क्या गुनाह है हकीकत बयां करना?
डॉ.बचन सिंह सिकरवार
उत्तर प्रदेश के नगर
विकास मंत्री आजम खाँ अपने मंत्रालय के कार्यों
के बजाय भले ही विवादास्पद बयानों के कारण हमेशा सुर्खियों में बने रहते हों, लेकिन
उनके ताजा गैर राजनीतिक इस बयान में सचमुच हकीकत है कि मोबाइल की वजह से दुद्गकर्मों
की घटनाएँ बढ़ी हैं। कम उम्र के बच्चे भी गाँव, मुहल्लों में, राह चलते मोबाइल पर इण्टरनेट
के जरिए गन्दगी देखते हैं और घटनाएँ होती हैं।
यहाँ तक है कि दो ढाई साल की बशियों तक से घटनाओं को भी मोबाइल फोन पर इण्टरनेट के
जरिये देखा जा रहा है। दुर्भाग्य की बात है
कि आजम खाँ की इस सही-सशी और सामयिक बात को सराहने के स्थान पर जनसंचार माध्यमों ने हमेशा की तरह विवादास्पद कह
कर दिखाया तथा यहाँ तक कि उनकी आलोचना भी की,जब कि इनके इस कथन को देशभर के विभिन्न
समाचार पत्रों में प्रकाशित और टी.वी.चैनलों में प्रसारित समाचार भी इसकी पुद्गिट करते
हैं।
वर्तमान में इण्टरनेट
का प्रयोग शिक्षा और ज्ञानार्जन से कहीं ज्यादा इसका इस्तेमाल चैटिंग करने, अश्लील
फिल्में ,पोर्न साइटें आदि देखने के लिए किया जा रहा है। इन्हें देखने के बाद किच्चोरों
और युवाओं के मनमस्तिद्गक में सात्त्विक विचार तो आने से रहे, जबकि कुत्सित और कामोत्तेजक
विचार आने की आच्चंका कहीं अधिक प्रबल रहती है। अक्सर समाचार पत्रों में ऐसे समाचार
पढ़ने को मिल जाते हैं कि अमुक छात्रा/युवती की किसी साथी युवक ने अश्लील वीडियों क्लिपिंग
बना ली। फिर उसे इण्टरनेट पर प्रसारित करने की धमकी देकर वह उसका दैहिक द्राोद्गाण करता रहा। अन्त में परेशान होकर
उस युवती ने पुलिस में उसके खिलाफ शिकायत की या फिर हताश-निराश होकर आत्महत्या कर ली।
पिछले दिनों केन्द्र सरकार ने जब इण्टरनेट की पोर्न
साइटें लॉक करने को कदम उठाये,तो जनसंचार माध्यमों ने यह सिद्ध करने की कोशिश की कि
जैसे वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन करने जा रही हो। बाद में बड़ी मुच्च्किल से
केन्द्र सरकार चाइल्ड पोर्न साइटें ही लॉक कर सकी। इसी तरह जनसंचार माध्यम समलैंगिगों,
लिव इन रिलेशन जैसे मुद्दों को बढ़चढ़ कर दिखाते और प्रकाशित करते हैं जैसे वे कोई लोग
स्वतं़त्र्य योद्धा हों, जबकि उनका यह आचरण प्राकृतिक एवं नैतिकता के सर्वथा विपरीत
है।
ऐसे ही किसी मंच या परिचर्चा में यदि किसी ने छेड़छाड़
की घटनाओं के लिए युवतियों की वेशभूषा की बात कह दी थी, तो बस उसकी शामत आयी समझो। उसे जनसंचार माध्यमों में बैठे
लोग तुरन्त पुरातनपन्थी, तालिबानी करार देने में देर नहीं लगाते। देश में जहाँ कहीं
भी महाविद्यालयों में डे्रस लागू की गयी, उसका भी जनसंचार माध्यमों द्वारा घोर विरोध
ही किया गया, जबकि स्कूल-कॉलेज कोई अंगप्रदर्च्चन और भड़काऊ वस्त्र पहनकर दिखाने के
मंच नहीं हैं। इसी कारण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कला के नाम पर फिल्मों में फूहड़ता
और अश्लीलता परोसे जाने पर कोई भी समझदार व्यक्ति टिप्पणी करने से बचता है, जबकि ये
ही अब फिल्में किच्चोरों और युवाओं को भटकाने की कारक बन रही हैं।
जनसंचार माध्यमों के
इस रवैये से अब ज्यादातर राजनेता और दूसरे लोग कुछ भी कहने से डरने लगे हैं कि पता
नहीं उनके कथन से क्या माने लगाकर ये कहीं उन्हें 'खलनायक' साबित करने में न जुट जाएँ।
वैसे जैसा सलूक अब आजम खाँ के उक्त कथन के साथ किया है,लगभग
ऐसा ही कुछ केन्द्रीय विदेश राज्य मंत्री वी.के.सिंह के इस कथन के साथ किया कि कहीं
किसी ने कुत्ते को पत्थर मारा दिया, तो उसके लिए मोदी को दोद्गाी ठहराने की कोशिश की
जाती है। फिर क्या था कि भाजपा विरोधी दूसरे
राजनीतिक दलों के नेताओं की बन आयी। उन्हें उन पर हमला करने का पूरा मौका मिला गया।
