तब तक खत्म नहीं होगा, नक्सलवाद
डॉ.बचन सिंह सिकरवार
हाल में छत्तीसगढ़ के
बस्तर इलाके के सुकमा जिला के चिन्तागुफा के पास बुरकापाल क्षेत्र में कोई 350 नक्सलियों द्वारा अचानक घात
लगाकर सड़क निर्माण करने वालों की सुरक्षा में तैनात केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल (सी.आर.पी.एफ.)
के 25 जवानों को बच्चों और महिलाओं को ढाल बनाते हुए खाना खाते समय धोखे से मार
डालने और बड़ी संखया में उनके अत्याधुनिक हथियार लूट ले जाने की घटना की दुखद है, उसकी
जितना निन्दा/भर्त्सना की जाए, वह कम ही होगी। इस दर्दनाक वरदात ने एक बार फिर
हमारी सुरक्षा व्यवस्था की कमियों-खामियों को उजागर कर दिया है। वैसे भी नक्सलियों
ने इस हमले के जरिए केन्द्र सरकार के उस दावे को झुठलाने की कोशिश की, जिसमें
कहा गया था कि नक्सलियों का अब लगभग खत्मा कर दिया गया है। नोटबन्दी ने उनकी
आर्थिक कमर तोड़ दी हैं। वैसे इससे पहले भी ये हत्यारे नक्सली देश की शोषणकारी,
अन्यायपूर्ण और अत्याचारी व्यवस्था के खात्मे के नाम पर बेकसूरों के खून से होली
खेलते आए हैं। तीस जनवरी से अब तक 44 जवानों की वे जान ले चुके
हैं। इसी मार्च में होली से ठीक पहले नक्सली हमले में इसी इलाके के कोत्ताचेरू में
12 सीआरपीएफ शहीद हुए थे, उस समय भी वे पुल निर्माण में लगे मजदूरों की
सुरक्षा में लगे थे। नक्सली हर हाल में अपने इस गढ़ में सड़क निर्माण को रोकना चाहते
है, जहाँ उनकी अपनी सरकार कायम है। अगर इस इलाके में दो राजमार्गों को जोड़ने वाली
यह सड़क बन जाती है तो उस दशा में उनके इस गढ़ को ढहने में देर नहीं लगेगी।
केन्द्र सरकार हर बार यह कह कर देश के लोगों को
भरोसा दिलाने की रस्म अदायगी करती आयी है कि भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति
नहीं होने दी जाएगी। लेकिन सुरक्षा व्यवस्था में बनी खामियों को दूर करने के
गम्भीरता से प्रयास नहीं किये जाते। नतीजा हालात जस के तस बने रहते हैं। ऐसे में
ये नक्सलवादी बड़ी आसानी से सुरक्षा बलों को अपना शिकार बना कर सुरक्षित भाग निकलने
में सफल हो जाते हैं। वैसे सच यह है कि नक्सलवाद को पनपाने तथा बने रहने के पीछे
हमारी वर्तमान राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, न्यायिक
व्यवस्था है जिसमें व्याप्त तमाम खामियों को दूर किये बगैर इस विचारधारा का समूल
नाश सम्भव नहीं है।
अपने देश
में नक्सलवादी समस्या भयावह नासूर सरीखी बनी हुई है। ये चीन समर्थक और उससे पोषित
नक्सली भारत की आन्तरिक सुरक्षा को सबसे बड़ा खतरा बने हुए हैं। इनके कारण सुरक्षा
व्यवस्था पर भारी धन खर्च होने के साथ-साथ विकास का पहिया भी तेजी से आगे नहीं बढ़
पा रहा है। वर्तमान में इसकी गिरफ्त में दस राज्य से अधिक हैं जो इस प्रकार हैं-
पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखण्ड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, आन्ध्र, तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्य
