अरुन्धति जी, आपने इतिहास नहीं पढ़ा!
डॉ.बचन सिंह सिकरवार
इंग्लैण्ड के अँग्रेजी साहित्य के ‘बुकर पुरस्कार' विजेता तथाकथित सामाजिक कार्यकर्त्ता और सुर्खियाँ में रहने की आदी अरुन्धति रॉय ने गत २१ अक्टूबर को ‘कोलिशन ऑफ सिविल सोसाइटीज' (नागरिक सोसाइटीज के संयुक्त सम्मेलन)द्वारा नयी दिल्ली में आयोजित ‘मुरझाया कश्मीरः आजादी या गुलामी'(विदर कश्मीरः फ्रीडम ऑर ऐनस्लेवमेण्ट) सेमीनार में अपनी आदत के मुताबिक यह कह कर हलचल मचा कि कश्मीर भारत का कभी अभिन्न अंग नहीं रहा ,यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। इसे भारत सरकार ने भी स्वीकार किया है। उन्होंने यह आरोप भी लगाया है कि ब्रिटिश शासन की समाप्ति के बाद भारत औपनिवेशिक ताकत बन गया है।
इस सेमीनार में कश्मीरी अलगाववादियों के साथ-साथ खालिस्तानी आन्दोलन की बचे-खुचे लोग, पूर्वोत्तर राज्यों के पृथकतावादी ,माओवादी ,नक्सलवादी आदि शामिल हुए थे, जिन्होंने अपने विचार व्यक्त करते हुए भारत के संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की धज्जियाँ उड़ाते हुए देश की एकता और अखण्डता पर हर तरह से चोट की। फिलहाल, औरों के कहे को छोड़ अरुन्धति रॉय की बात पर आते हैं।
इस अवसर पर अरुन्धति रॉय ने यह नहीं बताया कि अगर कश्मीर भारत का नहीं , तो फिर किस मुल्क का हिस्सा है? या फिर वह खुद आजाद मुल्क है? उन्होंने यह भी स्पष्ट नहीं किया कि किसी स्थान के इतिहास से उनका आशय क्या है? जहाँ तक कश्मीर के इतिहास का प्रश्न है तो इस प्रदेश का भारत से सदियों से वैसा ही अटूट सम्बन्ध है जो इसके बाकी प्रान्तों से है। यानी कश्मीर का इतिहास शेष भारतीय इतिहास से किसी भी माने में अलग नहीं है।
पता नहीं, अरुन्धति रॉय ने इतिहास की ऐसी कौन-सी पोथी बांच ली है जिसे पढ़कर उन्हें ‘भारत के मुकुट' और ‘पृथ्वी के स्वर्ग' कहे जाने वाले इस प्रान्त का देश के इतिहास से कोई नाता नजर नहीं आता। यदि सचमुच उनके पास इतिहास की ऐसी कोई नायाब किताब है जो उन्होंने पढ़ रखी है, तो वे उसे लोगों के सामने के क्यों नहीं लातीं? उन्हें आजादी और मानवाधिकारों की इतनी ही चिन्ता है तो कश्मीर के दूसरे हिस्से यानी ‘गुलाम कश्मीर' (तथाकथित ‘आजाद कश्मीर' या ‘पाक अधिकृत कश्मीर') की बात वे क्यों नहीं करतीं ? जिस पर पिछले ६३ साल से पाकिस्तान जबरदस्ती कब्जा किये हुए है। वहाँ के बाशिन्दों को पाकिस्तान ने उनके ही मुल्क में दूसरे दर्जे का नागरिक बनाया हुआ है जो उसके अधीन नहीं रहना चाहते। इस गुलाम कश्मीर के एक बड़े हिस्से का पाकिस्तान ने अपने आका चीन को भेंट करने के साथ-साथ खुद भी इसके एक बड़े भू-भाग को अपने मुल्क का हिस्सा बना चुका है।
हैरानी इस बात पर होती है कि इस गुलाम कश्मीर और उसके बाशिन्दों की तकलीफों तथा उनके मानवाधिकारों के हनन के बारे में न तो कश्मीर की आजादी का झण्डा उठाये छाती और माथा कूटने वाले सैयद अली शाह गिलानी सरीखे दूसरे अलगाववादी नेता कुछ बोलते हैं और न ही कश्मीर में मुख्यमंत्री और केन्द्र में मंत्री बन कर तीन पीढ़ियों से सत्ता सुख भोगने वाले मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और उनके पिता डॉ. फारूक अब्दुल्ला ही कुछ कहते-सुनते हैं। इन्हें अक्साई चीन तथा काराकोरम पर कब्जा जमाये चीन से भी कोई शिकायत नहीं है।
अरुन्धति रॉय का कहना है कि कश्मीर को भूखे-गन्दे हिन्दुस्तान से आजादी लेनी चाहिए और भारत एक थोथी ताकत है। अगर सचमुच ऐसा है तो जम्मू-कश्मीर की सरकार एक साल अपना खर्च ही चला कर देख ले। इतने समय में ही उसे दाल आटे का भाव पता चल जाएगा। रही बात कश्मीर की आजादी की, तो क्या वह अपने बल पर अपनी रक्षा कर सकेगा? भारत की सेना के हटते ही पाकिस्तान और चीन एक दिन भी उसकी यह हसरत पूरी नहीं होने देंगे।
यदि भारत में ताकत नहीं है तो उसने उनके हमदर्द पाकिस्तान को हमला करने पर चारों बार धूल कैसे चटा दी? सच्चाई यह है कि ‘गन्दे भूखे भारत' के अरबों-खरबों रुपए के अनुदान से ही कश्मीरियों की सारी समृद्धि है और मुट्ठी भर कश्मीरी नेताओं की लूट पर भी कोई अंकुश नहीं है। अरुन्धति रॉय ने कहा कि उन्होंने वही कहा जो कश्मीर में लाखों लोग रोज कहते हैं। ठीक है तो वे कश्मीरियों से यह क्यों नहीं पूछतीं कि इस देश में उन्हें कौन बिना बात के परेशान करता है, जिस पाकिस्तान की वे हिमायती हैं। वहाँ की जन्नत की हकीकत वे उनसे बयां क्यों नहीं करतीं ?
