कभी तो रंग लाएगी तिब्बतियों की आजादी की यह तड़प?



                                   डॉ.बचन सिंह सिकरवार
हाल में नयी दिल्ली में आयोजित पाँच देशों के ब्रिक्स' (ब्राजील ,रूस ,भारत ,चीन ,द.अफ्रीका) के शिखर सम्मेलन में भाग लेने आने वाले चीन के राष्ट्रपति हू जिंताओ के आगमन के विरोध में तिब्बतियों के विभिन्न संगठनों ने हर बार की तरह पुरजोर विरोध किया ,जिसमें गत २६ मार्च को यूथ तिब्बतियन काँग्रेस' के सदस्य जामयांग येशी ने दोपहर १२.२० बजे अपने ऊपर तेल उड़ेल कर आग लगा ली, जिनकी बाद में अस्पताल में इलाज के दौरान मौत हो गयी, निश्चय ही अपनी माँग और  विरोध के इस तरीके को शायद ही कोई सही मानेगा। लेकिन हकीकत यह है कि फिर एक अत्यन्त शक्तिशाली विरोधी/शत्रु से मुकाबला करें तो कैसे?
 वैसे तिब्बत की आजादी को लेकर दिल्ली में आत्मदाह की यह तीसरी घटना है। इससे पहले सन्‌ १९९४ में एक युवक ने भी आत्मदाह किया था। अपने देश की केन्द्र और राज्य सरकारें चीन की नाराजी के डर से अपने यहाँ रह रहे इन तिब्बतियों की चीन विरोध प्रदर्शनों को रोकने के लिए उन पर बर्बर दमनात्मक की कार्रवाई करती आयी हैं इसके बाद भी उनके जोश में तनिक भी कमी नहीं आयी है । भारतीयों की नजर में  तिब्बतियों के इन विरोध प्रदर्शनों की अहमियत भले ही बहुत ज्यादा न हो, किन्तु चीन दुनिया भर में इन तिब्बतियों के अपनी आजादी तथा धार्मिक स्वतंत्रता आदि की माँग को लेकर होने वाले प्रदर्शनों और आत्मदाह को लेकर बेहद भयभीत है। वह इन्हें अपने देश की एकता तथा अखण्डता के भारी खतरा मानता है। तभी तो तिब्बती वेबसाइट पर पोस्ट चीन की सरकारी संवाद समिति शिन्हुआ' ने भी एक लेख प्रकाशित किया है। उसमें लिखा है कि चीन की धार्मिक स्वतंत्रता की माँग को लेकर तिब्बतियों के आत्मदाह और तिब्बती बहुल इलाकों में हिंसक संघर्ष के लिए तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा तथा विदेशी समूहों को जिम्मेदार  हैं।
तिब्बत की स्वायत्तता और दलाईलामा की वापसी की माँग को लेकर गत वर्ष ३० बौद्ध भिक्षु आत्मदाह कर चुके हैं। इस लेख की माध्यम से चीन ने दलाईलामा पर आरोप लगाया है कि वे लोगों को आत्मदाह के लिए उकसा रहे हैं। उन्होंने ही तिब्बतियों को फरवरी में तिब्बती नया साल (लोसार) न मनाने और इस दिन आत्मदाह करने वालों को याद करने के लिए कहा था। तिब्बत पर चीन के सरकार का पक्ष प्रस्तुत करने हेतु यह वेबसाइट सन्‌ २०००में शुरू की गयी थी। इसमें दलाई लामा के उस बयान की भी आलोचना की गयी है जिसमें तिब्बती स्कूलों में चीनी भाषा के बढ़ते प्रयोग से तिब्बती संस्कृति का नुकसान पहुँचेगा। इतना ही नहीं, इसमें कहा है,’दलाई लामा तिब्बत को अपनी सम्पत्ति और यहाँ के लोगों को अपना नौकर समझते हैं।' चीन सरकार का दावा है कि उसने अल्पसंख्यक इलाकों में भारी निवेश करके वहाँ की जीवनशैली बेहतर बनायी है जबकि दलाई लामा के सन्‌ १९५८ में भारत जाने से पहले इन इलाकों में रहने वाले तिब्बतियों के पास जनसुविधाओं का अभाव था। वेबसाइट में यह भी आरोप लगाया गया है कि दलाई लामा अमरीका के एजेण्ट हैं। अमरीका ही उन्हें चीन विरोधी गतिविधियों को संचालित करने को धन उपलब्ध कराता।