प्रदेश, उ.प्र.है। नक्सलियों ने नेपाल से लेकर महाराष्ट्र तक के राज्यों में लाल
गलियारा (रेड कॉरिडोर) बनाया हुआ है जो जनजाति/आदिवासी बहुल क्षेत्र होने के
साथ-साथ वन और खनिज सम्पदा से मालामाल हैं, लेकिन यहाँ प्राकृतिक और खनिज
सम्पदा का लाभ वनवासियों को नहीं मिलता। उद्योगपति, राजनेता, नौकरशाह
बुरी तरह इनका वैध-अवैध तरीकों से दोहन
करते आए हैं।
वस्तुतः अपने देश में 'नक्सलवाद' शुरुआत
उन कम्युनिस्टों ने की, जो चीन की क्रान्ति के प्रर्वतक माओ त्से तुंग की
इस विचारधारा से प्रभावित थे कि सत्ता बन्दूक की गोली से निकलती है। दूसरे शब्दों
में सत्ता बन्दूक के जोर से हासिल की जाती है। सन् 1967 में पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी जिले के
नक्सलवाड़ी गाँव में तत्कालीन शासन व्यवस्था के विरुद्ध कानु सन्याल तथा चारू
मजूमदार ने सशस्त्र आन्दोलन छेड़ा, जो ये मानते थे कि भारतीय
मजदूरों और किसानों की दुर्दशा का कारण सरकारी अनुचित नीतियाँ हैं। इसके कारण उच्च
वर्ग का शासन तंत्र तथा कृड्ढि तंत्र पर दमनकारी एवं शोषणकारी वर्चस्व स्थापित हो
गया है। इसे केवल सशस्त्र क्रान्ति के माध्यम से समाप्त किया जा सकता है। चूँकि यह
शस्त्र आन्दोलन का नक्सलवाड़ी गाँव से शुरू हुआ , इसलिए इसका नामकरण 'नक्सलवाड़ी
आन्दोलन' पड़ गया। इस विचारधारा के मानने वालों को 'नक्सलवादी' कहा
जाने लगा। सन् 1967 नक्सलवादियों ने कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की एक
अखिल भारतीय समन्वय समिति बनायी। इन विद्रोहियों ने औपचारिक रूप से स्वयं को भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी से अलग कर लिया और सरकार के खिलाफ भूमिगत होकर लड़ाई छेड़ दी। सन्
1971 में आन्तरिक विद्रोह हुआ, जिसके अगुवाई सत्यनारायण सिंह ने की। कुछ समय बाद
चारू मजमूदार की मृत्यु हो गयी। ये नक्सलवादी एकाधिक गुटों में बँट गए। इनमें से
कुछ नक्सली गुट वैधानिक तौर पर स्वीकृत राजनीतिक पार्टी बन गए हैं और संसदीय चुनाव
में भाग ले रहे हैं, किन्तु कुछ गुट अब भी 'छद्म
युद्ध' कर रहे हैं। नक्सलवादी विचारधारा को विचलन की सबसे बड़ी मार बिहार, आन्ध्र
प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखण्ड में झेलनी पड़ रही है। सन् 2010 में देश के 20राज्यों
के 223जिले नक्सलवाद से प्रभावित थे। अब यह 13 राज्यों के 106 जिलों तक सीमित हो गया है।
नक्सलवादी जनान्दोलन अपार भ्रष्टाचारी, शोषणकारी, अन्यायी, अत्याचारी
वर्तमान व्यवस्था के विरोध में शुरू जरूर हुआ था, किन्तु देखते-देखते यह
आतंक का पर्याय बन गया तथा पूरे देश में यह बड़ी तेजी से फैल गया। इस जनान्दोलन के
जन्मदाता कानु सन्याल ने इसमें आयीं विकृतियों से निराश होकर आत्महत्या कर ली। यह
आन्दोलन अब अपने मूल लक्ष्य से भटक गया है और जिनके लिए बना था उनका ही शोड्ढण्ड