अरुन्धति रॉय ने यह आरोप भी लगाया है कि भारत औपनिवेशिक ताकत बन गया है? जबकि सच्चाई यह है कि भारत ने कभी भी किसी देश पर पहले से हमला नहीं किया। उस पर चार बार पाकिस्तान और एक दफा चीन हमला कर चुका है। इन दोनों देशों द्वारा आये दिन भारतीय सीमा का अतिक्रमण किया जाता रहा है। स्वतंत्र होने के बाद भारत ने अपना क्षेत्रफल गंवाया है, बढ़ाया नहीं है।
अरुन्धति रॉय ने कहा कि वह देश दया का पात्र है जो अपने लेखकों को उनके मन की बात कहने से रोकता हो। जहाँ उन लोगों को जेल में डालने की बात की जाती हो ,जो इन्साफ की माँग कर रहे हों। जहाँ साम्प्रदायिक हत्यारे , जनसंहारक, कॉरपोरेट घोटालेबाज ,लुटेरे,बलात्कारी और गरीबों को शिकार बनाने वाले खुलआम घूम रहे हों। इनमें से उनकी कही कई बातों में सच्चाई है लेकिन उन्हें दूर करने की जिम्मेदारी किसकी है? फिर इसके यह माने तो नहीं कि हम देश की व्यवस्था सही करने के बजाय अपने लोगों और मुल्क से गद्दारी करने लगें। जिन्हें अरुन्धति रॉय अपना आदर्श मानती हैं क्या उन मुल्कों में सब कुछ ठीक चला रहा है?
सच यह है कि पूरी दुनिया को इस्लामी बनाने के ख्वाब को हकीकत में तब्दील करने में जुटे सैयद अली शाह गिलानी जैसे लोगों के साथ खड़ीं अरुन्धति रॉय आदि को कश्मीरी पण्डितों की तकलीफें और मानवाधिकारों की याद क्यों नहीं आती है?जिन्हें इस्लामी कट्टरपन्थियों ने कश्मीर को ‘दारुल इस्लाम'यानी हिन्दू विहीन बनाने के मकसद से दशकों पहले हर तरह के जुल्म ढहाते हुए घाटी से बेघरबार कर अपने ही देश में शरणार्थी बनने पर मजबूर किया हुआ है।
कश्मीर घाटी में पाकिस्तानी समर्थकों की शह पर पुलिस और सुरक्षाकर्मियों पर पत्थर बरसने तथा सरकारी सम्पत्ति को तबाह करने वालों से भी अरुन्धति रॉय यह पूछने की जरूरत नहीं समझतीं कि क्या पुलिस और सुरक्षाकर्मियों ने उनके घरों तथा कार्य स्थलों पर जाकर उत्पीड़न किया या गोली मारी है? फिर कश्मीर घाटी सिर्फ इस्लाम मानने वालों की ही नहीं है, उनसे ज्यादा भूमि और सम्पत्ति कश्मीरी पण्डितों की थी जिस पर शासन-सत्ता का साथ पाकर उन्होंने बलात कब्जा जमाया हुआ है।
एक सवाल यह है कि जम्मू-कश्मीर में केवल कश्मीर घाटी ही नहीं,लद्दाख और जम्मू भी हैं। वहाँ के बाशिन्दों को जम्मू-कश्मीर की पुलिस ,केन्द्रीय सुरक्षा बलों या भारतीय सेना से कोई शिकायत क्यों नहीं है? क्या ये उनके साथ किसी तरह का अलग बर्ताव करती है? कश्मीर घाटी के मुसलमानों को ही स्वायत्ता की दरकार क्यों है, जबकि जम्मू-कश्मीर सरकार अपने बजट का अस्सी प्रतिशत तक हिस्सा केवल कश्मीर घाटी पर ही खर्च करती है।
आजादी के बाद से चले आ रहे इस सरकारी भेदभाव पर कोई भी अपनी जबान क्यों नहीं खोलता? क्या लद्दाख और जम्मू में रहने वाले द्वितीय श्रेणी के नागरिक हैं? जम्मू-कश्मीर में शुरू से ही मुसलमान वह भी कश्मीर घाटी में रहने वाले मुख्यमंत्री बनते आये हैं ऐसे में कोई दूसरा उनके साथ कैसे भेदभाव या तथाकथित जुल्म ढहा सकता? एक हकीकत यह भी है कि कश्मीर घाटी वालों को जम्मू या लद्दाख में मुख्यमंत्री बनने लायक अब तक कोई नेता ही नहीं दिखायी दिया। कुछ समय के लिए जम्मू इलाके के गुलाम नबी आजाद मुख्यमंत्री बने तो इसे भी डॉ.फारूक अब्दुल्ला परिवार समेत कोई भी घाटी का नेता उन्हें दिल से मंजूर नहीं कर पाया। आखिर इतनी क्षेत्रीयता क्यों है?
