चीन को और कब तक जवाब नहीं देंगे?

डॉ.बचन सिंह सिकरवार
हाल में चीन ने भारत के पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल पर अपना दावा मजबूत करने के इरादे से अपने नक्शों में उसके छह स्थानों के भारतीय नामों की जगह चीनी नाम रख लिए हैं। उसने ऐसी हरकत कोई पहली बार नहीं की है। अरुणाचल में गत चार से तेरह अप्रैल तक के तिब्बती समुदाय के सर्वोच्च बौद्ध गुरु दलाई लामा की धार्मिक यात्रा से पहले चीन ने धमकी भरे लहजे में भारत से दोनों देशों के सम्बन्धों पर गम्भीर असर पड़ने की बात कही थी, तब इसके प्रत्युत्तर में केन्द्रीय गृहराज्य मंत्री किरण रिजिजू ने चीन को भारत के आन्तरिक मामलों में न बोलने की सलाह दी थी और चीन को कृत्रिम विवाद पैदा न करने की हिदायत भी दी। तब चीन को इससे भी कठोर जवाब दलाई लामा के अरुणाचल दौरे के बीच  मुखयमंत्री पेमा खाण्डू ने यह कहकर दिया कि अरुणाचल की सीमा चीन से नहीं, वरन्‌ तिब्बत से मिलती है। इससे बौखलाया चीन शान्त नहीं रहा। दलाई लामा के दौरे के बाद चीन के विदेश मंत्रालय ने बयान दिया कि दलाई लामा के इस दौरे का भारत के सीमा विवाद पर असर पड़ेगा। इससे पहले चीन के सरकारी मीडिया ने भारत को धमकाने के अन्दाज में कहा कि चीन की सेना को दिल्ली पहुँचने में सिर्फ 48 घण्टे लगेंगे। इतना ही नहीं, भारत के विदेश सचिव के चीन यात्रा से पहले चीन की तरफ से वार्ताकार रहे एक अवकाश प्राप्त राजनयिक ने बयान दिया कि चीन अरुणाचल पर अपना दावा नहीं छोड़ सकता। अगर भारत वहाँ हटाना स्वीकार कर ले, तो चीन अन्य विवादित क्षेत्रों पर रियायत बरता सकता है। भारत के खिलाफ चीन ऐसी बेजा हरकतें बहुत पहले से करता आया है। वह कभी अरुणाचल के निवासियों को नत्थी वीजा देकर, तो कभी वहाँ भारतीय उच्चाधिकारियों या नेताओं के इस राज्य के दौरा करने पर आपत्ति व्यक्त करता आया है, लेकिन पता नहीं क्यों ? भारत ने कभी चीन को उसकी शैली/अन्दाज और तेवर में जवाब देने की आवश्यकता नहीं समझी ? इस कारण उसका दुस्साहस लगातार बढ़ता ही जा रहा है। इस बार भी  चीन की इस बेजा और गैरजरूरी हरकत पर भारत ने अपनी नाराजगी जताने के बजाय यह सोच कर चुप रहाकि व्यर्थ में विवाद क्यों बढ़ाया जाए ? क्या भारत इस सच्चाई से अनजान है कि इस सदाश्यता को चीनी डै्गन हमेशा की तरह उसकी कमजोरी समझेगा।
वैसे आवश्यकता इस बात की थी कि भारत को भी उसके इस कदम के जवाब में कुछ वैसी हरकत करनी थी। उसे चीन को बताना चाहिए था कि किसी दूसरे के इलाके की जगहों के नाम बदल कर अपनी भाषा में रख लेने से कोई उसका मालिक नहीं बन जाता है। अगर ऐसा ही है तो वह भी उसके कुछ इलाकों के ही नहीं, पूरे चीन का ही नाम बदल कर हिन्दी में रख दे, तो क्या चीन भारत का हिस्सा बन जाएगा ? वैसे भी चीन की विस्तारवादी नीति का कोई ओर छोर नहीं है, वह पूरे दक्षिण चीन सागर को हथियाने की फिराक में है। उस पर भी अपना दावा साबित करने के इरादे से उसके द्विपों के नामकरण चीनी भाषा में कर रहा है, जबकि अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय अपने निर्णय में उस पर अन्य देशों का हक भी बता  चुका है। चीन भारत को चारों ओर से घेर कर उसके सभी तरह के हितों को नुकसान पहुँचाने के साथ-साथ उसकी सुरक्षा के लिए गम्भीर खतरा पैदा कर रहा है। भारत को चीन को स्पष्ट कर देना चाहिए कि इन पैतरों से सीमा विवाद सुलझाने के नाम पर वह उसके इलाकों पर कब्जा कर लेगा, तो वह मुगालते हैं। भारत भी उसके 'चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे' में तिब्बत की आजादी का सवाल अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाने के साथ-साथ गुलाम कश्मीर और बलूचिस्तान का फच्चर फँसा सकता है, जो वर्तमान में पाकिस्तान के विरुद्ध आन्दोलित हैं।
वस्तुतः भारत ने कभी भी चीन के अरुणाचल और जम्मू-कश्मीर के निवासियों को नत्थी वीजा दिये जाने का खुल कर विरोध नहीं किया, जो उसके इन क्षेत्रों को विवादित या फिर क्रमश: पाकिस्तान और अपना होने का दावा करता आया है। अगर भारत ने चीन की इस अनुचित रवैये का जवाब देते हुए तिब्बत और शिनजियांग के बाशिंदों को नत्थी वीजा देने की कोशिश की होती, तो वह भी अपनी भूल सुधार करने को मजबूर होता। तिब्बत मूलतः स्वतंत्र देश रहा है जिस पर वह भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की अदूरदर्शिता के कारण कब्जा जमाने में चीन कामयाब हो गया। सन्‌ 1959 में तिब्बत में चीन के खिलाफ विद्रोह हुआ, तब दलाई लामा ने वहाँ से बचकर भारत में शरण लेकर रह रहे हैं। चीन उन्हें अपने लिए खतरा मानता है। इसी तरह शिनजियांग भी पूर्वी तुर्की का हिस्सा है जिस पर वह बलात कब्जा जमाये हुए है। वर्तमान में तिब्बत और शिनजियांग के लोगों अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत है, चीन उनका बुरी तरह से दमन कर रहा है। कोई 120 से अधिक तिब्बती युवक चीनी शासन के खिलाफ आत्मदाह कर चुके हैं।  
    चीन खुलकर हर मामले में पाकिस्तान का पक्ष, बल्कि उसकी सभी प्रकार से मदद करता आया है। चीन वीटो का इस्तेमाल कर पाकिस्तान के आतंकवादी मौलाना मसूद अजहर पर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रतिबन्ध लगाये जाने से बचाता आया है। वह भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह की सदस्यता दिये जाने का विरोध करता रहा है। इसके बाद भी भारत ने चीन को समुचित उत्तर देने पर विचार तो दूर रहा, उससे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार कम करने की दिशा में भी कोई कदम नहीं उठाया है, जबकि इसमें उसे कई गुणा व्यापार घाटा उठाना पड़ रहा है। जब चीन एक भारत (वन इण्डिया) की नीति का समर्थन नहीं करता, तो भारत को उसकी 'वन चाइना नीति' का समर्थन क्यों करना चाहिए ? इसका बात जवाब भारत सरकार को अपनी देश की जनता को देना चाहिए। हालाँकि भारत ने विदेश नीति में तिब्बत कार्ड का उपयोग बन्द कर दिया है, किन्तु जब चीन एक भारत की नीति का समर्थन नहीं कर रहा है और स्वयं तिब्बत के मसले को सीमा विवाद से जोड़ रहा है, तो भारत को 'वन चाइना नीति' से बँधे रहने की क्या जरूरत है ?
