राण बचाने को
धर्मान्तरण तक करने
को मजबूर होना
पड़ा है। अब
यही कारण है
कि अब अमरनाथ
के तीर्थयात्रियों के
उत्साह में कोई
विशेष कमी नहीं
है। निश्चय ही
इससे कश्मीर को
दारूल इस्लाम बनाने
में जुटे इन
दहषतगर्दों के मंसूबों
पर पानी फेर
दिया है। हालाँकि
दिखावे के अलगावादी
और डॉ.फारूक
अब्दुल्ला और उनके
बेटे उमर अब्दुल्ला
ने इस घटना
की निन्दा की
है, जबकि ये
ही अप्रत्यक्ष रूप
से इन दहशतगर्दों
की नापाक हरकतों
की हिमायत करते
रहते हैं। डॉ.फारूक अब्दुल्ला तो
दहशतगर्दों के हिमायती
पत्थरबाजों को कश्मीर
का सच्चा सिपाही
समेत न जाने
कितनी उपाधियाँ रहते
है इसी केी
बदलौत फिर सांसद
क चुनाव में
कामयाबी हासिल कर ली।
दरअसल कश्मीर में
जहाँ कुछ लोग
इस सूबे को
दारूल इस्लाम बनाने
को हिजबुल मुजाहिदीन
या लश्कर -ए-तैयबा, अहल-ए-हदीस जम्मू-कश्मीर, जमाते-ए-इस्लामी,
जैश-ए-मुहम्मद,
दुख्तरान-ए-मिल्लत
आदि संगठनों तंजीमोंद्ध मे शामिल होकर भारतीय
सुरक्षा बलों, सैनिकों का
खून बहा रहे
हैं, वहीं अलगाववादी
और डॉ.फारूक
अब्दुल्ला सरीखे सियासतदार सियासत
के चोले की
आड़ में।
वैसे अमरनाथ
और वैष्णो देवी
के तीर्थयात्रियों पर
दहशतगदों ने ऐसा
हमला पहली बार
नहीं किया है।
पिछली बार सन्
2003 में वैष्णो देवी के
आधार शिविर पर
हमला कर आतंकवादियों
ने 8 श्रद्धालुओं को
मार डाला, सन्
200में दो हमलों
में 10तीर्थ यात्री
मारे गए तथा
25 घायल हुए थे।
इसके पश्चात सन् 2001में 15 श्रद्धालुओं को तथा
फिर सन् 2000 में
35 तीर्थयात्रियों को मार
डाला। तत्पपश्चात् सन्
1996 में दहशतगर्दों के
हमले हुए, पर
कोई क्षति नहीं
हुई। इसके बाद
सन् 1995 में भी
तीन हमले हुए,पर जनहानि
नहीं। फिर सन्
1994में दो तीर्थयात्रियों
को अपनी जान
गंवानी पड़ी थी।
इसके उपरान्त सन्1993में दो
हमलों में तीन
की मार गए
थे। इस तरह
ये दहशतगर्द के
कोई डेढ़ दशक
से अधिक समय
से अमरनाथ तीर्थयात्रियों
पर हमला करने
का सिलसिला बनाये
हुए,जबकि इससे
सबसे ज्यादा आर्थिक
कश्मीर मुसलमानों को होता
है जिनसे उनकी
रोजी -रोटी चलती
है।लेकिन इन दहशतगर्दों
को हममजहबियों की
इस नुकसान से
क्या मतलब?वे
तो उन्हें अपने
मकसद के लिए
मजहब की दुहाई
देकर इस्तेमाल करते
हैं।
अगर
इन दहशतगर्दो के
लिए मजहब के
कुछ माने होते,तो क्या
ये दुनियाभर में
मस्जिदों को ढहाते
और नमाज पढ़ते
खुदा के बन्दों
की जान लेते?