कश्मीर घाटी के नेताओं की यह बदनीयत ही है कि जनसंख्या में जम्मू से कम होते हुए भी निर्वाचन क्षेत्र के पुनर्गठन की परिधि से इस राज्य को इसलिए अलग रखा गया है, क्यों कि ऐसा होने पर घाटी का वर्चस्व खत्म हो जाता।
हमारा तो ऐसे लोगों के लिए यह सुझाव है कि जिन लोगों की ख्वाबों में पाकिस्तान बसता है और ज्यादा आजादी की चाहत है वे खामखाँ अपने वक्त और जिन्दगी भारतीय कश्मीर में क्यों बर्बाद कर रहे हैं,उन्हें पाक के कब्जे वाले गुलाम कश्मीर/पाकिस्तान जाने यानी तशरीफ ले जाने किसने रोका है?
अब हम कश्मीर के इतिहास पर आते हैं जिसमें उसके राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि पक्ष समाहित होते हैं। इन सभी पर आप भी निगाह डाल लें। कश्मीर का नामकरण ‘महर्षि कश्यप' के नाम पर हुआ है।माना जाता है कि इस विस्तृत घाटी या वादी में कभी बहुत बड़ी मनोरम झील थी जिसके तट पर देवता निवास करते थे। तभी यहाँ ‘नाग' नामक असुर रहने लगा। उसके उत्पात से देवता दुखी थे। उनके अनुरोध पर महर्षि कश्यप ने अपने तपोबल से असुर नाग का अन्त कर दिया।
कुछ पुस्तकों में यह उल्लेख भी मिलता है कि यह वादी पूरी तरह से जल में डूबी हुई थी तथा भगवान शिव की पत्नी देवी सती यहाँ रहा करती थीं। उन्होंने और महर्षि कश्यप ने मिलकर असुर नाग को समाप्त कर दिया तथा इस वादी का जल वितस्ता (झेलम) नदी के माध्यम से बहा दिया। इसी स्थान पर घाटी या वादी बन गयी। पहले इस वादी का नाम ‘सतीसर' या ‘कश्यप मार' था। कुछ कहना है कि इसका वास्तविक नाम ‘कश्यपमर'(कछुआ झील) था जो कालान्तर में ‘कश्मीर' हो गया। वैसे कश्मीरी भाषा में कश्मीर को ‘कोशूर'कहा जाता है।
प्राचीन काल से कश्मीर हिन्दू और बौद्ध संस्कृतियों का पालना रहा है जहाँ इन दोनों की धर्मों का विकास और प्रसार हुआ। इसी प्रदेश में ‘शैव मत' का भी उद्भव और विकास हुआ। कश्मीर सदियों तक एशिया महाद्वीप में संस्कृति एवं दर्शन शास्त्रा का केन्द्र रह चुका है। यहाँ के संस्कृत भाषा के मनीषियों में से महर्षि पतंज्जलि ने ‘पातज्जल योगदर्शनम्', आनन्दवर्द्धन ने ‘ध्वन्यालोक',अभिनव गुप्त ने ‘काव्य मीमांसा',कल्हण ने ‘राजतरंगिणी' ,मुम्मट ने ‘काव्य प्रकाश',सोमदेव ने ‘कथा सरित्सागर' जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे । इनके अलावा दृढ़बल, वसुगुप्त ,क्षेमराज, जोनराज, बिल्हण आदि अन्य संस्कृत के विशिष्ट विद्वान भी यहीं के थे। यहाँ के कश्मीरी लेखक हैं- कल्लेश्वरी, हब्बा खातून, अर्णिमाल, दीनानाथ नादिम, रहमान राही, रूप भवानी, रसूल मीर, महमूद गामी, परमानन्द, गुलाम अहमद, महजूद,अब्दुल अहद आजाद, मोतीलाल,केम्मू आदि हैं जिन्होंने बड़ी संख्या में महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं
यह भी धारणा है कि ‘विष्णुधर्मोंतर पुराण' एवं ‘योगवसिष्ठ' ‘कथासरित संग्रह'यही लिखे गए। कश्मीरी साहित्य का पहला नमूना ‘शितिकण्ठ' के महान प्रकाश १३वीं शताब्दी की ‘सर्वगोचर देश भाषा' में मिलता है। सम्भवतः शैव सिद्धों ने ही पहले कश्मीरी के शैव दर्शन को आम लोगों को सुलभ बनाया। कालान्तर में धीरे-धीरे इसका लोक साहित्य भी लिखित रूप धारण करता गया। पर राष्ट्रीय और सांस्कृतिक आश्रय से निरन्तर वंचित रहने के कारण इसकी क्षमताओं का भरपूर विकास दीर्घकाल तक रुका रहा।कुछ भी हो,१४वीं शती तक कश्मीर भाषा बोलचाल के अतिरिक्त लोकदर्शन और लोक संस्कृति का भी माध्यम बन चुकी थी। जब हम ‘लल-वाख' (१४००वीं ईस्वी) की भाषा और ‘बाणासुर वध'(१४५०ईस्वी) की भाषा से अधिक परिष्कृत पाते हैं तो मौखिक परम्परा धीमी गतिशीलता में ही इसका कारण खोजना पड़ता है।
कश्मीरी लोक साहित्य में सन्त वाणी ,भक्ति गीत,लीला,ज्ञान, अध्यात्म गीत, प्रणय गीत, विवाह गीत, श्रम गीत, क्रीड़ा गीत आदि हैं। इस तरह कश्मीरी साहित्य भारतीय साहित्य का अभिन्न हिस्सा है। यहाँ की सूफी परम्परा विख्यातहै। कश्मीरी इस्लाम परम्परागत शिया और सुन्नी इस्लाम से थोड़ा अलग तथा हिन्दुओं के प्रति सहिष्णु बना देता है। कश्मीरी हिन्दुओं को ‘कश्मीर पण्डित' कहा जाता है और वे ब्राह्मण माने जाते हैं। सभी कश्मीरियों को कश्मीर की संस्कृति यानी ‘कश्मीरियत' पर बहुत नाज है।