काँग्रेस के पूर्व सांसद और राद्गट्रीय अनुसूचित आयोग के अध्यक्ष पी.एल.पुनिया और बसपा
की राद्गट्रीय अध्यक्ष मायावती ने अपनी ओर से उनके कुत्ते के कथन को दलितों से जोड़ा
कर जी भर निन्दा की, ताकि वे स्वयं को दलितों का सबसे बड़ा हमदर्द साबित कर सकें। यह
सब कहते हुए मायावती ने वी.के.सिंह के प्रति जिस अशालीन भाद्गाा और अभद्र द्राब्दों
का प्रयोग किया, उससे कोई भी उत्तेजित हो सकता है, पर उनके खिलाफ बोलना स्वयं को दलित
विरोधियों की जमात में द्राामिल कराना है। यदि इस कारण आपके खिलाफ मुकदमा दर्ज हो गया,तो वोट
बैंक के कारण कोई भी सियासी नेता तो आपकी पैरवी
करने से रहा।
ऐसा ही कुछ गत लोकसभा
के चुनाव के समय नरेन्द्र मोदी के उस बयान को लेकर हुआ,जिसमें उन्होंने कहा था कि यदि
कुत्ते का पिल्ला भी कार के नीचे आ जाता है तो उसका भी दुःख होता है, इसे जनसंचार माध्यमों
से लेकर उनके राजनीतिक विरोधियों ने कुत्ते के पिल्ले को मुसलमानों से जोड़ा दिया और
अल्पसंखयक समुदाय को भड़काने में खूब इस्तेमाल किया। तब इसमें आजम खाँ भी द्राामिल थे।
कुछ ऐसे ही राद्गट्रीय स्वयं सेवक संघ(आर.एस.एस.) के सर संघचालक मोहन भागवत ने आरक्षण
की पुनःसमीक्षा सम्बन्धी बयान क्या दे दिया। जनसंचार माध्यमों और विरोधी सियासी राजनीतिक
दलों के नेताओं ने ऐसा माहौल बना दिया कि वह आरक्षण समाप्त कराने की पैरोकारी कर रहे
हैं। लेकिन आरक्षण के लक्ष्य को सही ढंग से पाने के उद्देच्च्य से कहे मोहन भागवत
के उक्त कथन पर उचित रूप से चर्चा करने की पहल किसी ने भी नहीं की।
ऐसे ही मीडिया ने जम्मू-कश्मीर के निर्दलीय
विधायक इंजीनियर रशीद पर स्याही फेंकने वालों
या उससे पहले उनसे मारपीट करने भाजपा के विधायकों को खलनायक के रूप में दिखाया,
पर जम्मू-कश्मीर उश न्यायालय के गोकशी के आदेश का उल्लंघन कर विरोध जताने को गोमांस
खाने की दावत देने वाले इस विधायक को गलत ठहराने से बचा गया। इसी तरह मीडिया ने उशतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मार्केण्डेय
काटजू और लेखिका द्राोभा डे के गोमांस खाने की पैरवी करने वाले बयानों को बार-बार दिखाकर
बहुसंखयक हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को न केवल आघात पहुँचाया, बल्कि यह सिद्ध करने
का प्रयास किया कि किसी के खाने-पीने पर बन्दिश लगाना उचित नहीं है। उसने दादरी प्रकरण
पर जितना जोर दिया, उसका हजारवां हिस्सा भी गो तस्करों के हमले में मारे गए दरोगा मनोज
मिश्रा की खबर दिखाने में खर्च नहीं किया।
इसी तरह जब-जब लोगों द्वारा फिल्मों में हिन्दू देवी-देवताओं
के गलत चित्रण या उनका उपहास दिखाने या गाली-गलौज दिखाने पर आपत्ति की गयी,उसे अभिव्यक्ति
स्वतंत्रता बताने कोशिश ही नहीं, बल्कि आपत्ति करने वालों को हर तरह से गलत ठहराया
गया,किन्तु वही बात गैर हिन्दुओं के मामले में मजहबी भावनाओं और धार्मिक स्वतंत्रता
को आघात पहुँचाने वाली बन जाती है। खबरों के स्तर पर जनसंचार माध्यमों का यह भेदभाव
धार्मिक ही नहीं, जातिगत स्तर पर भी किया जाता है। इससे साम्प्रदायिक और जातिगत वैमनस्य
और द्वेद्गा को बढ़ावा मिलता है। ऐसे ही मीडिया का सारा जोर सकरात्मक के बजाय नकारात्मक
खबरों को बढ़ाचढ़ा कर परोसने पर रहता है भले ही इससे समाज में हताशा-निराशा फैलती हो। आधुनिक जनसंचार माध्यमों के इस रवैये से तत्कालिक
रूप से उनकी प्रसार संखया या टी.आर.पी.की रेटिंग भले ही बढ़ जाए,पर लोगों में उनकी उपादेयता,
भरोसा, विश्वासनीयता लगातार घट रही है,जो इनकी सबसे बड़ी पूँजी होती है।
सम्पर्क- डॉ.बचन सिंह
सिकरवार 63ब,गाँधी नगर, आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054
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