   चीन की राजधानी बीजिंग में गत २२मार्च को चीन की एक अदालत ने हालिया प्रदर्शनों में हिस्सा लेने वाले ११ तिब्बतियों को सख्त सजा सुनायी है। इसी दौरान  तिब्बती धर्म गुरु  दलाईलामा की वापसी की माँग को लेकर तिब्बती क्षेत्र में प्रदर्शन जारी हैं। ऐसे ही न्यूयार्क में भी २२मार्च को संयुक्त राष्ट्रसंघ मुख्यालय के बाहर करीब एक महीने से भूख हड़ताल पर बैठे तिब्बतियों ने हड़ताल समाप्त करने से मना कर दिया। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र से तिब्बत की स्थिति के आकलन और चीन द्वारा तिब्बतियों के दमन पर अंकुश लगाने के लिए दबाव बनाने की माँग की है।
सच यह है कि चीन तिब्बत को हड़पने के बाद से ही इस इलाके और यहाँ लोगों की विशिष्ट पहचान मिटाने के तमाम उपाय करता आया है। उसने तिब्बत में अधिकाधिक चीनियों को बसाया। वर्तमान में तिब्बत में बहुत अधिक संख्या में चीनी लोग यहाँ बसाये जा चुके हैं। नये  आँकड़ों के अनुसार तिब्बत में ६० लाख तिब्बतियों के साथ-साथ ७२ लाख चीनी बस चुके हैं। इनमें से ४०लाख सेना से जुड़े हैं।इससे यहाँ का जनांकिक स्वरूप बदल गया।  तिब्बती युवाओं को चीनी भाषा सिखायी जा रही है।तिब्बती भाषा में चीनी भाषा के शब्दों के चलन को बढ़ावा दिया, ताकि उन्हें अपने धर्म, भाषा, संस्कृति से विरत किया जा सके।
तिब्बती स्वाधीनता के आन्दोलन को चीनियों ने पाशविक बल से कुचल दिया। यही नहीं, तिब्बती वंश का भी विनाश करने में जुटा हुआ है। उसने बड़ी संख्या में बौद्ध मठों को ध्वस्त कर दिया है या फिर उन पर कब्जा कर लिया है। इसके बाद उनमें अपने पक्षधर लामाओं  की नियुक्ति कर दी है। यहाँ तक कि बौद्धों के सबसे बड़े धर्म दलाई लामा को बदनाम करने के साथ उनके समानान्तर चीन समर्थक  लामा को महत्त्व प्रदान किया।   इसके साथ ही विकास नाम पर सामरिक तैयारियाँ शुरू कर दीं। इसके लिए दूरदराज इलाकों तक  सड़कों और रेल की पटरियों के जाल बिछाया गया है। तिब्बत में अनेक हवाई अड्डे और पट्टियाँ बनायी गयी हैं। मई,१९५१ में कम्युनिस्ट चीन ने इस पर अधिकार कर लिया। यह चीनी साम्राज्य के दक्षिण में है। इसकी दक्षिणी सीमा पर भारत ,नेपाल और भूटान हैं। इसका क्षेत्राफल ४,७५,००० वर्गमील है और जनसंख्या दस लाख से अधिक है। पूर्व में स्वतंत्र तिब्बत देश भारत एवं चीन के बीच कवच का कार्य करता था।  तिब्बत पर चीन का प्रभुत्व ,विवादित है। तिब्बतियों का कहना है कि वे सदैव चीन से स्वतंत्र रहे थे। चीन के तिब्बत को  अपने देश का हिस्सा बताता आया है लेकिन ऐतिहासिक तथ्य कुछ इस प्रकार हैं कि तिब्बत में स्वतंत्र राजा-प्रजा की परम्परा ई.पू.३९००से ३५००ई.पू.की  है जो  २०वीं शताब्दी तक निरन्तर बनी रही। यह बात अलग है कि तिब्बत का इस बीच चीनी से कई बार युद्ध हुआ और संधियाँ भीं। सन्‌ ६५४-६५५में तिब्बत-चीन युद्ध हुआ,जिसमें तिब्बत देश विजयी हुआ और चीन के शुंगशुंग  तथा काश्गर को जीत कर तिब्बत में मिलाया गया। पुनः ७४१ से ७४७ तक तिब्बत चीन युद्ध हुआ,जिसमें चीन को पराजय का मुँह देखना पड़ा। चीन के प्रान्त कान्सु ,सिचुनान और युन्नान को तिब्बत ने अपने नियंत्रण में ले लिया। अरबी इतिहासकार  अल-यकूबा के अनुसार एक बार तिब्बती सेनाओं ने अरब की राजधानी की घेर लिया था। सन्‌ ८२१-२२ में पुनः तिब्बत चीन  संधि का उल्लेख मिलता है।