कश्मीर राज्य की सर्वाधिक जानकारी हमें प्राचीन ऐतिहासिक ग्रन्थ महाकवि कल्हण रचित ‘राज तंरगिणी' तथा ‘नीलमत' पुराण से प्राप्त होती है। ‘राज तरंगिणी में कई राजवंशों की वंशावली और उनकी उपलब्धियाँ हैं। इसके अलावा इतिहास के लम्बे काल खण्ड में मौर्य ,कुषाण ,हूण ,करकोरा, लोहरा ,मुगल ,अफगान ,सिख ,डोगरा शासकों का शासन रहा है। इतिहासकारों के अनुसार मौर्य सम्राट अशोक ने श्रीनगर बसाया था।ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक ने कश्मीर में बौद्ध धर्म का प्रसार किया। बाद में महाराजा कनिष्क ने इसकी जड़ें और भी गहरी कीं। उनके शासन काल में कश्मीर बौद्ध धर्म और संस्कृति का मुख्य केन्द्र था।
छठी शताब्दी में कश्मीर पर हूणों का अधिकार हो गया। डल झील के सामने ‘तख्त ए-सुलेमान' पहाड़ी स्थित मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है। दसवीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य का कश्मीर में आगमन हुआ। इस कारण इस मन्दिर का यही नाम पड़ गया। श्रीनगर में ही शंकराचार्य पर्वत है ,जहाँ विख्यात हिन्दू धर्म के पुनर्जागरणकर्त्ता एवं अद्वैत दर्शन के प्रतिपादक आदिशंकराचार्य सर्वज्ञानपीठ के आसन पर विराजमान हुए थे। श्रीनगर से कुछ दूरी पर एक बहुत प्राचीन ‘मार्तण्ड मन्दिर' (सूर्य मन्दिर)है।
कश्मीर के हिन्दू राजाओं में ललितादित्य सबसे प्रसिद्ध राजा हुए। उन्होंने एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया। जम्मू और लद्दाख में कभी मुस्लिम राज्य नहीं रहा। कश्मीर में इस्लाम का आगमान तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी में हुआ। १३०१ईस्वी में सूहादेव ने कश्मीर में हिन्दू राजतंत्र की स्थापना की। सन् १३३९ में इनके मंत्री शाह मिर्जा ने कश्मीर में सिंहासन पर जबरदस्ती अधिकार कर लिया तथा मुस्लिम राजवंश शाहमीर वंश की स्थापना की।
शिहाबुद्दीन (१३५६-१३७४ईस्वी) शाहमीर वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है ,क्यों कि इसने शासन- व्यवस्था को दृढ़ता प्रदान की थी । मध्ययुग में सुल्तान जैनुल आबिदीन (१४२०-१४७०ईस्वी) कश्मीर के सभी शासकों में महानतम शासक था। उसने उदार कल्याणकारी नीतियों को क्रियान्वित किया। वह हिन्दुओं की भावनाओं का आदर करता था। वह कश्मीरी ,फारसी ,संस्कृत ,अरबी का विद्वान था।कश्मीरी लोगों ने उसे वुडशाह (महान नरेश) की उपाधि दी थी। उसकी उदार नीतियों के कारण उसे ‘कश्मीर का अकबर' और मूल्य नियंत्रण व्यवस्था के कारण ‘कश्मीर का अलाद्दीन खिलजी' कहा जाता है।पर कुछ राज्यपाल जैसे सुल्तान सिकन्दर बुतारीकन ने यहाँ के मूूल कश्मीरी हिन्दुओं को मुसलमान बनने पर या राज्य छोड़ने पर ,या फिर मरने पर मजबूर किया। सन् १३९५ में श्रीनगर स्थित शाह हमदान मस्जिद का जीर्णोद्धार कराया गया।
सोलहवीं शताब्दी में श्रीनगर के मध्य हरीपर्वत पहाड़ी पर अफगान गवर्नर अता मोहम्मद खान ने एक किले का निर्माण कराया।
सन् १५८६ में मुगल सम्राट अकबर ने कश्मीर को जीत लिया और यह मुगल साम्राज्य का एक हिस्सा बन गया। अकबर ने गवर्नर अता मोहम्मद खान के किले का विस्तार कराया। मुगल बादशाहों को ‘वादी-ए-कश्मीर'ने बहुत प्रभावित किया। ये सभी उद्यान बहुत सुन्दर और नियोजित तरीके लगाये गए हैं। मुगल सम्राट जहाँगीर(सन् १६०५-१६२७) ने कश्मीर की सुन्दरता पर मुग्ध होकर कहा था, ‘गर फिर्दोस बर रुए जमीन अस्त हमी अस्त हमी अस्त' (फारसी में ‘अगर इस धरती पर कहीं स्वर्ग है तो वो यहीं है यहीं है')। उसने अपनी बेगम नूरजहाँ के लिए ‘शालीमार बाग' लगवाया। सन् १६३३ में नूरजहाँ के भाई ने ‘निशात बाग'स्थापित किया। इसके पश्चात शाहजहाँ द्वारा लगवाया बाग ‘चश्म-ए-शाही'क्षेत्रफल में सबसे छोटा है।यहाँ चश्मे के आसपास हरा-भरा बगीचा है। इससे कुछ दूरी पर इसके बड़े भाई दाराशिकोह द्वारा लगाया हुआ ‘परी महल' बाग है। सन् १७५२ में अहमदशाह अब्दाली ने कश्मीर पर अपना कब्जा कर लिया।सन् १७५६ के आरम्भ में अफगान शासन की शुरुआत हुई। ६७ सालों तक यहाँ पठानों का राज्य रहा। इस तरह कश्मीर में सन् १३३९ से १८१९ तक मुस्लिम राज्य रहा।