और दमन कर रहा। वैसे कड़वी सच्चाई यह भी है कि नक्सलवादी विचारधारा को खुराक हमारी
व्यवस्था से ही मिल रही है। इसमें सभी भागीदार हैं यानी सरकार तथा समाज। कभी-कभी
तो लगता है कि हमारी व्यवस्था की दिलचस्पी नक्सलवाद का खात्मा करने के बजाय उसे
बरकरार रखने में कहीं अधिक है। अगर ऐसा नहीं है तो लगातार बढ़ती आर्थिक और कई दूसरी
तरह की गैरबराबरी से आक्रोश तथा जन असन्तोष बढ़ रहा है, पर
इसकी किसी को भी परवाह नहीं। उसे मिटाने को प्रभावी कारगर कदम क्यों नहीं उठाये जा रहे हैं? यह
प्रश्न मौजू है।
मौजूदा व्यवस्था के कारण अन्याय, अनाचार, अत्याचार, शोषण
बढ़ रहा है, पर इनसे छुटकारा दिलाने में किसी की कोई खास दिलचस्पी नहीं है। वर्तमान
पूँजीवादी व्यवस्था में आम आदमी को अपना अस्तित्व बचाना ही मुश्किल है, उसमें
सम्मानपूर्ण जीवन जीना असम्भव-सा हो गया है। अधिकांश नेताओं की नैतिकता केवल भाषणों
तक सीमित रह गयी है जिन पर देश चलाने का दायित्व है। नौकरशाही/पुलिस उनके संरक्षण में आम जनता का खुलकर शोषण कर रही है, इन
दोनों के चुंगल से बचा पाना दुष्कर है।
न्यायालय में न्याय बिक रहा है। इनसे आम आदमी का न्याय पाने की उम्मीद करना ही
फिजूल है। पृथक छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद नक्सलियों से लड़ने के लिए सरकार ने
जुडूम जैसे व्यापक अभियान शुरू किया। इसे
सभी राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त था। इसके लिए हजारों ग्रामीणों को
गाँवों से निकाल कर पुलिस सुरक्षा में शिविरों में रखा गया। उन्हें हथियार चलाने
का प्रद्गिाक्षण देकर बन्दूक दी गयीं, ताकि वे नक्सलियों से
मुकाबला कर सकें। फिर उनसे ये बन्दूकें वापस ले ली गईं। अब ये आदिवासी नक्सलियों
के डर से अपने गाँवों में न रहकर शहरों में रहने को मजबूर है, जहाँ
ये छोटे-छोटे काम कर किसी अपनी जीविका कमा रहे हैं। बस्तर में भारी भ्रष्टाचार है
कि बीजापुर में अमृतदूध पीकर बच्चे मर जाते हैं। नक्सल इलाकों में विकास के कार्य
करने के लिए ठेकेदारों को पुलिस और नक्सलियों दोनों को भेंट चढ़ानी पड़ती है।
सीआरपीएफ जवानों के बड़ी संखया में मारे जाने की वजह नक्सलियों की गतिविधियों के
बारे में उन्हें सही सूचनाएँ समय पर नहीं मिल पाने के साथ-साथ स्थानीय पुलिस का
साथ तथा उसके सूचना तंत्र का सहयोग न मिल पाना रहा है। ऐसे अभियानों में पुलिस को
आगे तथा सुरक्षा बलों को पीछे रहना चाहिए, क्योंकि पुलिस स्थानीय
मार्गों और सामाजिक ताने-बाने से अच्छी तरह परिचित होती है। सरकार का नक्सलियों के
पास चीनी और दूसरे देशों के बने हथियार होने से यही पता चलता है कि हमारी सुरक्षा
में बहुत बड़ी खामी है, इसे और विभिन्न प्रकार की विषमताओं और न्याय को दूर
किये बगैर नक्सवाद की कमर तोड़ पाना आसान नहीं है।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी
नगर,आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054
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