पत्रकारिता के सफर की एक झलक
पुस्तक समीक्षा
वरिष्ठ पत्रकार रमाशंकर शर्मा की पुस्तक ‘स्मृति-पंख ' भले ही पत्रकारिता का पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने के उद्देश्य से नहीं लिखी गयी है। फिर भी लेखक ने प्राक्कथन ‘मेरी अपनी बात' के माध्यम से देश में पत्राकारिता के बदलते लक्ष्य, चेहरे और पत्रकारिता से सम्बन्धित ३७ विभिन्न लेखों, संस्मरणों, रिर्पोताज, यात्रा वृत्तान्त आदि के जरिए गभ्भीर टिप्पणियाँ की हैं जो वर्तमान में कार्यरत पत्रकारों के लिए दिशा संकेत तथा इस क्षेत्रा में प्रवेश करने जा रहे लोगों के लिए मार्ग दर्शक सिद्ध होंगीं। ७ लेखक ने युवा पीढ़ी के स्वाध्याय में रुचि न लेने पर चिन्ता जतायी है यह सच भी है। लेकिन यह हाल कोई अभी नहीं हो गया है। पहले भी समाचार पत्रो में कार्य करने वाले कुछ पत्राकारों को छोड़ कर बाकी की दिलचस्पी अखबार में छपी अपनी लिखी खबर के सिवाय किसी प्रतिद्वन्द्वी के लिखे तक सीमित होती थी। उन्हें नहीं पता होता कि अखबार के शेष पृष्ठों पर क्या छपा है। ऐसे में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित अग्रलेख और दूसरे समसामयिक लेखों को पढ़ने की कौन कहे। इन्हीं पत्रकारों का कहना होता था कि इसे तो सिर्फ सेवानिवृत लोग ही वक्त काटने के लिए पढ़ते हैं।
अब पत्राकारिता के छात्रों में मुश्किल से कुछ ऐसे होते हैं जिन्होंने अपने पाठ्यक्रम से इतर साहित्य की किसी विधा की कोई पुस्तक पढ़ी हो। लेकिन ऐसा भी नहीं कि लोगों ने पुस्तकें पढ़ना बिलकुल बन्द कर दिया हो। इसका प्रमाण देश की राजधानी दिल्ली और दूसरे नगरों में लगने वाले पुस्तक मेलों में पहुँचने वाले सभी आयु वर्ग के लोगों की भीड़ तथा उनमें बड़ी संख्या में बिकने वाली सभी विषयों की पुस्तकें हैं। वैसे लेखकों और पत्रकारों के लिए स्वाध्यय बहुत जरूरी है इससे ही उनके लेखन में गहनता ,व्यापकता और परिपक्वता आती है। लेखक ने अपने समय में घटी विभिन्न घटनाओं से
सम्बन्धित संस्मरणों को इस पुस्तक का विषय बनाया है जिन्हें पढ़ते समय पाठक उसी दौर में स्वयं का अनुभव करता है। इसकी वजह उन घटनाओं और उनसे जुड़े विभिन्न तथ्यों का सहज ,सरल सजीव रोचक विवरण है। ऐसी ही कुछ घटनाएँ है जैसे -’किले में तेंदुआ', ‘तोर गाँव असली मुठभेड़',’छोटा मुँह बड़ा शिकार' आदि है। ‘खलनायक होता मीडिया', वर्चस्व का सफर है पत्रकारिता', ‘जब शुरू हुए अखबार' ‘पुस्तक-सम्पादन' आदि आलेख पत्रकारिता के छात्रों के लिए विशेष उपयोगी हैं। ‘खलनायक होता मीडिया' में लेखक ने समाचार पत्रों के स्वतंत्राता से पूर्व और उसके बाद के उद्देश्यों में बहुत बदलाव आया है। जहाँ पहले अखबार का उद्देश्य लोगों को शिक्षित-प्रशिक्षित करना था ,वहीं आजादी के पश्चात स्वार्थपरता के कारण वे पथभ्रष्ट हो गए हैं। अखबार नेतृत्व करने के बजाय नेताओं के पीछे चल पडे+ हैं। आज उनका उद्देश्य येनकेन-प्रकारेण सनसनी फैलाना रहा गया है जो एक गली-मुहल्ले के गुण्डा-मवाली का होता है। इस कारण वे खलनायक सरीखे हो गए हैं। इस टिप्पणी पर शायद ही किसी को आपत्ति होगी।
‘वर्चस्व का सफर है पत्राकारिता' आलेख में लेखक ने सही ही लिखा की कि पूँजीवादी ,वैश्वीकरण और उदारवाद के इस दौर में अखबारों का चरित्रा बदला गया। पहले अखबार सम्पादक के नाम पर बिकते थे। अब सम्पादक का समाचार पत्रा पर कोई नियंत्राण नहीं रह गया है। सब कुछ विज्ञापनदाता और विज्ञान प्रबन्धक की पसन्द-नापसन्द पर निर्भर करता है। अब समाचार पत्रा और उसके स्वामी अधिकाधिक धनार्जन करने और प्रसार संख्या बढ़ाने के लिए सबकुछ करने को तत्पर हैं। इससे समाचार पत्राों की विश्वसनीयता को खतरे पड़ गयी है जबकि समाचार पत्रा की सबसे महत्त्वपूर्ण पूँजी उसकी विश्वसनीयता ही होती है।