जम्मू २२ पहाड़ी रियासतों में बँटा था। डोगरा शासक राजा मालदेव ने कई क्षेत्र जीत कर अपने विशाल राज्य की स्थापना की । तत्पश्चात पंजाब के शासक रणजीत सिंह ने सन् १८१९ में कश्मीर को पंजाब राज्य में मिला लिया। सन् १८४६ में महाराजा रणजीत सिंह ने जम्मू प्रदेश को महाराजा गुलाब सिंह को दे दिया।इस प्रकार कश्मीर घाटी में सन् १८१९से १८४६ तक सिख राज्य बना रहा। सन् १८४६ में महाराजा गुलाब सिंह ने जम्मू में एक राज्य की स्थापना की। सन् १८४६ में सोबराव के निर्णायक युद्ध में पंजाब के सिखों की पराजय होने पर ‘अमृतसर की सन्धि' के अन्तर्गत अँग्रेजों ने कश्मीर को भी महाराजा गुलाब सिंह को सौंप दिया। उन्होंने अपने पराक्रम से राज्य का विस्तार लद्दाख,गिलगिट ,बाल्टिस्तान ,तिब्बत तक किया।इस तरह महाराजा गुलाब सिंह ने सन् १८४७-१८५५ तक उनके बाद महाराजा रणवीर सिंह ने सन्१८५५-१८८५ तक तत्पश्चात महाराजा प्रताप सिंह ने सन्१८८५-१९२५ तक यहाँ शासन किया। तदोपरान्त सन् १९२६ में महाराजा हरि सिंह में जम्मू-कश्मीर की सत्ता सम्हाली। मार्च,सन् १९३७ में महाराजा हरि सिंह ने चीन और रूस के आसन्न खतरे को देखते हुए गिलगिट-बाल्टिस्तान इलाके को पट्टे पर ब्रिटिश सरकार को दे दिया।
इसके बाद सन् १९४७ में ‘भारतीय स्वाधीनता अधिनियम' पारित होने के समय तक कश्मीर ब्रिटिश प्रभुत्व के अधीन रहा। देश के स्वतंत्र होने के उपरान्त सभी रियासतों ने भारत या पाकिस्तान में अपने को विलय करने का निर्णय लिया ,लेकिन कश्मीर रियासत के महाराजा हरि सिंह ने कहा कि वह भारत और पाकिस्तान के साथ पूर्ववत सम्बन्ध रखने का करार करना चाहते हैं ,जबकि भारत के तत्कालीन गृह सचिव लॉर्ड लिस्टोवेल ने इसे स्पष्ट किया था, ‘ब्रिटिश सरकार किसी राज्य को पृथक अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता प्रदान नहीं करेगी।' जून,१९४७ में लॉर्ड माउण्टबेटन महाराजा हरि सिंह से उनकी इच्छा जानने के लिए श्रीनगर गए ,किन्तु उन्होंने अपना असल इरादा जाहिर नहीं किया। १अगस्त,१९४७ को महाराजा हरि सिंह ने गिलगिट और बाल्टिस्तान अँग्रेजों से वापस ले लिया और इनके इलाके ब्रिगेडियर घनसारा सिंह को प्रतिशासक नियुक्त कर दिया। महाराजा हरि सिंह ने कागजी तौर पर १५अगस्त,१९४७ से ही पाकिस्तान से जम्मू-कश्मीर के सन्दर्भ में यथा-स्थिति समझौता किया हुआ था। इसके साथ ही मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने निजी सचिव को कश्मीर भेज कर पाकिस्तान के पक्ष में माहौल बनाने के इरादे से भेजा। कश्मीर रियासत के तत्कालीन प्रधानमंत्री एम.सी.महाजन के अनुसार,’ उन्होंने साम्प्रदायिक विचारधारा वाले लोगों तथा मुसलमानों को तैयार किया कि वे महाराजा हरि सिंह पर कश्मीर के पाकिस्तान में विलय के लिए दबाव बनायें।'
इसी दौरान पाकिस्तान के गवर्नर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना ने भी पाकिस्तानी सेना के कमाण्डर ब्रिटिश लेफ्टिनेण्ट जनरल डी.डी.ग्रैसी को कश्मीर पर आक्रमण करने का आदेश दिया ,लेकिन उन्होंने उनका आदेश मानने से इनकार दिया। नयी दिल्ली स्थित ब्रिटिश फील्ड मार्शल सर क्लाउडे औचिनलेक ने मोहम्मद अली जिन्ना को पाकिस्तानी सेना के ब्रिटिश अधिकारियों को वापस बुलाने की धमकी दे दी।
