आर्थिक सुधार या आर्थिक विनाश? क्या माने हैं इन आर्थिक सुधारों के?
डॉ.बचन सिंह सिकरवार यह सच है कि समय के साथ शब्दों के माने बदल जाते हैं। अब कुछ ऐसी बात ‘ आर्थिक सुधार ' शब्द को लेकर है। आये दिन हम विभिन्न जनसंचार माध्यमों में यानी समाचार पत्र-पत्रिकाओं से लेकर टी.वी.चैनलों तक में ‘ आर्थिक सुधार ' के बारे में छपी खबरें पढ़ते और चैनलों में समाचारों तथा लम्बी-लम्बी परिचर्चाओं को देख-सुन रहे हैं। इससे यही लगता है कि अपने राजनेताओं के साथ-साथ सुनियोजित तरीके से पत्रकार भी बढ़चढ़ कथित आर्थिक सुधारों का ढिढोरा पीट रहे हैं जैसे उन्होंने भी ‘ आर्थिक सुधार ' का अर्थ बदलने का बीड़ा उठा लिया है। वे देश के नहीं , विदेशी कम्पनियों के पैरोकार/ झण्डाबरदार बन गए हैं। इनकी इस समझ से यह लगता है कि इन्होंने आर्थिक सुधार के माने कहीं सब कुछ विदेशियों को सौंपना तो नहीं समझ लिया है ? तभी तो तथाकथित आर्थिक सुधारों यानी भारतीय कम्पनियों के विनिवेश या उन्हें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बेचने या उनमें प्रत्यक्ष व...