‘जब शुरू हुए अखबार' में लेखक ने यह आलेख समाचार पत्रों के संक्षिप्त इतिहास से शुरू कर समाचार सम्प्रेषण और छपाई प्रणाली का विस्तार से उल्लेख किया है जो पत्राकारिता के छात्रों के लिए अत्यन्त ज्ञानवर्द्धक है।
‘पुस्तक सम्पादन' में लेखक ने पुस्तक के सम्पादन की जानकारी अत्यन्त रोचक ढंग से दी है। सम्पादक अपने दायित्व का निर्वहन इस कुशलता से करता है कि पाडुलिपि के लेखक को पता नहीं चलता कि मूल कहानी या उपन्यास में कहाँ, क्या काटा और क्या जोड़ा गया है। सम्पादक को भाषा ,वर्तनी का ज्ञान के साथ-साथ अनावश्यक चीजों को हटा कर सुगठित करता है। जहाँ ‘गेहूँ की पर्ची' में संवेदनहीन होते समाज का चित्राण है,वहीं ‘नर बलि और उदल' के माध्यम से रिपोर्टिंग के तरीके, उससे जुड़े पोस्टमार्टम हाउस के कर्मचारी उदल के चरित्रा के विभिन्न मानवीय पक्षों को उभरा है। ‘फूला डाकू जिन्दा गिरफ्तार नहंी' में लेखक ने समाचार के स्रोत की पुष्टि के महत्त्व को दर्शाया है। ऐसे ही ‘बटेश्वर, जिसे डाकुओं के आत्मसमर्पण ने और महत्त्वपूर्ण बना दिया' आलेख में लेखक ने बटेश्वर के ऐतिहासिक,पौराणिक विवरण को रेखांकित करते हुए डाकुओं के आत्मसमर्पण का आँखों देख हाल सरीखा विवरण प्रस्तुत किया है। ‘आगरा में यमुना का रौद्र रूप सन् १९७८' का वर्णन रिपोर्ताज शैली में प्रस्तुत किया है।
‘आगरा में हवाई हमले 'शीर्षक का आलेख में खेरिया हवाई अड्डे की स्थापना से लेकर अब तक पाकिस्तान द्वारा विभिन्न समय पर किये गए हमलों का विवरण प्रस्तुत किया है। लेखक ने १९६५ , १९७१ युद्ध के दौरान आगरा में हवाई हमले से बचने को लेकर की गईं तैयारियों और माहौल का सटीक और रोचक शब्दों में वर्णन किया है। ‘तो पाकिस्तान परमाणु बम डाल देता' में लेखक ने पाकिस्तानी शासकों की मानसिकता का सटीक चित्राण किया है।साथ ही उनकी विभिन्न नीतियों का विशद् विश्लेषण है जो नयी पीढ़ी को पाक की चल, चरित्रा ,इरादों का समझने में मददगार होगा।
‘आपात स्थिति :कब और कैसे?' संस्मरणात्मक लेख में आपात काल के समय देश और भारतीय प्रेस पर पड़ने वाले सरकारी दबावों तथा प्रयासों का सटीक वर्णन किया है। इस दौरान किन-किन परिस्थितियों में प्रेस से सम्बन्धित लोगों को अपना कर्त्तव्य निर्वहन करना पड़ा। ‘तोर गाँव में असली मुठभेड़' संस्मरणात्मक आलेख है। इसमें पुलिस और उसके अधिकारियों की कार्यप्रणाली, उसमें नेताओं की दखलदांजी का चित्राण है। ‘भरतपुर में बाँधः आगरा में तबाही'- बाँधों के निर्माण का उद्देश्य ,सामरिक महत्त्व ,बाढ़ से होने वाली तबाही से जुड़े तथ्यों को जोड़ कर लेख तैयार किया है। ‘लोमहर्षण' लेखक का स्वयं का अतींद्रिय अनुभव है जो आत्माओं के अस्तित्व की यथार्थपरक ज्ञान कराता है।
‘हवेलियों-किलों के अलावा भी बहुत कुछ है' राजस्थान के यात्रा वृत्तान्त विवरण भी रोचक है। ‘एक गाँधी मार्का कवि-बलवीर सिंह ‘रंग' में उनकी सादगी और दूसरी विशेषताओं का उल्लेख है। ‘आतंकवादी मानसिकता और गाँधी’ एक शोधपरक विवेचना है। ‘नेपालः ए और पाकिस्तान' इस लेख में नेपाल में पाकिस्तान की भारत विरोधी साजिश का वर्णन है। इस पुस्तक की भाषा सरल, सुबोध, प्रवाहपूर्ण है। इसमें वर्तनी की त्रुटियाँ भी ज्यादा नहीं हैं। यह पुस्तक अच्छे कागज पर छपी है और छपाई में भी बेहतर है। यह पुस्तक पत्रकारिता के छात्रों और उसमें रुचि लेने वालों के लिए ज्ञानवर्द्धक और रुचिकर है।
‘स्मृति-पंख' लेखक-रमाशंकर शर्मा सम्पादक-विवेक कुमार जैन डिमाई आकार
पृष्ठ संख्या-२२३ मूल्य-३०० रुपए ज्ञान गंगा -२०५ सी, चावड़ी बाजार ,दिल्ली-११००६६
समीक्षक- डॉ.बचन सिंह सिकरवार -६३ब, गाँधी नगर,आगरा-२८२००३
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