आओ धर्मनिरपेक्षता -धर्मनिरपेक्षता खेलें
आओ धर्मनिरपेक्षता -धर्मनिरपेक्षता खेलें
डॉ.बचन सिंह सिकरवार
वर्तमान में देश में व्याप्त भ्रष्टाचार ,महँगाई, बेरोजगारी ,अन्याय, अत्याचार ,लाचारी जैसी ज्वलन्त तमाम दूसरी समस्याओं और विकास के मुद्दे को दरकिनार कर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जदयू) के अन्य नेताओं ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री की सम्भावित उम्मीदवारी के विरोध में धर्मनिरपेक्षता का राग छेड़ा हुआ है उससे उनका ही नहीं, देश के अधिकांश राजनीतिक दलों का धर्मनिरपेक्षता(सेक्युलरिज्म)को लेकर देश की आजादी के बाद से किया जा रहा ढोंग की उजागर हो रहा है।
इन कथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों और उनके नेताओं की ‘सेक्युलरिज्म' की परिभाषा उनके अपने स्वार्थों के अनुसार समय-समय पर बदलती रही है।
अभी पहले नीतीश कुमार को ही लेते हैं। उनकी कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टी जदयू पिछले १७सालों से भारतीय जनता पार्टी(भाजपा)से गठबन्धन किये हुए है जो देश की कई राजनीतिक दलों की निगाह में साम्प्रदायिक है। नीतीश कुमार प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में केन्द्र में सत्तारूढ़ रहे ‘राष्ट्रीय जनतांत्रिाक गठबन्धन '(राजग)की सरकार में रेलमंत्री रह चुके हैं और वर्तमान में बिहार में दूसरी बार भाजपा के साथ चुनावी गठबन्धन में चुनाव लड़कर ही मुख्यमंत्री की कुर्सी सम्हाले हुए हैं। क्या बिहार की भाजपा सेक्युलर है?या फिर ‘राजग' के रहते भाजपा सेक्युलर है? वैसे हकीकत में यह वही भाजपा है जिसे नीतीश कुमार के प्रबल प्रतिद्वन्द्वी राष्ट्रीय जनता दल(राजद) के मुखिया पूर्व मुख्यमंत्री, पूर्व रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव घोर ‘साम्प्रदायिक' कहते हुए हमेशा गरियाते रहते हैं लेकिन खुद ‘मुसलमान-यादव' यानी ‘एमवाई' का ध्रुवीकरण करते हुए उन्हें अपनी साम्प्रदायिकता नजर नहीं आती। लालू जी के नक्शे कदम पर चलते हुए चुनाव प्रचार में आतंकवादी बिन लादेन सरीखी पोशक पहन कर मुसलमानों को उनका अव्वल हिमायती बताने-जताने वाले ‘लोजपा' नेता राम विलास पासवान भी अटल बिहारी की राजग सरकार में मंत्री रह चुके हैं। क्या तब भाजपा साम्प्रदायिक नहीं थी? अब वह कैसे राजनीतिक रूप से अछूत हो गयी है? ऐसे ही समाजवादी पार्टी के सबकुछ मुलायम सिंह यादव मुसलमानों का सबसे बड़ा खैरख्वाह जताते हुए उन्हें रात दिन भाजपा का भूत दिखा कर डराते रहते है जबकि वह जनता पार्टी में रह चुके हैं जिसमें भाजपा की मातृ संस्था ‘जनसंघ' सबसे बड़ी घटक थी। एक बार वे भाजपा के समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी बन चुके हैं। इन्हीं की तरह ‘बहुजन समाज पार्टी'(बसपा)की मुखिया मायावती को भी हर समय भाजपा साम्प्रदायिक दिखायी देती है, जबकि वह दो बार उसकी मदद से मुख्यमंत्री बन चुकी हैं। उसके नेताओं ने सपा के लोगों से उनकी जान भी बचायी थी। यह मुसलमानों के थोक वोट बैंक ही राजनीति है कि वाम दलों से मुसलमानों को अपनी तरफ करने के लिए ‘तृणमूल काँगेस' की नेता और अब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को भी भाजपा साम्प्रदायिक नजर आती है जबकि वे भी अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार में मंत्री रह चुकी हैं। यही हालत ओड़िसा में ‘बीजू जनता दल' (बीजद)की नवीन पटनायक, आन्ध्र में ‘तेलुगू देशम पार्टी' (तेदेपा) की है ये दल भी राजग की केन्द्र सरकार में भागीदार रह चुके हैं। कुछ ऐसी स्थिति तमिलनाडु की द्रमुक और अन्ना द्रमुक रही है। अब बात करते हैं जम्मू-कश्मीर की ‘नेशनल कान्फ्रेस' (नेका)की ,जिनके नेता बगैर सत्ता के नहीं जी सकते।इसके लिए उनके नेता डॉ.