९९०ई.से १२२७ ई. तक तिब्बत में सत्ता और बौद्ध धर्म का प्रभाव अपने चरम थे। बीच में मंगोल शासकों ने तिब्बत पर अपना प्रभाव बढ़ाया ,लेकिन तिब्बत के सम्राट जंगछुप ग्यल्छेन (१३५०-१३६४) ने उसे समाप्त कर दिया। इसके १८साल बाद चीन के मिंग वंश को मंगोलों से स्वतंत्रता मिली। उक्त विवरण से स्पष्ट है कि तिब्बत चीन के अधीन कभी नहीं रहा,जैसा कि चीन की जनवादी(माओवादी) सरकार समय-समय पर प्रचारित करती रही है। सन्‌ १८९५ में तिब्बत में १३वें दलाई लामा सत्ता में आये। उस समय रूस, ब्रिटेन और चीन तिब्बत पर अपना नियंत्रण बनाने के लिए प्रयत्नशील थे। ब्रिटिश भारतीय तिब्बत में अपने व्यापारिक हित सुरक्षित करना चाहते है। साथ ही तिब्बत में अपना राजनीतिक प्रभाव भी ,जिससे कि रूस का तिब्बत में रोका जा सके। सन्‌ १९०४ में लार्ड कर्जन के शासन काल में ब्रिटिश भारत ने तिब्बत पर आक्रमण  कर दिया। परिणामतः एक संधि के अन्तर्गत कुछ स्थानों पर ब्रिटिश सरकार को कार्यालय खोलने का अधिकार मिल गया। लार्ड कर्जन  ने चालाकी पूर्ण तरीके से जहाँ तिब्बत को स्वतंत्र राष्ट्र माना, वहीं चीन से १९०७ में चुपचाप संधि करके तिब्बत को चीन के प्रभावन्तर्गत आने वाला (सुजरनिटी) क्षेत्र माना। रूस से सन्‌ १९०७ में किये गये समझौते  में भी तिब्बत से राजनीतिक सम्बन्धों के लिए चीन की मध्यस्थता को भी स्वीकार किया। अँग्रेजों की इस चालबाजी  से प्रेरित होकर सन्‌ १९०८में चीन ने तिब्बत पर आक्रमण किया और कुछ भाग पर कब्जा भी कर लिया। सन्‌ १९११ में तिब्बत ने युद्ध द्वारा वह भाग पुनः प्राप्त कर लिया और स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। इसी दौरान सन्‌ १९१४में ब्रिटेन, चीन और तिब्बत के मध्य शिमला समझौता हुआ ,जिसमें तिब्बत की स्वायत्तता को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया। इसमें चीन ने (ब्रिटिश भारत की सरकार ने भी)इस बात के लिए प्रतिबद्धता स्वीकार की थी कि- वे तिब्बत में सेना नहीं भेजेंगे, सैनिक-असैनिक अधिकारी का पद स्थापित नहीं करेंगे। चीन वहाँ अपनी कॉलोनियाँ नहीं बसाएगा। यह भी प्रावधान था कि समस्या की स्थिति में ल्हासा  सरकार  से सम्पर्क किया जाएगा। मठों, शीर्ष पुजारियों की नियुक्ति एवं धार्मिक संस्थाओं से सम्बन्धित नियंत्रण के पूरे अधिकार तिब्बत सरकार के पास होंगे। चीनी प्रतिनिधि ने उस पर हस्ताक्षर तो किये, लेकिन जब चीन की संसद ने अनुमोदन नहीं किया तो तिब्बत और ब्रिटिश सरकार ने संयुक्त घोषणा पत्रा जारी करते हुए लिखा कि इस समझौता पत्र में चीन को दिये गये अधिकार भी मान्य नहीं होंगे। इसी १९१४ के समझौते में निर्धारित भारत-तिब्बत सीमा रेखा(मैकमोहन)तक और आज भी दोनों देशों के बीच सीमा का प्रमुख आधार है। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय स्वतंत्र राष्ट्र की हैसियत से तिब्बत की गदेन फोडंरग सरकार ने अस्त्र-शस्त्रों को तिब्बत होकर ले जाने की अनुमति नहीं दी थी। सन्‌ १९४२ में अमरीकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने १४वें दलाई लामा (वर्त्तमान दलाई लामा)की अनुमति से वहाँ  दो दूत भेजे थे।