जब जनरल डी.डी.गै्रसी ने बात नहीं बनी तो मोहम्मद अली जिन्ना ने २२अक्टूबर,१९४७ में उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रान्त और कबीलाई इलाके के मुसलमानों ने पाकिस्तानी सेना के सहयोग से जम्मू-कश्मीर पर हमला करने के साथ उस पर नियंत्रण करने का प्रयास किया। इन हमलावर कबीलाइयों का नेतृत्व मेजर जनरल अकबर खान छद्म नाम ‘जनरल तारिक 'से कर रहा था और उसके पास हल्के टैंक भी थे। उस समय कश्मीर रियासत के पास केवल नौ बटालियन और दो माउण्टेन बैटरीज थीं। उसकी सम्भावित हमले से निपटने कोई तैयारी नहीं थी। फिर भी कश्मीर रियासत की सेना ने ब्रिगेडियर राजिन्दर सिंह के नेतृत्व में दो दिन तक हमलावर को रोके रखा ,जब कि सेना के मुसलमान सैनिक विद्रोह कर रहे थे। इस तरह प्रारम्भ में महाराजा हरि सिंह अपनी सेना के जरिए उन्हें रोकने की कोशिश की , किन्तु विफल रहे। कश्मीर रियासत के पास विस्फोटक पदार्थ न होने के कारण उनकी सेना कृष्ण गंगा के पुल को उड़ा नहीं पायी , जिससे पाक हमलावर श्रीनगर में घुस सकते थे। युद्ध की तैयारी के अभाव के कारण २४-२६ अक्टूबर को बारामूला पर हमलावरों का कब्जा हो गया। उन्होंने व्यापक स्तर पर लूटपाट ,आगजनी ,दुष्कर्म ,मारकाट । इसके पश्चात कोई विकल्प न देख महाराजा हरि सिंह ने २४ अक्टूबर,१९४७ को भारत सरकार से सैन्य सहायता माँगी। इस पर भारत ने कहा कि जब तक वह अपने राज्य को भारत में विलय नहीं करते ,तब उन्हें सैन्य सहायता दिया जाना सम्भव नहीं है । तब २६अक्टूबर ,१९४७ को जम्मू-कश्मीर के महाराज हरि सिंह ने ‘भारत स्वतंत्रता अधिनियम,१९४७' द्वारा प्रदत्त अधिकारों का उपयोग करते हुए भारत के लार्ड वायसराय माउण्टबेटन को पत्र लिख कर अपने राज्य का भारतीय संघ में बिना शर्त विलय के कागजों पर हस्ताक्षर दिए। उनके इस निर्णय जम्मू-कश्मीर राज्य के तत्कालीन सबसे प्रभावशाली नेता शेख अब्दुल्ला ने भी पूर्ण समर्थन किया था। २७अक्टूबर,१९४७ को लॉर्ड माउण्टबेटन ने इस विलय-पत्र को स्वीकार कर लिया।
उस समय तक हमलावर श्रीनगर के बाहर तक पहुँच चुके थे। २७ अक्टूबर, १९४७ को भारतीय वायु सेना का लड़ाकू विमान श्रीनगर के हवाई अड्डे पर उतरा , जिसमें लेफ्टिनेण्ट कर्नल रंजीत रॉय की अगुवाई में भारतीय सैनिकों की पहली टुकड़ी थी। कर्नल रॉय ने उसे बारामूला की ओर भेजा। इस रक्त रंजित युद्ध में कर्नल रॉय भी शहीद हो गए। नवम्बर,१९४७ को मेजर सोमनाथ शर्मा ने साहसिक निर्णय लेते हुए बड़गाम में आक्रमणकारियों का बहादुरी से सामना किया ,जबकि हमलवारों की तुलना में उनके पास बहुत कम संख्या में सैनिक थे। फिर भी दुश्मनों के दाँते खट्टे करते हुए शहीद हुए। ५नवम्बर ,१९४७ को शलतांग के पास पाकिस्तानी हमलावरों को तीन तरफ से घेरते हुए भारतीय सेना आक्रमण किया। इसमें कोई ६०० पाक हमलावर मारे गए और कश्मीर घाटी पाकिस्तान के कब्जे में जाने से बचा ली गयी। इसके परिणाम स्वरूप में वर्त्तमान नियंत्रण रेखा स्थापित हुई।
तत्पश्चात भारत संयुक्त राष्ट्र संघ के पास कश्मीर के विवाद के हल के लिए गया। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने कश्मीर के भविष्य का निपटारा करने को प्रस्ताव ४७ पारित किया। इसमें पाकिस्तान से कहा गया कि वह कश्मीर से अपनी सेनाएँ वापस बुलाये।दोनों देश मिलकर सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह करायें । लेकिन दोनों में से ऐसा किसी ने भी नहीं किया। इस तरह राष्ट्र संघ के जनमत संग्रह के प्रस्ताव अब तक अमल नहीं हो पाया है। १८अप्रैल,सन् १९४८ को पाकिस्तान ने कश्मीर का गिलगिट तथा लद्दाख के पश्चिमी जिले बाल्टिस्तान को अपने मुल्क में विलय कर लिया। सन् १९४९ में युद्ध विराम समझौते के बाद भारत और पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर के अपने-अपने नियंत्रण के हिस्सों का बँटवारा कर लिया।
महाराजा के पुत्र युवराज कर्ण सिंह १९५० में रीजेण्ट (प्रतिशासक) बने और अनुवांशिक शासन की समाप्ति (१७नवम्बर,१९५२)पर उन्हें सदर-ए-रियासत की शपथ दिलायी गयी। २६अप्रैल,१९६० को महाराजा हरि सिंह
के निधन के बाद युवराज कर्ण सिंह को भारत सरकार ने महाराजा की उपाधि प्रदान की ,पर कर्ण सिंह ने कहा कि वे इस उपाधि का उपयोग नहीं करेंगे।