इन दहशतगर्दो के
कारण आज दुनियाभर
गैर मुसलमानों की
ही नहीं, इस्लाम
को मानने वाले
भी महफूज नहीं।
यमन,सीरिया,इराक,पाकिस्तान में ये
कहीं शिया -सुन्नी
या फिर अहमदिया,
कादयानी, बोहरा के नाम
पर एक-दूसरे
की जान ले
रहे हैं। हैरानी
की बात यह
है कि फिर
भी इस्लाम के
रहनुमा खामोश हैं। इस
बार रमजान माह
का षायद ही
कोई दिन ऐसा
गुजरा होगा, जहाँ
इस्लामिक कट्टरपन्थियों के दहशतगर्द
संगठनों ने दहशतगर्दो
ने दुनिया में
हममजहबियों और गैर
मजहबियों का खून
न बहाया हो।
यहाँ तक आखिर
जुम्मे से दो
दिन पहले 21जून
को इस्लाम की
हिफाजत और दुनिया
में इस्लाम/शरीयत की हुकूमत
कायम करने मकसद
से गठित ‘इस्लामिक
स्टेट इराक एण्ड
सीरिया‘;आइ.एस.आइ.एस.द्धके दहशतगर्दों ने
इराक के मोसुल
शहर में स्थित
मशहूर आठ सौ
वर्श से अधिक
पुरानी मशहूर ‘अल-नूरानी
मस्जिद‘ और उसकी
150 फीट ऊँची ‘अल हदवा‘मीनार को बम
से विस्फोट कर
उड़ा दिया,जहाँ
गत 4जुलाई,2014जुलाई
को अल बगदादी
ने खलीफा बनने
का ऐलान किया
था। यहाँ तक
कि शव-ए-कद्र की
मुबारक रात को
श्रीनगर की मशहूर
जामिया मस्जिद के बाहर
आतंकवादियों और अलगाववादियों
के समर्थकों ने
डीएसपी मुहम्मद अयूब पण्डित
को पीट-पीट
कर मार डाला,जो नमाजियों
की हिफाजत में
लगे। उन्हें मारने
एक वजह हिन्दू
समझ लेना भी
बताया गया। सवाल
यह है कि
क्या इन हैवानों
के लिए रमजान
के पवित्र
महीने
के कोई माने
नहीं हैं,जबकि
इस माह लोग
हर तरह की
बुरी से अपने
को दूर रखते
हैं। इसके सिवाय24जून को
सऊदी
अरब की सबसे
पाक मक्का मस्जिद
पर भी अजयाद
अल-मसाफी नामक
आतंकवादी संगठन ने दहशतगर्दों
ने कोशिश की,जिसमें उसने खुद
को उड़ा लिया।
इस साल कश्मीरघाटी
में ईद-उल-फितर पर
नमाज के बाद
अलगाववादियों के समर्थक
जगह-जगह सुरक्षाकर्मियों
पर पथराव करते
हुए आगजनी की,जिसमें 40से अधिक
सुरक्षाकर्मी,अधिकारी और अन्य
लोग घायल हुए।
इन दहशतगर्दो ने
षुरू से ही
अपने मजहब का
गलत पाठ पढ़ाया
है,तभी तो
ये दहशतगर्दों को
सुरक्षाबलों द्वारा मार डाले
जाने पर उन्हें
‘शहीद‘ करार देते
हैं,जबकि इस्लाम
‘शहीद‘ के माने
ही अल्हादा हैं।
इस्लाम के मुताबिक
‘शहीद‘ वह है
जिसने खुदा की
शिक्षाओं को सही
से समझकर उन्हें
अपनी जिन्दगी में
उतारा हो,जो
आध्यात्म की राह
पर चलता हो,पर यहाँ
तो विदेषों से
धन लेकर अपने
वतन से गद्दारी
करते हुए बेकसूरों
का खून बहाने
वालों को ‘शहीद‘बताया जा रहा
है या दर्जा
दिया है। आप
ही बतायें कि
ये हकीकत में
मुजाहिद हैं?
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