फारुक अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला कभी काँग्रेस तो कभी भाजपा की ओर दौड़ लगाते रहते हैं। उनके लिए जो उन्हें सत्ता दिलाये वही पार्टी सेक्युलर और कश्मीर की जनता की हिमायती है। अब जहाँ तक ‘धर्मनिरपेक्षता' की सबसे बड़ी झण्डाबरदार पार्टी काँग्रेस का सवाल है तो उसी ने ही वक्त और अपने फायदे के मुताबिक ‘सेक्युलरिज्म' की परिभाषा गढ़ने और उसकी व्याख्या करने की सीख अपने मुल्क दूसरी सियासी पार्टियों को दी है जो अब उसका ही खेल खेल रही हैं। काँगे्रस को केरल में अपनी सरकार बनाने के लिए उस घोर साम्प्रदायिक ‘मुस्लिम लीग' का साथ लेने में कभी दिक्कत पेश नहीं आयी ,जो देश के विभाजन और उस समय भड़की साम्प्रदायिक हिंसा में लाखों की जानें जाने के लिए जिम्मेदार रही है। इसके साथ काँग्रेस और वामपंथी दल कई बार सरकार बना चुके हैं। इन दोनों की निगाह में वह सेक्युलर है। इतना ही नहीं, काँग्रेस को आन्ध्र प्रदेश की ‘इत्तेहाद -ए-मुसलमीन' का समर्थन हासिल करने से भी गुरेज नहीं है जिसके विधायक ओवैसी ने पिछले दिनों हिन्दुओं के कत्ल आम का आह्नान किया था। इसी तरह ईसाई धर्म समर्थक केरल और गोवा के राजनीतिक दल उसकी दृष्टि में सेक्युलर हैं।
कमोबेश यही हालत धर्मनिरपेक्षता के दूसरे पैरोकार वामपन्थी दलों की है उन्हें न तो कट्टरपंथी मुसलमानों की पार्टियों से परहेज और न ईसाइयों की से। सिर्फ उन्हें परहेज तो राष्ट्रवादी दलों से हैं जो इस देश की एकता ,अखण्डता ,स्वतंत्रता और संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखने के पक्षधर हैं। वैसे १९६७ में उ.प्र. में बनी चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में गठित संविद सरकार में कम्युनिस्ट पार्टी भी शामिल थी जिसमें तत्कालीन जनसंघ मुख्य घटक दल थी।
सन् १९७७ में गठित ‘जनता पार्टी' का मुख्य घटक दल ‘जनसंघ' था जिसमें संगठन काँग्रेस , संसोपा, प्रसोपा, स्वतंत्र पार्टी ,काँगे्रस फॉर डेमोक्रेसी'आदि राजनीतिक दल सम्मिलित थे। उस समय ये दल इन्दिरा गाँधी की तानाशाही और सत्ता हासिल करने को एक हुए थे। फिर १९८८-८९ में विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपने ‘जनता दल' की केन्द्र में सरकार बनवाने के लिए एक साथ भाजपा और वामपन्थी दलों से समर्थन लेने में कोई दिक्कत नहीं हुई। जब भाजपा ने ‘मण्डल आयोग' के मुद्दे पर समर्थन पर समर्थन वापस ले लिया ,तो भाजपा उनके लिए ‘साम्प्रदायिक' हो गई।
दरअसल, काँग्रेस ने सन् १९७६ में आपात के दौरान ४२वें संविधान के जरिए संविधान की प्रस्तावना में ‘सेक्युलरिज्म' शब्द जोड़ा है जिसे १९७८ में तत्कालीन जनता पार्टी की सरकार ने ४५वें संविधान संशोधके माध्यम से इसकी काँग्रेस की परिभाषा को ही वैधानिक रूप देने की कोशिश की,लेकिन लोकसभा में इस प्रस्ताव के पारित होने के बाद काँग्रेस ने ही राज्यसभा में पारित नहीं होने दिया था।सेक्युलरिज्म से आशय सभी धर्मों अर्थात् पंथों, उपासना पद्धति के प्रति निरपेक्ष रहना है। भारत में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्' और ‘सर्वे सुखिनः भवन्तु' की अवधारणा समाज में व्याप्त है। ऐसे में धर्मनिरपेक्षता का कोई अर्थ नहीं है। वस्तुतः वर्तमान में सेक्युलरिज्म बहुसंख्यकों का विरोध और अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण में परिवर्तित हो गयी है। यह जानकार आश्चर्य होगा कि देश में ‘सेक्युलरिज्म' की कोई आधिकारिक परिभाषा न संविधान में है, न संसद में बने किसी कानून में और न उच्चतम न्यायालय के किसी निर्णय में दी गयी है। यही कारण है कि देश के राजनीतिक दल समय-समय पर ‘सेक्युलरिज्म' की मनमानी व्याख्या कर लोगों को अपने चुनावी फायदे के लिए भरमाते-बहकाते आये है, ताकि विभिन्न राज्यों में मुसलमानों के १२ से १८ प्रतिशत एक मुश्त वोट बैंक पर कब्जा किया जा सके। इनमें वे राजनीतिक दल भी हैं जिनका सारा चिन्तन और नीतियाँ साम्प्रदायिक हैं। सच्चाई यह है कि अपने देश में ज्यादातर राजनीतिक दलों के लिए जाने को लेकरनीति -सिद्धान्तों के कोई माने नहीं हैं उन्हें मौका आने पर घोर साम्प्रदायिक ,जातिवादी , क्षेत्रवादी , भाषावादी, महाभ्रष्ट ही नहीं, अलगाववादी ,राष्ट्रविरोधी दलों से हाथ मिलाने से भी परहेज नहीं है। ऐसे में नीतीश कुमार समेत दूसरे राजनीतिक दलों का धर्मनिरपेक्षता-धर्मनिरपेक्षता के राग का अलाप महज सत्ता पाने का खेल बन कर रह गया है।
सम्पर्क- डॉ.बचन सिंह सिकरवार
६३ब,गाँधी नगर ,आगरा-२८२००३ उ.प्र.
मो.न.९४११६८४०५४
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