इधर सन् १९५२ में प्रधानमंत्री पं.जवाहर लाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला की दिल्ली में लम्बी वार्त्ता के पश्चात एक सहमति हुई।इसके बाद जुलाई,१९५२में संसद में पं.नेहरू द्वारा और शेख अब्दुल्ला ने अगस्त,१९५२मेंजम्मू-कश्मीर संविधान सभा में यह घोषणा की कि जम्मू-कश्मीर राज्य का अलग संविधान,अलग ध्वज,’राज्यपाल' के स्थान पर ‘सदर-ए-रियासत' और ‘मुख्यमंत्री' के बजाय ‘प्रधानमंत्री' शब्द का प्रयोग किया जाएगा।जम्मू-कश्मीर में शेष भारत से आने वाले लोगों को अनुमति-पत्र (परमिट) लेना होगा। कश्मीर की अलग नागरिकता रहेगी। अलिखित शक्तियाँ (रेजीड्यूरी पॉवर्स) राज्य के पास रहेंगी।
उधर इसके विरोध में भारत के संविधान सभा के सामने लद््दाख के लोगों ने यह प्रतिवेदन दिया कि या तो हमें केन्द्र शासित राज्य का दर्जा दिया जाए या फिर यहाँ की भौगोलिक स्थितियों और आवागमन की सुविधा को दृष्टिगत रखते हुए हिमाचल प्रदेश के साथ हमारा विलय कर दिया जाए। ऐसे ही जम्मू के देशभक्तों ने नेहरू-शेख सहमति पत्र को ठुकरा कर अपने इलाके को भारत में विलय के लिए ‘प्रजा परिषद्' ने २२नवम्बर, १९५२ को डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में आन्दोलन शुरू कर दिया,जो चार चरणों में चला। ११मई,१९५३को बिना परमिट के पंजाब के पठानकोट जिले के माधोपुर नगर से जम्मू-कश्मीर के लखनपुर नामक स्थान से प्रवेश करने पर डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी को गिरफ्तार कर लिया गया। फिर २३जून,१९५३ को उनकी रहस्य मय परिस्थितियों में जेल में मृत्यु हो गई। ८जुलाई,१९५३ को नेहरू जी से वार्त्ता के बाद आन्दोलन वापस ले लिया। सन् १९५३ में शेख अब्दुल्ला ने अमरीका की सहायता कश्मीर की आजादी की साजिश रची, तब उनकी इस कारगुजरी से नाराज होकर भारत सरकार के केन्द्रीय खाद्य मंत्री रफी अहमद किदवई ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू की इच्छा के विरुद्ध उन्हें नजरबन्द कर दिया। साथ ही बख्शी गुलाम मोहम्मद को कश्मीर में प्रधानमंत्री से मुख्यमंत्री बनाकर संविधान के उन उपबन्धों को लागू कराया,जिसके परिणामस्वरूप अनुच्छेद ३७० के रहते हुए भी यह राज्य भारत का अभिन्न अंग बन सका।
जम्मू-कश्मीर राज्य का संविधान १७ नवम्बर, १९५६ को ७वें संविधान संशोधन के बाद जम्मू-कश्मीर राज्य ‘बी'श्रेणी राज्य के स्थान पर भारत के अन्य राज्यों के समान घोषित किया गया। फिर २६जनवरी,१९५७ को जम्मू-कश्मीर राज्य का संविधान लागू किया गया।इसके अन्तर्गत धारा-३ जम्मू-कश्मीर (जो १४अगस्त,१९४७ को था) भारत का अविभाज्य अंग है। धारा-५ धारा-३ को कोई नहीं बदल सकता। कालान्तर में मुख्यमंत्री ,राज्यपाल शब्द का उपयोग,राज्यपाल की राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति, भारतीय प्रशासनिक सेवा,चुनाव आयोग,महालेखाकार ,उच्चतम न्यायालय के यह राज्य आ गया। अब तक संविधान की सातवीं अनुसूची , २६०केन्द्रीय कानून जम्मू-कश्मीर में लागू हो चुके हैं।
जम्मू - कश्मीर २,२२,२३६ वर्ग किलोमीटर में फैला है। १,००,६९,९१७ जनसंख्या वाले इस प्रदेश में ४ राज्य सभा और ६ लोक सभा के स्थान हैं। द्विसदनात्मक विधान मण्डल वाले इस प्रदेश में विधान सभा की ८७ सीटें हैं। राज्य में विधान सभा सदस्यों की संख्या ७६ २४१०० है २४ विधान सभा क्षेत्र पाकिस्तान द्वारा अधिगृहीत क्षेत्र में हैं। राज्य विधान परिषद् के सदस्यों की संख्या ३६है।
सन् १९६३ में पाकिस्तान ने अपने कब्जा हुए कश्मीर के हुंजा-गिलगिट इलाके का एक भाग ‘रसकम'तथा बाल्टिस्तान क्षेत्र की ‘शकसगम घाटी' चीन को दे दी ,जहाँ से उसने ‘काराकोरम मार्ग' बनाया हुआ है। इस क्षेत्र को चीन ‘ ने ‘उइगुर स्वायत्तशासी झिनझियांग' नाम दिया हुआ है। सन् १९६२ में चीन ने भारत पर आक्रमण कर लद्दाख के सामरिक महत्त्व के क्षेत्र ‘अक्साई चीन' (अक्षय चिन) पर बलात कब्जा कर लिया। इसे युद्ध विराम के पश्चात जम्मू-कश्मीर से ‘वास्तविक नियंत्रण रेखा' (एल.ए.सी.)से पृथक किया हुआ है। सितम्बर,सन् सितम्बर,१९६५ में पाकिस्तान ने भारत के कश्मीर इलाके पर आक्रमण किया।बाद में रूस के प्रभाव में भारत ने १०जनवरी,१९६६ को प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्राी और पाक के राष्ट्रपति अयूब खाँ ‘ताशकन्द समझौता' किया और उसके विजित क्षेत्र को लौटा दिया।