सन्‌ १९४७ में नयी दिल्ली में आयोजित प्रथम एशियाई सम्मेलन' में तिब्बत प्रतिनिधि स्वतंत्र राष्ट्र की हैसियत से अपना ध्वज फहरा कर सम्मिलित हुए थे। सन्‌ १९४७तक चीन के शासक जनरल च्यांग काई शेक' के यहाँ तिब्बत का राजदूत बीजिंग में रहता था। उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि तिब्बत सदैव से एक स्वतंत्र राष्ट्र था। अँग्रेजों ने अपने शासन काल में तिब्बत को एक बफर स्टेट मानकर भारत की सीमा रक्षा के लिए प्रोटेक्टोरेट'(रक्षक)बनाया था। ठीक उसी तरह जैसे वर्त्तमान में भूटान है।अँग्रेजों के समय तिब्बत में भारतीय सिक्का'चलता था और भारतीय सेना की एक टुकड़ी वहाँ स्थायी रूप से रहती थी। यहाँ तक कि भारतीय डाकघर भी वहाँ काम करता था। भारत और तिब्बत के सांस्कृतिक सम्बन्ध तो सदियों पुराने थे। एक ओर कैलाश और मानसरोवर वैदिक सनातन आस्था से जुड़े थे तो दूसरी ओर तिब्बत के लिए भारत बौद्ध श्रद्धा का केन्द्र था। तिब्बत के लिए दुर्भाग्य का समय तब शुरू हुआ जब साम्यवादी नेता माओत्से तुंग का चीन की मुख्य भूमि पर कब्जा हो गया और चीन के शासक च्यांग काई शेक पराजित होकर फारमोसा( अब ताइवान) चले गए।अक्टूबर,१९४९ से ही पीकिंग रेडियो ने घोषणाएँ शुरू कर दी थीं कि चीन की जनमुक्ति सेनाएँ  तिब्बत को साम्राज्यवादी शक्तियों के प्रभाव से मुक्त करायेंगी। इसी कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए चीन की सेना (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) तिब्बत में घुस आयी। दरअसल, नेहरू जी की गलतफहमी थी कि चीन भी साम्राज्यवादियों का सताया हुआ है। अतः उन्होंने चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई के प्रचार से प्रभावित होकर कि पश्चिमी जनसंचार माध्यम तिब्बत की छिटपुट घटनाओं को तूल दे रहा है, चीन भारत का निकटतम मित्र है। अतः भारत को चीन की बात पर भरोसा करना चाहिए। जिस प्रकार पं. जवाहर लाल नेहरू कश्मीर के मुद्दे पर धोखा खाकर संयुक्त राष्ट्र संघ में चले गए थे उसी प्रकार चाऊ एन लाई की बातों में आकर उन्होंने तिब्बत से अपनी फौजें हटाकर भयंकर भूल की और जिस चीन के विस्तारवाद से तिब्बत भूमि पर युद्ध लड़कर समस्या को वहाँ रोके रखा जा सकता था वह चीन दनदनाता हुआ भारतीय सीमा में घुस आया।
चीन के तिब्बत का हड़पने पर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को बहुत दुःख हुआ। उसकी इस कार्रवाई पर अपनी नाराजगी भी जताते हुए प्रधानमंत्री श्री नेहरू ने कहा कि चीन अपनी सेनाएँ हटायें और  तिब्बत की संस्कृति अक्षुण्ण रहने दें। 
 इस पर  तत्कालीन चीनी  प्रधानमंत्री चाउ एन लाई ने पण्डित नेहरू को अपनी सफाई में कहा कि चीन ने  तिब्बत पर कब्जा नहीं किया है ,बल्कि उसे सामन्तवादियों से मुक्ति दिलायी है। इससे  उसकी स्वतंत्रता तथा उसकी प्रभुसत्ता में  कोई अन्तर नहीं आएगा। तिब्बत पूर्व की भाँति  ही एक स्वतंत्र और स्वायत्तता प्राप्त देश बना रहेगा। वह न प्रशासन में हस्तक्षेप करेगा और न बौद्ध धर्म-संस्कृति से छेड़छाड़ करेगा, जबकि उनका यह कथन पूरी तरह असत्य था।  सन्‌ १९५९ में चीन ने तिब्बत के राजनीतिक प्रधान और धार्मिक गुरु दलाई लामा को गिरफ्तार कर बीजिंग ले जाने षड्यंत्र रचा ,लेकिन किसी तरह दलाई लामा को इसकी भनक लग गयी। तदोपरान्त वे गुपचुप तरीके से रातों-रात वे पैदल  तथा खच्चरों से यात्रा कर भारत आ गये। उनके  साथ हजारों अनुयायियों भी थे । उनके भारतीय सीमा में पहुँचने के  बाद प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने भारतीय  संसद में घोषणा की कि भारत ने दलाई लामा को राजनीतिक शरण प्रदान कर दी है। इससे  चीन बहुत क्रोधित हुआ। इस कारण भारत-चीन के सम्बन्धों में  खटास पैदा हो गयी। परिणामतः सन्‌ १९६२ में चीन ने भारत पर हमला कर लद्दाख के एक बड़े भूभाग पर कब्जा कर लिया।  इस अप्रत्याशित युद्ध में भारत को हार का मुँह देखना पड़ा।
उस समय से  दलाई लामा  हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला पर्यटन स्थल पर अपने हजारों अनुयायियों के साथ निवास कर रहे हैं। वे दुनिया भर में  यह प्रचारित करते आये हैं कि चीन ने उनके देश  तिब्बत की स्वतंत्रता, स्वायत्तता हरण और बौद्ध संस्कृति का समूल विनाश कर दिया है। दलाई लामा को अब भी इस बात का पूरा विश्वास है कि एक न एक दिन उनके देश को स्वाधीनता मिलेगी। दलाई लामा को लोकतांत्रिक देशों का भारी समर्थन प्राप्त  है।  उनके शान्ति पूर्ण प्रयासों के देखते हुए कुछ वर्ष पहले नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। सारे संसार के लोकतांत्रिक देशों ने विशेष रूप से अमरीका ने चीन पर यह दबाव बनाया कि वह दलाई लामा के साथ बातचीत करे । अगर चीन तिब्बत को पूर्ण स्वतंत्रता न भी दे , तो कम से कम कुछ मामलों में आजादी जरूर दे।
 चीन दलाई लामा को अमरीका समेत दुनिया के विभिन्न देशों में शासनाध्यक्ष सरीखे मिलने वाले सम्मान और समर्थन से बहुत परेशान है। इस कारण उन्हें अपना सबसे बड़ा शत्रु मानता है। इतना ही नहीं, चीन उन देशों के प्रति भी अपनी नाराजगी जताता आया है जो दलाई लामा को अपने यहाँ आमंत्रित करते हैं या फिर  उनके प्रति सहानुभूति और सम्मान प्रदर्शित करते आये हैं। उसका स्पष्ट मानना है कि जब तक दलाई लामा जीवित  हैं तिब्बत का मुद्दा गरमाता रहेगा। इस कारण दुनिया में वह कहीं भी मुँह उठाकर बात नहीं कर पाएगा। यहीं नहीं , वह ताइवान के खिलाफ भी ज्यादा कुछ कर नहीं पाएगा,जिस पर वह कब्जे की ताक लगा हुआ। इन सभी कारणों से दुनिया के निगाह में उसकी छवि विस्तारवादी तथा अपने लोगों का उत्पीड़न करने वाले मुल्क की बनी हुई।
हालाँकि चीन दुनिया को दिखावे के लिए कई बार  दलाई लामा के प्रतिनिधियों के साथ बीजिंग में बातचीत अवश्य  की ,लेकिन उसका कोई ठोस परिणाम निकला है ,कई बार तो वार्ता शुरू होने से पहले ही टूट चुकी है। लेकिन यह निश्चित है कि यदि तिब्बत ,भारत और दुनिया के दूसरे देशों में रह रहे तिब्बती ऐसे ही अपने देश की आजादी का अलख जगाते रहे ,तो उस दशा में देर सवेर चीन को उनकी माँगें मानने को मजबूर  होना ही पड़ेगा।
३०.३.२०१२ सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार ६३ ब,गाँधी नगर,आगरा-२८२००३ मो.नम्बर-९४११६८४०५४



 

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