अब जहाँ अरुणाचल को लेकर विवाद का प्रश्न है तो चीन अरुणाचल को अपना हिस्सा मानता है, इसे वह दक्षिणी तिब्बत बताता है। यहाँ का तंवाग मठ तिब्बत की राजधानी लासा के बाद बौद्धों का दूसरा सबसे बड़ा और प्राचीन मठ है। यह उनके छठे दलाई लामा का जन्म स्थान है। चीन अरुणाचल में भारतीय उच्चाधिकारियों या नेताओं के दौरों लगातार विरोध करता आया है। सन्‌ 1962 में चीन भारत पर आक्रमण कर जम्मू-कश्मीर के लद्‌दाख इलाके के अक्साईचिन (अक्षय चीन) पर हजारों वर्ग किलोमीटर पर बलात कब्जा जमाये हुए। चीन सैनिक इस इलाके में घुसपैठ भी करते रहते हैं। सन्‌ 2006 में अरुणाचल पर चीन के दावे के बाद सन्‌ 2009 से भारत ने यहाँ अतिरिक्त सैन्य तैनात करने की घोषणा की। चीन एक ओर तो भारत का अहित करने का कोई मौका नहीं चूकता, दूसरी ओर उससे हर तरह से फायदे उठाने चाहता है। वैसे भी कुछ हफ्ते बाद चीन के नेतृत्व वाले 'शंघाई सहयोग संगठन' (एस.सी.ओ.) की बैठक है जिसमें भारत को पाकिस्तान के साथ पूर्णकालिक के रूप में सम्मिलित होना है। फिर आगामी कुछ महीनों तक चलने वाली बिक्स मंत्री समूहों की बैठकों में भाग लेने को भारत सरकार के कई मंत्री चीन जाएँगे। चीन चाहता है कि भारत अपने किसी अधिकारी को प्रतिनिधि के रूप में आगामी माह आयोजित 'वन बेल्ट-वन रोड' सम्मेलन में भेजे, जो चीन के शिनजियांग प्रान्त से चल कर भारत के जम्मू-कश्मीर के पाकिस्तान द्वारा कब्जाये गुलाम कश्मीर से होकर पाक के कराची के पास स्थित ग्वादर बन्दरगाह पहुँचता है, जिसे 'चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा' ( सीपीईसी या सीपेक) कहा जाता है। भारत का इस सम्मेलन में भाग लेने का अर्थ उसका इस परियोजना सहमत होना होगा, जो भारत की बगैर रजामन्दी के मनमाने तरीके से चलायी जा रही है। खेद की बात यह है कि भारत ने इस परियोजना विरोध किया है, किन्तु उस तरह जिस तरह किया जाना अपेक्षित है। इस परियोजना से भारत के क्षेत्र पर पाक-चीन का न केवल कब्जा मजबूत होगा, बल्कि यह उसके सामरिक हितों के लिए भी अत्यन्त घातक है। ऐसे में भारत को अपने हितों और सुरक्षा के लिए चीन को उसकी भाषा, तेवर, अन्दाल जवाब देना जरूरी है। उसे गुलाम कश्मीर बन रहे चीन-पाक आर्थिक गलियारें के मुखर विरोध के साथ-साथ तिब्बत उसके बाँध बनाने, दक्षिण चीन सागर को हथियाने का मुखालफत करनी चाहिए। अगर चीन एक भारत की नीति की अनदेखी करता है तो उसे ताइवान से सम्बन्ध बढ़ाने ओर प्रयास करने चाहिए, जिसे वह अपना अभिन्न हिस्सा बताता है। भारत को दक्षिण चीन सागर में वियतनाम के लिए तेल की खोज से भी पीछे नहीं हटना चाहिए। चीन के आर्थिक हितों पर प्रहार करने के लिए व्यापार  सन्तुलन पर ध्यान देना होगा। हम किसी से लड़ना नहीं चाहते, तो इसके माने उससे दबकर या झुक कर रहना तो नहीं है। भारत को यह समझ लेना चाहिए कि चीन की विस्तारवादी भूख कोई अन्त नहीं है। वह सिर्फ आँखें दिखाता है, गुर्राता है, दूसरे कन्धे पर बन्दूक चलाता है, पर खुद मैदान में आकर जंग करने का माद्‌दा नहीं है चीन में।

 सम्पर्क - डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब, गाँधी नगर, आगरा - 282003 मो. नम्बर - 9411684054

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