इसके पश्चात ३ दिसम्बर, सन् १९७१ में पाकिस्तान ने तीसरी बार भारत पर आक्रमण किया। इसमें भारतीय सेना उसके पश्चिमी पाकिस्तान के कुछ क्षेत्र कब्जा करने के साथ उसके पूर्वी पाकिस्तान को मुक्त करा कर ‘बांग्लादेश' बनवा दिया। बाद में ३ जुलाई, सन् १९७२ में’शिमला समझौते' के अन्तर्गत उसके बन्दी कोई ९६ हजार सैनिक और पश्चिमी पाकिस्तान का विजित क्षेत्र भी लौटा दिया।
सन् १९७५ में लोकनायक जयप्रकाश नारायण तथा मृदुला साराभाई की पहल पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्द्रा गाँधी ने शेख अब्दुल्ला से समझौते के अन्तर्गत रिहा कर उन्हें मुख्यमंत्री बनाया।
सन् १८८९ से पाकिस्तान अपनी भूमि आतंकवादी शिविर चला रहा है। वह कश्मीरी युवकों को भारत के खिलाफ भड़का रहा है।इन आतंकवादियों में ज्यादातर पाकिस्तानी नागरिक या तालिबानी अफगान हैं जो इस्लाम के नाम भारत के खिलाफ जेहाद छेड़े हुए हैं। ये दरिन्दे निर्दोष कश्मीरी हिन्दुओं और मुसलमानों की निर्मम हत्याएँ,महिलाओं के साथ बलात्कार करते हैं।इनकी दहशतगर्दी के कारण हिन्दुओं ने कश्मीर घाटी छोड़ दी है।
१९९४ या ९६ में भारतीय संसद ने एकमत से जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग स्वीकारते हुए इसके पाक अधिकृत भाग की वापसी का संकल्प लिया है। अक्टूबर,१९९९ में पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर के कारगिल क्षेत्र पर धोखे से कब्जा जमा लिया ,जिसे भारतीय सेना ने उसे पराजित कर पुनःप्राप्त कर लिया है,लेकिन भारत को अपने ८००सैनिकों को खोना पड़ा।
मार्च,२०००में अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिण्टन की भारत यात्रा से पहले १९मार्च,२००० को आतंकवादियों ने जम्मू-कश्मीर के अनंतनाग जिले के छत्तीस पुरा गाँव में ३४ सिखों की हत्या कर दी थी। २९अगस्त,२००९ को पाकिस्तान ने सीधे शासित ‘गिलगिट-बाल्टिस्तान' को आधिकारिक रूप से पूर्ण स्वायत्ता प्रदान करते हुए अपना पाँचवा प्रान्त घोषित कर दिया।वहाँ चुनाव द्वारा विधान सभा गठन और राज्यपाल की नियुक्ति भी की गयी है। ११जून से २०सितम्बर,२०१० तक कश्मीर घाटी में १०३युवकों की अर्द्ध सैनिक बलों की गोलियों से मौत हुई।
अब उमर अब्दुल्ला भी यह कह कर रहे हैं कि भारत के साथ कश्मीर का पूर्ण विलय नहीं हुआ है। उनसे भी हमारा सवाल है कि वे पाक से गुलाम कश्मीर लौटाने की बात क्यों नहीं करते ?
उमर अब्दुल्ला जिस राज्य के मुख्यमंत्री हैं उसी की विधान सभा ने एक कानून पारित किया है जिसमें राष्ट्रीय ध्वज को सर्वाच्च माना गया है। कश्मीरी लोग- भारत की आजादी के समय कश्मीर घाटी में लगभग १५प्रतिशत हिन्दू थे और बाकी मुसलमान। आतंकवाद शुरू होने के पश्चात आज सिर्फ ४प्रतिशत हिन्द शेष रह गये हैं यानी वादी में ९६ प्रतिशत मुसलमान हैं। अधिकतर मुसलमानों और हिन्दुओं का आपसी व्यवहार भाईचारे वाला है। कश्मीर के लोग खुद काफी खूबसूरत माने जाते हैं। लम्बा कद, गोरी त्वचा और नीली आँखें। कश्मीरी लोग अपनी मेहमानवाजी के लिए भी मशहूर हैं।
अपने देश की यह विडम्बना है कि यहाँ के लोग इतिहास से कोई सबक नहीं लेते। तभी तो अपने देश के कई नीति बनाने वाले संस्थानों ,आयोगों और अँग्रेजी समाचार पत्रों,चैनलों में कार्यरत ऐसे बहुत प्रभावी लोग हैं जिनकी सहानुभूति अपने मुल्क की सरकार से कहीं ज्यादा देशद्रोहियों से है। यह हकीकत देश के कई राज्यों की पुलिस अधिकारी बयां कर चुके हैं। ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवी और देशद्रोही किसी न किसी बहाने इस देश को तोड़ने या उसके हितों पर चोट करने का कोई मौका जाने नहीं देते। कब आएगा वह समय जब देश के लोग चेतेंगे और अरुन्धति रॉय, सैयद अली शाह गिलानी जैसे देशद्रोहियों को उनकी भाषा और शैली में सटीक जवाब देने का आगे आएँगे।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार
६३ब,गाँधी नगर,आगरा-२८२००३
मो.न.९४११६८४०५४
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें